सार
प्रारब्ध एक शक्तिशाली आध्यात्मिक घटक है, जो सभी प्राणियों की गतिविधियों को नियंत्रित करता है और हमारे सुख-दुख का मूल कारण है । प्रारब्ध हमारे पूर्व जन्मों के संचित अच्छे-बुरे कर्मफल हैं, जो हमारे वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं । हमारे जीवन की ६५% घटनाएं प्रारब्धवश होती हैं । अल्प प्रारब्ध मध्यम साधना से दूर किया जा सकता है । मध्यम प्रारब्ध तीव्र साधना से तथा तीव्र प्रारब्ध केवल उच्च आध्यात्मिक स्तर के गुरू की कृपा से ही दूर होता है ।
कृपया लेख पढें, प्रारब्ध और क्रियमाण क्या है ?
१. प्रस्तावना
श्री अरविंद ठक्कर, प्रबंधन विषय के स्नातकोत्तर पदवीप्राप्त हैं । आप एक प्रसिद्ध भारतीय प्रतिष्ठान (कंपनी) में जिम्मेदार पदों पर कार्यरत रह चुके हैं । आपने प्रबंध सलाहकार के रूप में भी कार्य किया है तथा विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को प्रबंधन (मैनेजमेंट) विषय पढाया है । वे गत १४ वर्ष से भी अधिक समय से अपना जीवन SSRF को समर्पित कर साधना कर रहे हैं । नीचे हम उनके जीवन का पूर्वनिर्धारित, प्रारब्ध का एक प्रसंग उन्हीं के शब्दों में देखेंगे । इस घटना में साधना के कारण वे मृत्यु के मुख से लौट पाए ।
२. एक ज्योतिषी का भविष्यकथन
३० मार्च १९८८ को मेरा एक मित्र मुझे एक प्रसिद्ध ज्योतिषी के पास ले गया । उस समय मैं २८ वर्ष का था । ज्योतिषी द्वारा मेरे बीते जीवन की अनेक घटनाओं को सही-सही विवरण करनेपर मैं बहुत चकित हुआ । उसके पश्चात उसने मुझे मेरे निकट भावी जीवन में होनेवाली कुछ घटनाओं के विषय में बताया । उन घटनाओं में उसने एक ऐसी घटना की ओर भी संकेत किया, जब मेरे जीवन में अत्यंत कठिन समय आएगा; किंतु, इससे अधिक उसने कुछ नहीं बताया । उसने मुझे यह भी बताया कि मुझे तीन के गुट में कभी नहीं रहना चाहिए और ३५ वर्ष का होने से पहले मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा । उसने ज्योतिषशास्त्र के अनुसार मेरे प्रारब्ध का वैज्ञानिक ढंग से सटीक वर्णन किया । मैं उसका यह भविष्यकथन सुनकर कुछ क्षण के लिए व्याकुल हो गया ।
३. परम पूज्य डॉ. आठवलेजी से भेंट
मार्च १९९१ में विवाह के पश्चात शीघ्र ही मेरे और मेरी पत्नी डॉ. आशा के जीवन में सौभाग्य से प.पू. डॉ. आठवलेजी आए । आशा, जो एक मनोचिकित्सा विशेषज्ञ (M.D in Psychiatry) हैं, आत्मसम्मोहन की उन कुछ पद्धतियों में रुचि रखती थी, जिनके प.पू. डॉ आठवलेजी प्रवर्तक (pioneer) थे और संपूर्ण भारत में अनेक चिकित्सकों (डॉक्टरों) को इसका प्रशिक्षण भी दे रहे थे ।
४. प.पू. डॉ. आठवलेजी का हमारे जीवन पर प्रभाव
