सारांश
सृष्टि की रचना मूल त्रिगुणों से हुई है, सत्त्व, रज एवं तम । आधुनिक विज्ञान इससे अनभिज्ञ है । ये तीनों घटक सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान होते हैं । किसी भी वस्तु से प्रक्षेपित स्पंदन उसके सूक्ष्म मूल सत्त्व, रज एवं तम घटकों के अनुपात पर निर्भर होते हैं । इससे प्रत्येक वस्तु का व्यवहार भी प्रभावित होता है । मनुष्य में इनका अनुपात केवल साधना से ही परिवर्तित किया जा सकता है ।
१. प्रस्तावना एवं परिभाषा
इस लेख का मूल उद्देश्य है, अपने पाठकों को सूक्ष्म त्रिगुणों की इस परिकल्पना (concept) संबंधी संपूर्ण ज्ञान प्रदान करना । हमारे पाठकों के लिए यह महत्त्वपूर्ण लेख है, क्योंकि यह इस जालस्थल के अन्य कई लेखों का मूल आधार है ।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार, सृष्टि स्थूल कणों से बनी है – इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, मेसन्स, ग्लुओन्स एवं क्वार्क्स परंतु आध्यात्मिक स्तर पर, सृष्टि उनसे भी अधिक मूल तत्त्वों से बनी है । इन मूल तत्त्वों को सूक्ष्म तत्त्व अर्थात त्रिगुण कहते हैं – सत्त्व, रज और तम । त्रिगुण शब्द में, त्रि अर्थात तीन, तथा गुण अर्थात सूक्ष्म घटक ।
प्रत्येक घटक के मूल गुणधर्म के विषय में निम्नलिखित सारणी में संक्षेप में जानकारी दी गई है ।
त्रिगुण | विशेषता | विशेषण | उदाहरण |
---|---|---|---|
पवित्रता तथा ज्ञान | सात्विक | सात्विक मनुष्य – किसी फल अथवा मान – सम्मान की अपेक्षा अथवा स्वार्थ के बिना समाज की सेवा करना | |
क्रिया तथा इच्छाएं | राजसिक | राजसिक मनुष्य – स्वयं के लाभ तथा कार्यसिद्धि हेतु जीना | |
अज्ञानता तथा निष्क्रियता | तामसिक | तामसिक मनुष्य – दूसरों को अथवा समाज को हानि पहुंचाकर स्वयं का स्वार्थ सिद्ध करना |
हम इन तत्त्वों को सूक्ष्म इसलिए कहते हैं क्योंकि ये अदृश्य हैं, स्थूल नहीं है तथा किसी आधुनिक सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं दिखाई देते । भविष्य में तकनीकी रूप से प्रगत यंत्र भी इन तत्त्वों को मापन नहीं कर पाएंगे । त्रिगुण केवल सूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय अथवा छठवीं ज्ञानेंद्रिय (सूक्ष्म संवेदी क्षमता) द्वारा ही अनुभव किए जा सकते हैं ।
- सत्त्व गुण त्रिगुणों में, सबसे सूक्ष्म तथा अमूर्त (intangible) है । सत्त्व गुण दैवी तत्त्व के सबसे निकट है । इसलिए सत्त्व प्रधान व्यक्ति के लक्षण हैं – प्रसन्नता, संतुष्टि, धैर्य, क्षमा करने की क्षमता, अध्यात्म के प्रति झुकाव इत्यादि ।
- त्रिगुणों में सबसे कनिष्ठ तम गुण है । तम प्रधान व्यक्ति, आलसी, लोभी, सांसारिक इच्छाओं से आसक्त रहता है ।
- रजो गुण सत्त्व तथा तम को उर्जा प्रदान करता है तथा कर्म करवाता है । व्यक्ति यदि सात्त्विक हो, तो सत्त्व प्रधान कर्म को उर्जा प्रदान करता है तथा यदि तामसिक हो तो तम प्रधान कर्म को उर्जा प्रदान करता है ।
क्योंकि सत्त्व, रज तथा तम अमूर्त रूप में हैं, विद्यालय तथा विश्वविद्यालयों में सामान्यरूप में सिखाया जानेवाला आधुनिक विज्ञान इसके अस्तित्व से अनभिज्ञ है । इसलिए वे इस विषय को अपने पाठ्यक्रम में अंतर्भूत नहीं करते । इसीलिए, त्रिगुणों का यह सिद्धांत हममें से कुछ लोगों को विचित्र लग सकता है । परंतु इससे सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि ये पूरी सृष्टि तथा हमारे अस्तित्व में समाए हुए हैं । त्रिगुणों में कौन सा गुण प्रबल है, इसके प्रभाव से हम :
