विषय सूची
१. परिचय
हममें से प्रत्येक की यह समझने की इच्छा होगी कि उचित ढंग से किसप्रकार सोया जाए जिससे कि जागने पर हम पूर्ण विश्रांति का अनुभव करें । शांत निद्रा अनेक कारकों पर निर्भर करती है । इनमें से एक है हमारी सोने की पद्धति । हम सभी की सोने की कोई न कोई विशेष पद्धति होती है जिससे सोने पर हमें आराम का अनुभव होता है । हम जानते हैं कि हमारी सोने की पद्धति का हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव होता है । साथ ही सोने की विभिन्न पद्धतियों की अनेक मनोवैज्ञानिक व्याख्याएं भी हैं । इस लेख में हम आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शांत निद्रा के लिए क्या करें, यह बताएंगे । सोने की सबसे अच्छी पद्धति कौन-सी है तथा क्यों है, हम इस पर विशेष ध्यान देंगे । हम यह भी बताएंगे कि सोने की प्रत्येक पद्धति के साथ सूक्ष्म आयाम में क्या होता है । इससे हम भली भांति किस प्रकार सोएं तथा सोने की किस पद्धति द्वारा यह संभव है, इस दिशा में योग्य निर्णय ले सकेंगे ।
आरंभ में हमें यह समझना होगा कि
- आध्यात्मिक दृष्टिकोण से नींद मूलतः तमोगुणी स्थिति है । इसका अर्थ यह है कि नींद के समय हमारे शरीर में तमोगुण बढ जाता है ।
- इसके साथ-साथ सोते समय हमारी साधना न्यूनतम होती है, इसलिए उस समय हम आध्यात्मिक रूप से सबसे अधिक दुर्बल होते हैं । अत;जब हम सोते हैं तो अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, राक्षस इत्यादि) के आक्रमण की संभावना अधिक होती है ।
हमें शरीर के कुंडलिनी ऊर्जातंत्र की आधारभूत जानकारी ज्ञात होनी चाहिए ।
कुंडलिनी शरीर में जन्मजात आध्यात्मिक ऊर्जा तंत्र है । इसमें सात मुख्य केंद्र अथवा चक्र हैं, तीन मुख्य नाडियां – सूर्य नाडी (दाईं नाडी अथवा पिंगला नाडी), चंद्रनाडी (बाईं नाडी अथवा इडा नाडी)और केंद्रीय नाडी (सुषुम्नानाडी)और असंख्य वाहिनियां हैं ।
नीचे दिया चित्र मनुष्य की निष्क्रिय कुंडलिनी ऊर्जा तंत्र को दर्शाता है ।
स्थूल शरीर के संबंध में चक्रों का चित्र भी देखें ।
शारीरिक तथा मानसिक कार्यों के लिए शक्ति का प्रवाह सूर्य और चंद्र नाडी से होकर होता है । केंद्रीय नाडी से होनेवाले प्रवाह का संबंध आध्यात्मिक उन्नति से है ।
सूर्य नाडी रज प्रधान और चंद्र नाडी सत्व प्रधान है । शक्ति, इडा और पिंगला नाडी से होकर बारी-बारी से प्रवाहित होती है । यह परिवर्तन प्रत्येक तीन-चार मिनटों में होता है । शरीर में इडा और पिंगला नाडी द्वारा एक से दूसरी ओर जाने के कारण यद्यपि शक्ति के प्रवाह में इतनी बार परिवर्तन होता है, तब भी शरीर के दोनों भाग दोनों प्रकार की पर्याप्त ऊर्जा मिलती है । यह दोनों प्रकार की शक्ति प्रवाह के बीच संतुलन बनाए रखता है ।
सूर्य से चंद्र नाडी की ओर परिवर्तन के समय निम्न आध्यात्मिक स्तर के लोगों में सुषुम्ना नाडी थोडी मात्रा में १-२ सेकंड के लिए सक्रिय हो जाती है । लाभ की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसी स्थिति में सुषुम्ना नाडी के सक्रिय होने का लाभ नगण्य है । बढते आध्यात्मिक स्तर के साथ सुषुम्ना नाडी की सक्रियता की अवधि बढ जाती है । ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर होने पर सक्रियता (की अवधि)१-२ मिनट से अधिक समय तक रहती है । जब यह सक्रियता इतने समय तक रहती है तब आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से लाभ होता है ।