उन्होंने हमें हमारे कुलदेवता का नाम जपने के लिए कहा । इस विषय से मैं परिचित नहीं था । हमने शीघ्र ही यह आरंभ कर दिया और दृढता से करते रहे । उन्होंने हमें उनके गुरु प.पू. भक्तराज महाराज से मिलकर आशीर्वाद लेने के लिए प्रोत्साहित किया । लगभग उसी समय प.पू.डॉ. आठवलेजी ने गोवा में अध्यात्मशास्त्र की कार्यशाला आरंभ की । इस कार्यशाला में हम प्रतिदिन जाने लगे । हम भाग्यशाली हैं कि हमें वहां पर सत्सेवा करने का अवसर मिला, जो साधना का अंग है ।
इस काल में मेरा व्यवसाय फैल चुका था । इसके पहले, ऐसा समय भी था जब मेरे लिए जीवनयापन करना कठिन था । ऐसा प्रतीत होता था कि हमारे पूरे परिवार पर संकट के बादल छाए हैं । मेरे दो भाई और उनकी पत्नियां, आशा तथा मैं जीवन में लगातार उतार-चढाव सह रहे थे । इनमेंे वैवाहिक समस्याएं, निराशा तथा मद्यपान, गर्भपात, आत्महत्या के विचार तथा आर्थिक हानि सम्मिलित थी । साधना संबंधी कार्याशालाओं से हमें पता चला कि इन सब समस्याओं का मूल कारण पितृदोष अर्थात अतृप्त मृत पूर्वजों के सूक्ष्म शरीर हैं ।
हम अपनी साधना में दृढता से लगे रहे और जब भी प.पू. डॉ. आठवलेजी कार्यशाला हेतु मुंबई से गोवा आते, हम कार्यशाला में अवश्य सहभागी होते । उनके मार्गदर्शन से हम साधक एक दूसरे के निकट आ गए, हमारा जीवन उन्नत हुआ और उन्होंने हमें व्यक्तिगत स्तर पर स्थिर किया । जुलाई १९९३ में, प.पू. डॉ. आठवलेजी का गोवा के दावरलिम में व्याख्यान निश्चित हुआ । यह व्याख्यान भगवान दत्तात्रेय के मंदिर में हुआ था ।
(भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मांड के अनेक ईश्वरीय तत्त्वों में एक ऐसे तत्त्व हैं, जो पितृदोष से उत्पन्न समस्याओं से हमारी रक्षा करते हैं, कृपया पितृदोष संबंधी अनुभाग पढिए ।)
प.पू. डॉ. आठवलेजी ने ध्यान रखा कि मेरी मां प्रवचन में अवश्य आएं तथा भगवान दत्तात्रेय के मंदिर प्रसाद चढाएं । प.पू. डॉ. आठवलेजी ने हमें, पितृदोष से उत्पन्न समस्याएं दूर करने के लिए, दो धार्मिक अनुष्ठान – नारायण-नागबलि तथा त्रिपिंडी श्राद्ध करने का परामर्श भी दिया । यह अनुष्ठान, मृत पूर्वजों के सूक्ष्मदेहों को निम्न योनि (प्रेतयोनि अथवा भूतयोनि) से उच्चलोक में जाने के लिए गति देता है । उन्होंने कहा कि इन अनुष्ठानों से पूरा लाभ पाने के लिए इसमें पूरे परिवार का, विशेषरूप से माता-पिता का सम्मिलित होना आवश्यक है । मेरे परिवार के अन्य सदस्य SSRF के किसी भी आध्यात्मिक परामर्श से सहमत नहीं थे । उनकी अनुमति के साथ; किंतु उनके प्रत्यक्ष सहभाग के बिना हमने विधि की ।
१३ अगस्त १९९३ की रात मुझे एक विलक्षण अनुभव हुआ । जब मैं अपनी कुलदेवी अंबामाता का नामजप कर रहा था, तब मुझे जागृत अवस्था में ही उनके दर्शन हुए । मैंने अनुभव किया कि मेरा शरीर अदृश्य हो गया है और पैर से सिरतक प्रत्येक अवयव के चारों ओर सुरक्षा कवच बन रहा है । देवी अंबा ने अपना हाथ मेरे सिर पर रखा । तब मेरी आंखों से अनियंत्रित अश्रु धार बहने लगी । मुझे नहीं पता चल रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है । आगे पता चला कि ये आंसू मेरे भाव जागृत होने के प्रतीक थे । दूसरे दिन जब मैंने प.पू. डॉ. आठवलेजी को इस घटना के विषय में बताया, तो उन्होंने इसे अच्छी अनुभूति कहा ।
