१. व्यक्ति के स्वभाव दोषों का साधना पर नकारात्मक प्रभाव
प्राचीन धर्म-ग्रंथों में एक कथन है –
जैसे कि हमने पूर्व में देखा है कि व्यक्ति के स्वभावदोष ही उसके दुःख का कारण है और उसके गुण उसके सुखी तथा संतोषी बनने में सहायता करते हैं । व्यक्ति के गुण तथा दोष समाज को भी प्रभावित करते हैं, विशेष रूप से तब, जब व्यक्ति समाज को प्रभावित करने की स्थिति में हो । वर्त्तमान काल में इंटरनेट तथा सामाजिक संचार माध्यम की बढती प्रसिद्धि के कारण व्यक्ति की पूरे संसार को प्रभावित करने की संभावना विलक्षण रूप से बढ गर्इ है । स्वभावदोष सामान्यतः व्यक्ति तथा अन्यों को दुःख देते हैं तथा जीवन के प्रति व्यक्ति की प्रवृत्ति को अंधकारमय बना देता है । दुःख के अतिरिक्त स्वभावदोषों के आध्यात्मिक प्रभाव भी होते हैं । चलिए एक साधक का उदाहरण देखते हैं, जो साधना करने का प्रयास करता है; किंतु उसमें अनेक दोष हैं ।
१. एकाग्रता का अभाव : SSRF गुरुकृपायोगानुसार साधना करने का सुझाव देता है, जिसमें साधना के आठ चरण हैं । यद्यपि र्इश्वर का नामजप आध्यात्मिक मार्ग का आधार है; किंतु अवचेतन मन अनेक स्वभावदोषों तथा अहं से भरे होने के कारण उसमें नामजप का केंद्र निर्मित करना कठिन हो जाता है । अनेक स्वभावदोषों के कारण साधक नामजप पर मन एकाग्र नहीं कर पाता । वास्तव में, स्वभावदोषों के कारण, व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार की साधना में मन एकाग्र करना कठिन हो जाता है ।
२. र्इश्वर से एकरूप होने में असमर्थता : साधना का अंतिम लक्ष्य र्इश्वर से एकरूप होना है । जैसे तेल की एक बूंद अपने मूल गुणधर्म के कारण पानी के साथ नहीं मिल सकती, ठीक वैसे ही अनेक स्वभावदोषों के साथ दोषरहित तथा सर्वगुणसंपन्न हैं, र्इश्वर से एकरूप होना असंभव है ।
३. साधना से संतोष न मिलना : जिस साधक में अनेक स्वभावदोष तथा तीव्र अहं हो, उसे साधना से कभी संतुष्टि नहीं मिलती, क्योंकि उसका नकारात्मक स्वभाव सदैव उसमें बाधक बनेगा ।
४. अनिष्ट शक्ति का नियंत्रण : आध्यात्मिक आयाम की कष्टदायक शक्तियां इस साधक के विविध स्वभावदोषों तथा अहं का लाभ उठाकर बडी सरलता से उसे प्रभावित एवं नियंत्रित कर लेती हैं ।
५. साधना की क्षमता क्षीण होना : स्वभाव दोष तथा अहं के कारण साधक से हुर्इ गलतियां उसकी साधना से प्राप्त ऊर्जा को क्षीण कर देती है तथा उसकी क्षमता तथा दक्षता भी घट जाती है ।
२. साधना में स्वभावदोष निर्मूलन की प्रधानता
ऊपरोक्त सर्व कारणों से अनेक स्वभावदोष युक्त साधकों की प्रगति नहीं होती तथा वे जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रह जाते हैं ।
इसी कारण से परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी ने अपने मार्गदर्शन में कहा है ।
‘आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने हेतु, साधक के लिए स्वभाव दोष तथा अहं का निर्मूलन आवश्यक है, चाहे वह जिस किसी भी मार्ग जैसे कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, हठयोग, कुंडलिनीयोग इत्यादि अनुसार साधना करता हो । पहले के युग जैसे सत्युग, त्रेतायुग तथा द्वापरयुग में लोगों में स्वभाव दोष तथा अहं अत्यल्प थे । वर्त्तमान कलियुग में अधिकांश व्यक्ति अपने स्वभाव दोष तथा अहं के कारण आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पा रहे । इसलिए किसी भी मार्ग से साधना करनेवाले को अपने स्वभाव दोष तथा अहं का निर्मूलन करने को महत्त्व देना चाहिए ।’
– (परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
२८ मर्इ २०१५
गुरुकृपायोगानुसार साधना के ८ चरण निम्नलिखित हैं :
अभी तक साधना आरंभ करनेवालों के लिए साधना के आठों चरणों में से ‘नामस्मरण’ ‘सत्संग’ तथा ‘सत्सेवा’ को महत्त्व दिया जाता था । किंतु कालानुसार तथा स्वभाव दोष तथा अहं निर्मूलन के महत्त्व को समझकर साधकों को इस क्रम में साधना करने का प्रयास करना चाहिए – ‘स्वभाव दोष निर्मूलन’, ‘सत्सेवा’, ‘नामस्मरण’, ‘सत्संग’, ‘त्याग’, ‘प्रीति’, ‘भावजागृति’ तथा अहं निर्मूलन । यदि साधक निष्ठापूर्वक ‘स्वभाव दोष निर्मूलन’ तथा ‘अहं निर्मूलन’ को साधना के अन्य चरणों के साथ करता है, तो उसकी आध्यात्मिक उन्नति निश्चित है ।