नाडी की सक्रियता सोने की पद्धति पर भी निर्भर करती है । हम जिस करवट सो रहे होते हैं उसकी विपरीत नाडी प्रधानता से सक्रिय हो जाती है । जब ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तरवाला व्यक्ति पीठ के बल सोता है, तब उसकी सुषुम्ना नाडी कार्यरत होती है । इससे अल्प आध्यात्मिक स्तर के लोगों में कोई भी नाडी कार्यरत नहीं होती ।
सूर्य तथा चंद्र नाडी की सक्रियता शरीर की आवश्यकता के अनुसार भी हो सकती है । उदाहरण के लिए भोजन करने के पश्चात मुख्यत: सूर्य नाडी के कार्यरत रहने से भोजन पचने में सहायता होती है ।
भावनाओं का आवेश होने पर भी सूर्य नाडी सक्रिय हो जाती है । भावनाओं के शांत होने पर चंद्र नाडी सक्रिय हो जाती है । यद्यपि जब भावनात्मक स्थिति में तीव्र अस्थिरता हो, तब दोनों नाडियों में तीव्र और अनियमित परिवर्तन होता रहता है और सूर्य नाडी मुख्य रूप से सक्रिय रहती है । परिणामस्वरूप दोनों प्रकार की शक्ति प्रवाह (रज और सत्व)में असंतुलन रहता है । भावुक व्यक्ति में भावनाओं का यह तीव्र उतार-चढाव सोते समय उसके अवचेतन मन में भी चलता रहता है । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अवचेतन मन के संस्कार नींद के समय भी सक्रिय रहते हैं ।
संदर्भ अनुवर्ग (ट्यूटोरियल) – मन की आध्यात्मिक प्रकृति
२. सोने की पहली पद्धति-पीठ के बल सोना
- जब हम पीठ के बल सोते हैं तो हमारे शरीर की कोशिकाओं में चेतना (मन तथा शरीर के कामकाज को नियंत्रित करनेवाले चैतन्य का एक रूप) अव्यक्त और निष्क्रिय हो जाती है ।
- हमारे शरीर का अधिकांश भाग पाताल की दिशा में होता है क्योंकि शरीर का एक बडा भाग भूमि की दिशा में होता है ।
उपरोक्त दो कारणों के संयुक्त प्रभाव से शरीर की कोशिकाएं पाताल लोक से आनेवाले कष्टदायक स्पंदनों के आक्रमण से बचने में असमर्थ होती हैं ।
यद्यपि सोने की इस पद्धति का प्रभाव व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर के अनुसार भिन्न होता है ।
परिदृश्य १ : ५५ प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक स्तर
५५ प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति में भाव की तुलना में भावनाओं की मात्रा अधिक होती है । इस कारण दोनों नाडियों के मध्य तीव्र तथा बारंबार परिवर्तन होता है । अत:, शरीर में कुंडलिनी ऊर्जा तंत्र की सूर्य और चंद्र नाडी के ऊर्जा प्रवाह में निरंतर असंतुलन रहता है ।
जैसा कि पहले बताया गया है कि जब ५५ प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति पीठ के बल सोता है तो उसकी सुषुम्ना नाडी सक्रिय नहीं होती । उसकी भावनात्मक प्रकृति के कारण शरीर में ऊर्जा के प्रवाह में असंतुलन होता है । सूर्य और चंद्र नाडी का असंतुलित ऊर्जा प्रवाह, वातावरण से शरीर में रज-तम घटकों का तीव्र स्थानांतरण को प्रभावित कर सकता है । जब व्यक्ति में रज-तमोगुण की मात्रा में वृद्धि होती है तो पाताल से आनेवाले कष्टदायक स्पंदनों के आक्रमण का संकट बढ जाता है । यदि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक प्रगति कर अप्रकट भाव के स्तर तक पहुंच जाता है, तब वह ऊर्जा के इस प्रवाह को नियंत्रित कर सकता है । तब तक के लिए यह उत्तम होगा कि पीठ के बल सोने से बचा जाए जिससे शरीर का अधिकांश भाग पृथ्वी की ओर अथवा पाताल की ओर न हो ।
सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित निम्न चित्र ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तरवाले व्यक्ति पर पीठ के बल सोने के होनेवाले प्रभाव को दर्शाता है :
उपाय : यद्यपि, किसी कारण यदि किसी को पीठ के बल सोना है तो आध्यात्मिक उपायों द्वारा, जैसे सोने से पहले बिछावन के निकट सात्त्विक अगरबत्ती जैसे SSRF निर्मित अगरबत्ती जलाकर, तकिए के नीचे देवता का चित्र रखना, शयनकक्ष का शुद्धिकरण विशेषकर बिछावन के निकट, देवताका नामजप मंद स्वर में रातभर बजाना इत्यादि से कष्ट का संकट न्यून किया जा सकता है ।