(भाव, एक सकारात्मक आध्यात्मिक अनुभूति है जो र्इश्वर का अस्तित्व अनुभव होनेसे उत्पन्न होती है । इसका प्रकटीकरण अनेक रूपों में हो सकता है और उनमें से एक है, ठंडे अश्रु बहना ।)
५. प्रारब्ध की घटना
१६ अगस्त १९९३ को मेरे छोटे भाई संजय की (उस समय की आयु ३१ वर्ष) कार उसके निवासस्थान -मडगांव गोवा से चोरी हो गई । पश्चात, २३ अगस्त १९९३ को किसी व्यक्ति ने दूरभाष कर कहा, आपकी कार दावरलिम, गोवा में वाहन ठीक करने की कार्यशाला में देखी गई है । एक-एक कर हम तीनों भाई (संजय, जयदीप और मैं) उस वाहन कार्यशाला में पहुंचे । उस समय मेरा छोटा भाई जयदीप २९ वर्ष का था । कार्यशाला में पहुंचने के १ घंटे पश्चात, हॉकी, चाकुओं तथा अन्य शस्त्रों से सज्जित एक संगठित गिरोह ने हम पर आक्रमण कर दिया ।
यह गिरोह यहां लंबे समय से सक्रिय था । कुछ स्थानीय राजनेताओं और पुलिसकर्मियों के संरक्षण में दक्षिण गोवा में चुराए गए पुराने वाहनों को उस वाहनकार्यशाला (workshop) में नए रंग लगाकर दूसरा नंबर दिया जाता था । इस गिरोह में मुंबई के कुछ कुख्यात अपराधी सम्मिलित थे । वे यह सोचकर डर गए कि अब उनके गिरोह का भंडाफोड हो जाएगा ।
इस अचानक हुए आक्रमण में जयदीप और मुझे निर्दयतापूर्वक पीटा गया । वहां भारी भीड जमा हो गई और लोग चुपचाप सब देखते रहे; किसी ने सहायता नहीं की । संजय सहायता के लिए मडगांव पुलिस स्टेशन की ओर भागा । जब मुझे पीटा जा रहा था, तब अंदर से आवाज आई, अपने कुलदेवता का नामजप करो । तत्क्षण ही मेरा नामजप आरंभ हो गया । तब प्रत्येक मार की पीडा धीरे-धीरे घटती गई । उस समय अनुभव हुआ, तुम मेरे शरीर को पीट रहे हो, मुझे नहीं ! शरीर में भयंकर पीडा हो रही थी; किंतु मैं अनुभव कर रहा था कि, मैं शरीर नहीं हूं ।
जब मेरा शरीर निर्जीव हो गया, तब अपराधियों ने मुझे उठाया और मेरी रीढ को एक लकडी के मोटे खंभे से टकरा-टकरा कर तोडने लगे । फिर उन्होंने मुझे मरा हुआ समझकर नाले में फेंक दिया और जयदीप पर प्रहार करने लगे । नाले में पडा हुआ मेरा शरीर यद्यपि निर्जीव था; फिर भी मैं अपने आसपास की घटनाओं को देख पा रहा था और अपने भीतर चल रहा नामजप सुन पा रहा था ।