- स्थितियों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं
- निर्णय लेते हैं
- विकल्प चुनते हैं
- अपना जीवन जीते हैं
इनका मूल रूप स्थूल नहीं है, इसलिए इनको एक स्थूल विशेषता द्वारा समझाना कठिन है । इस लेख द्वारा हमने त्रिगुणों को समझाने का प्रयास किया है कि त्रिगुण क्या है तथा उनका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव है ।
२. सबसे छोटे स्थूल कण तथा त्रिगुणों की तुलना
निम्नलिखित सारणी में आधुनिक विज्ञान को ज्ञात सबसे छोटा स्थूल कण तथा अध्यात्मशास्त्र द्वारा ज्ञात सबसे सूक्ष्म तत्वों में अंतर बताया गया है ।
मापदंड |
सबसे छोटा स्थूल कण |
मूलभूत सूक्ष्म कण |
---|---|---|
स्वरूप | स्थूल | सूक्ष्म तथा अमूर्त |
कैसे मापें ? | प्रयोगशाला में शक्तिशाली इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप जैसे यंत्रों द्वारा | सूक्ष्म इंद्रियों के माध्यम से छठवीं इंद्रिय द्वारा |
समावेश | (संपूर्ण) स्थूल सृष्टि | संपूर्ण सृष्टि भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक जगत । सबसे छोटे स्थूल कण भी सत्त्व, रज तथा तम से बने हैं । हमारे विचार, जो अदृश्य हैं, वे भी त्रिगुणों से बने हैं । |
इनकी विशेषताएं | प्रभाव सृष्टि की स्थूल विशेषताओंतक सीमित, जैसे किसी पदार्थ का ठोस अथवा द्रव होना | संपूर्ण सृष्टि की सारी गतिविधियों, हमारे निर्णय, हमारे विकल्पों इत्यादि पर प्रभाव । सत्त्व रज तथा तम स्थूल विशेषताओं पर भी प्रभाव डालता है । उदा. तमो गुण भौतिककरण अथवा घनीकरण करवाता है । |
३. त्रिगुण कैसे दिखते हैं ?
छठवीं ज्ञानेंद्रिय (सूक्ष्म संवेदी क्षमता) द्वारा प्राप्त निम्नलिखित आकृति से देख सकते हैं कि त्रिगुण जब कार्यरत होते हैं तो कैसे दिखाई देते हैं ।
त्रिगुण अदृश्य कण हैं, परंतु सक्रिय होने पर अर्थात उर्जा के साथ तरंगों के रूप में दिखाई देते हैं ।
आकृति का विवरण
- रंग : जब प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय से देखा जाए तो सत्त्वगुण का रंग पीला, रजोगुण का रंग लाल और तमोगुण का रंग काला दिखाई देता है ।
- तरंगदैर्घ्य (wavelength) : सबसे अधिक कार्यरत-रजोगुण तरंगदैर्घ्य में दिखाई देता है तथा सत्त्वगुण का स्वरूप शांत होने के कारण रजोगुण की तुलना में सत्व गुण का तरंगदैर्घ्य लंबा है । तमो गुण का स्वरूप अव्यवस्थित तथा विकृत है और यह उसके अनियमित तरंगदैर्घ्य में स्पष्ट दिखता है ।
- विस्तीर्णता (amplitude) : रजोगुण सर्वाधिक मात्रा में कार्यरत होने के कारण सबसे अधिक विस्तार में पाया जाता है । सत्त्वगुण की विस्तीर्णता अल्प मात्रा में है, और तमो गुण की उससे भी अल्प तथा अनियमित है ।
- लंबाई : उनकी लंबाई कार्य की आवश्यकतानुसार रहती है ।
४. त्रिगुण और पंचमहाभूत
पंचमहाभूत भी त्रिगुणों से बने हैं । पंचमहाभूत – पृथ्वीतत्त्व, आपतत्त्व, तेजतत्त्व, वायुतत्त्व तथा आकाशतत्त्व है । पंचमहाभूत अदृश्य हैं तथा स्थूल रूप में हमें दृश्यमान होनेवाले घटकों से भी सूक्ष्म हैं । उदाहरण, जल का निर्माण सूक्ष्म आपतत्त्व से हुआ है, जिससे नदी तथा समुद्र बनते हैं । संक्षिप्त में पंचमहाभूत ब्रह्मांड के निर्माण में आधारभूत घटक हैं । परंतु वे भी त्रिगुणों से बने हैं ।