परिदृश्य २.५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर
जब ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति पीठ के बल सोता है तो उसकी सुषुम्ना नाडी सक्रिय हो जाती है । उसमें भाव अधिक होता है और भावनाओं का प्रभाव अत्यल्प होता है । जब आध्यात्मिक स्तर ५५ प्रतिशत से अधिक होता है तो आवश्यकता अनुसार शरीर में सूक्ष्म मूल रज-तम घटकों के प्रवाह पर व्यक्ति का नियंत्रण हो जाता है । यह व्यक्ति के अव्यक्त भाव के स्तर पर होता है । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि व्यक्ति आत्मशक्ति के स्तर पर अधिकाधिक कार्य करने लगता है । यह ५५ प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक स्तर के व्यक्तियों के मन:स्तर पर कार्य करने के विपरीत होता है । आत्मशक्ति, कुंडलिनी प्रणाली की सूर्य और चंद्र नाडी में संतुलन बनाए रखती है ।
३. सोने की दूसरी पद्धति-पेट के बल सोना
जब व्यक्ति पेट के बल सोता है तो उसके पेट के रिक्त स्थानों पर दबाव आता है । इस दबाव के कारण उदर की सूक्ष्म त्याज्य वायुओं का प्रवाह नीचे की ओर होने लगता है । कभी-कभी जब इन सूक्ष्म त्याज्य वायुओं की मात्रा छाती की ओर अधिक हो जाता है तो यह ऊपर की ओर चलने लगती हैं और मुख तथा नाक से बाहर निकलती हैं । सूक्ष्म त्याज्य वायुओं के निष्कासन के समय शरीर बाह्य वातावरण की सूक्ष्म मूल रज-तम तरंगों को अवशोषित करने में अत्याधिक संवेदनशील होता है । इस पद्धति में सोने पर शरीर के (आंतरिक)अवयवों की गति धीमी हो जाती है और(आंतरिक)अंगों के आसपास का रिक्त स्थान , त्याज्य वायुओं के दबाव के कारण सक्रिय हो जाता है । इस कारण सूक्ष्म त्याज्य वायुओं की(आंतरिक)अंगों से निकल कर रिक्त स्थानों में भरे जाने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है । इस अवधि में मनुष्य का शरीर सूक्ष्म मूल रज-तम घटकों के संचरण की प्रक्रिया के लिए अति संवेदनशील होता है । परिणामस्वरूप वह व्यक्ति वातावरण तथा पाताल के क्षेत्रों से हो रहे अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की चपेट में होता है ।
सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित निम्न चित्र व्यक्ति द्वारा पेट के बल सोने पर होनेवाले प्रभाव को दर्शाता है :
४. सोने की तीसरी पद्धति-दायीं अथवा बाईं करवट सोना
जब व्यक्ति दायीं अथवा बाईं करवट सोता है तो मुख्य रूप से कुंडलिनी शक्ति की सूर्य तथा चंद्र नाडी सक्रिय होती है ।
सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित निम्न चित्र व्यक्ति द्वारा दाईं करवट सोने पर होनेवाले प्रभाव को दर्शाता है :
- जब व्यक्ति दाईं करवट सोता है तो चंद्र नाडी सक्रिय होती है ।
सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित निम्न चित्र व्यक्ति द्वारा बाईं करवट सोने पर होनेवाले प्रभाव को दर्शाता है :
- व्यक्ति बाईं करवट सोता है तो सूर्य नाडी जागृत होती है ।
सूर्य अथवा चंद्र नाडी जागृत होती है तो शरीर की काशिकाओं में चेतना सक्रिय रहती है । परिणामस्वरूप, वहां उत्पन्न सूक्ष्म मूल तम घटक निम्न स्तर पर रहता है और चेतना भी अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से लडने में सहायता करती है ।
५. सारांश
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जब तक व्यक्ति का स्तर ५५ प्रतिशत से अधिक नहीं हो जाता उसके लिए दाईं अथवा बाईं करवट सोना ही योग्य है ।