तभी संजय घटनास्थल की ओर लौटता दिखाई दिया । किंतु, उसके साथ पुलिस नहीं थी । कुछ ही समय में वह मुझे नाले से निकालकर समीप के एक घर में ले गया जो भगवान दत्तात्रेय के मंदिर के समीप सामने की गली में ही था ! जब संजय जयदीप को बचाने गया, तो उस पर भी क्रूरता से आक्रमण किया गया । इस आक्रमण में मेरे दोनों भाइयों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई । दूसरी ओर मुझे मडगांव के चिकित्सालय में भर्ती कराया गया । मेरी सांसें चल रही थीं; परंतु मेरी स्थिति इतनी गंभीर थी कि मडगांव के चिकित्सालय ने प्राथमिक जांच और उपचार के पश्चात मुझे वहां से ३० किमी दूर सरकारी गोवा मेडिकल कॉलेज के चिकित्सालय, बांबोली में भर्ती कराने का सुझाव दिया; क्योंकि वे अधिक कुछ नहीं कर सकते थे । एम्बुलेंस के गोवा मेडिकल कॉलेज पहुंचने से पहले ही, एक साधिका डॉक्टर (SSRF से संबंधित) ने प.पू. डॉ. आठवलेजी को दूरभाष कर, यहां हुई घटना के विषय में बताया । उन्होंने उसे चिंता न करने के लिए कहा और अन्य डॉक्टरों से उचित उपचार करते रहने के लिए कहा ।
उस रात SSRF की एक अन्य साधिका की, गोवा मेडिकल कॉलेज में परिवीक्षा (इंटर्नशिप) सेवा थी । जब वह मुझे देखने के लिए वहां के डॉक्टरों के एक दल के साथ भागी-भागी अतिदक्षता विभाग में पहुंची, तो उसने जो देखा, उसके विषय में बाद में उसने बताया कि संपूर्ण चिकित्सा प्रशिक्षणकाल में भी उसे ऐसी परिस्थिति को संभालने की शिक्षा नहीं दी गई थी । मेरा शरीर रक्त से इतना लथपथ और टूटा हुआ था कि उसे पहचाना नहीं जा सकता था ।
इस अवधि में प.पू. डॉ. आठवलेजी अपने मुंबई स्थित निवासस्थान में ध्यानावस्था में चले गए और तबतक उसी अवस्था में रहे, जबतक मेरा प्राथमिक उपचार गोवा मेडिकल कॉलेज में चलता रहा । (यह बात उन साधकों ने मुझे बताई, जो उस समय उनके साथ थे ।)
६. चमत्कारी उपचार होना
निम्नलिखित कुछ घटनाएं मुझे लगी चोटों में अद्वितीय सुधार की ओर संकेत करती हैं ।
- मडगांव अस्पताल में वहां के चिकित्सकों को मेरे सिर में एक हलका सा अस्थिभंग (hairline fracture) दिखाई दिया । किंतु, जब गोवा मेडिकल कॉलेज में एक्स-रे किया गया, तो उसमें वह अस्थिभंग नहीं दिखा ।
- सामान्य जांच के समय जीएमसी के चिकित्सकों ने अनुभव किया कि शरीर में अनेक स्थानों पर अस्थिभंग (हड्डी टूटी) है । किंतु, एक्स-रे से पता चला कि मेरा हड्डी का ढांचा सामान्य था ।
- मेडिकल कॉलेज के चिकित्सक मेरे स्वास्थ्य में शीघ्रता से होते सुधार से आश्चर्य चकित थे । साधारणतया, इस प्रकार की चोट को ठीक होने में अनेक महीने और त्वचा का रंग सामान्य होने में कुछ सप्ताह लग जाते हैं; किंतु, मेरे प्रकरण में चोट के चिह्न ३ दिन में ही धुंधले हो गए थे ।
- चौथे दिन मुझे बताया गया कि, मेरे भाइयों की मृत्यु हो गई है और मुझे घर ले जाने की व्यवस्था होने लगी । मुझे व्हील चेयर में बिठाकर कार तक पहुंचाया गया । जब मैं मडगांव पहुंचा, तब कुर्सी से उठकर सीढियों चढकर घर तक गया । उस समय गोवा मेडिकल कॉलेज के डीन ने कहा, कि अभीतक कोई चमत्कार देखा है, तो यही है। एक रोगी जिसके बचने की कोई आशा नहीं थी और जिसके शरीर की हड्डियां अनेक स्थानों से टूटीं थी, वह चौथे दिन उठकर अपने पैरों पर चलते हुए घर गया !
(ये चमत्कारी उपाय श्री अरविंद के आध्यात्मिक गुणों के कारण भी हुए थे ।)
जब SSRF के प्रगत छठवीं इंद्रिय प्राप्त साधकों ने इस घटना का सूक्ष्म-परीक्षण किया, तो पता चला कि मेरा अकाल मृत्युयोग था । अकाल मृत्युयोग का अर्थ है, मृत्यु की संभावना ।
(हम सबके जीवन में मृत्य का दिन और समय पहले से निश्चित रहता है । इसे अंतिम मृत्यु कहते हैं और इससे कोई नहीं बच सकता । हम में से कुछ लोगों के जीवन में कुछ ऐसे अवसर होते हैं, जब प्रारब्ध के कारण हमारी मृत्यु भी हो सकती है । इसी को अकाल मृत्यु कहते हैं । अपनी साधना के बल पर तथा संतों के आशीर्वाद से हम इस तीव्र प्रारब्ध से बच सकते हैं । अरविंद के प्रकरण में, वे अपनी साधना के कारण इस अकाल मृत्यु से बच पाए ।)
यह भी ज्ञात हुआ कि पितरों को गति देने के लिए की गई धार्मिक विधियों के प्रभाव से इस घटना में पितरों के संभावित कष्ट अल्प हुए थे । इसलिए, घटना के समय हम तीनों भाइयों को अल्प पीडा हुई । ऐसे प्रकरणों में साधारण व्यक्ति को जहां १०० प्रतिशत पीडा होती है, हमें २० प्रतिशत ही हुई । यह अतृप्त पूर्वजों के लिए की गई – नारायण नागबली और त्रिपिण्डी श्राद्ध विधि करने का प्रभाव था ।
७. इस घटना से संबंधित तीन महत्त्वपूर्ण संवाद
- इस घटना के कुछ दिन पहले भारत के एक संत प.पू. काणे महाराज ने SSRF के एक साधक से कहा था कि हम लोगों पर एक बडा संकट आएगा, जो भगवान के प्रति हमारे विश्वास को हिला देगा । जब उस साधक ने यह बात प.पू. डॉ. आठवलेजी को बताई, तब उन्होंने कहा, देखते हैं, कौन अधिक शक्तिशाली है -र्इश्वर अथवा असुर ।
- जब कुछ साधकों ने प.पू. डॉ. आठवलेजी से मुझे गोवा मेडिकल कॉलेज में सुरक्षा प्रदान करवाने के विषय में पूछा, तो उन्होंने कहा, जिसने आक्रमण में अरविंद को बचाया, क्या वह उन्हें अस्पताल में नहीं बचाएगा !
- दो सप्ताह पश्चात प.पू. डॉ. आठवलेजी हमारे माता-पिता से मिलने आए । तब मेरी मां ने उनसे मेरी सुरक्षा और कुशल-मंगल के विषय में पूछा । उन्होंने कहा, अरविंद सुरक्षित रहेगा ।
जब प.पू. डॉ. आठवलेजी अगली बार हमारे घर, गोवा आए, तो उन्होंने कहा कि आपके परिवार में एक और मृत्यु होगी । हम इसका अनुमान लगा रहे थे । १८ सितंबर १९९३ को, आशा के पिता की गंभीर हृदयाघात से मृत्यु हुई । वे जयदीप से बहुत प्रेम करते थे । इसके पहले उन्हें कभी इस प्रकार का कष्ट नहीं हुआ था ।
उस वर्ष, मेरे माता-पिता ने आत्महत्या करने का प्रयत्न किया था; किंतु, एक प्रबल शक्ति उन्हें संभाल रही थी तथा ऐसा करने से रोक रही थी ।
वर्ष १९९६ में हम नए भवन में स्थानांतरित हो गए । नए भवन में स्थानांतरित होने से पहले हमने उसमें कुलदेवी की पूजा की । परिवार के सभी सदस्यों ने कुलदेवी और भगवान दत्तात्रेय का नामजप करना आरंभ कर दिया । तबसे जीवन सामान्य हो गया है । जीवन के प्रत्येक उतार-चढाव में र्इश्वर का आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहता और हम स्थिर रहते हैं ।
इस घटना के १३ वर्ष पश्चात, एक उतरे हुए कंधे, हड्डियों के विकार, एंकिलोसिंग स्पाँडिलोसिस और अन्य समस्याओं के साथ जो इस घटना से संबंधित चिन्ह हैं, उनके आशीर्वाद से मैं अपनी सत्सेवा एक सामान्य व्यक्ति की भांति कर पाता हूं ।
(आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नतोंका आशीर्वाद व्यक्ति के घोर प्रारब्ध से उसकी रक्षा करने हेतु शक्तिशाली सुरक्षा-कवच प्रदान करता है और प्रारब्ध को दूर करने का साधन बनता है ।)