निम्नलिखित सारणी में देखेंगे त्रिगुणों के अनुपात के संदर्भ में प्रत्येक पंचमहाभूत की रचना किस प्रकार भिन्न है ।
त्रिगुण तथा पंचमहाभूत
सत्व | रज | तम | |
---|---|---|---|
पृथ्वी | १० प्रतिशत | ४० प्रतिशत | ५० प्रतिशत |
जल | २० प्रतिशत | ४० प्रतिशत | ४० प्रतिशत |
तेज | ३० प्रतिशत | ४० प्रतिशत | ३० प्रतिशत |
वायु | ४० प्रतिशत | ४० प्रतिशत | २० प्रतिशत |
आकाश | ५० प्रतिशत | ४० प्रतिशत | १० प्रतिशत |
जैसे हमने उपरोक्त सारणी में देखा, पृथ्वीतत्त्व में तमो गुण सर्वाधिक होता है, इसीलिए इसमें जडता भी है । सूक्ष्म तमोगुण अस्तित्व को सीमित करता है, जबकि सत्त्व गुण अस्तित्व को व्यापक बनाता है । इसी से स्पष्ट होगा कि पंचमहाभूतों में पृथ्वी तत्त्व निम्न स्तर का,तो आकाशतत्त्व सूक्ष्मतम और सात्विक तथा सबसे शक्तिशाली माना जाता है । पंचमहाभूतों में अल्प मात्रा में तमोगुण उनकी मूर्तता न्यून करता है । उदाहरणार्थ, तेजतत्त्व पृथ्वीतत्त्व की तुलना में अधिक सूक्ष्म है ।
मनुष्य अधिकांश पृथ्वीतत्त्व तथा आपतत्त्व से बना है । जब किसी व्यक्ति की अध्यात्मिक उन्नति होती है, वह उच्चतर स्तर पर कार्य करने लगता है, जैसे तेजतत्त्व । इस स्तर के आध्यात्मिक उन्नत व्यक्ति से विशिष्ट रूप का तेज प्रक्षेपित होता प्रतीत होता है । जब ऐसा होता है, उस जीव की मूलभूत इच्छाएं भी अल्प होती जाती हैं, जैसे अन्न तथा नींद । इसके अतिरिक्त, बोधगम्यता तथा कार्य करने की क्षमता संख्यात्मक तथा गुणात्मक रूप से प्रचंड मात्रा में बढ जाती है ।
५. तीन मूलभूत सूक्ष्म घटक (त्रिगुण) और जगत
५.१ प्राकृतिक आपदाएं
यदि पृथ्वी पर रज-तम बढता है, तो इसका रूपांतर युद्ध, आतंकी गतिविधियों तथा प्राकृतिक आपदाओं आदि की वृद्धि में होता है । रज-तम की मात्रा बढने पर, पंचतत्त्व असंतुलित हो जाते हैं, जिसका रूपांतर महाविपत्ति में तथा प्राकृतिक आपदाओं में होता है । कृपया निम्नलिखित लेख पढें – प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढने के कारण ।
५.२ निर्जीव वस्तुएं
निम्नलिखित सारणी से निर्जीव वस्तु तथा त्रिगुणों का संबंध स्पष्ट होगा
विविध निर्जीव वस्तुओं में त्रिगुणों का अनुपात
सत्व | रज | तम | |
---|---|---|---|
मंदिर,पवित्र स्थल,तीर्थ स्थल | ५ प्रतिशत | १ प्रतिशत | ९४ प्रतिशत |
नित्य तथा सामान्य स्थल | २ प्रतिशत | २ प्रतिशत | ९६ प्रतिशत |
बुरे स्थल | १ प्रतिशत | १ प्रतिशत | ९८ प्रतिशत |
५.३ सजीव सृष्टि
निम्नलिखित सारणी में प्राणीमात्र तथा त्रिगुणों का संबंध दिखाया गया है । सत्त्व सूक्ष्मगुण की दृष्टि से जीवन का मूल्य, सभी वस्तुओं से अधिक है । धार्मिक स्थलों की तुलना में भी यह अधिक मूल्यवान है ।
विभिन्न जीवित वस्तुओं में त्रिगुणों का अनुपात
सत्व | रज | तम | |
---|---|---|---|
संत | ५० प्रतिशत | ३० प्रतिशत | २० प्रतिशत |
सामान्य व्यक्ति | २० प्रतिशत | ३० प्रतिशत | ५० प्रतिशत |
दुष्ट व्यक्ति | १० प्रतिशत | ५० प्रतिशत | ४० प्रतिशत |
बौद्धिक विकलांग व्यक्ति | १० प्रतिशत | ३० प्रतिशत | ६० प्रतिशत |
पशु तथा पक्षी | १०-२० प्रतिशत | २५-४० प्रतिशत | ४०-६५ प्रतिशत |
वनस्पति | ५-१० प्रतिशत | १०-१५ प्रतिशत | ६५-८५ प्रतिशत |
पादटिप्पणी :
१ व्यक्ति में, शारीरिक और मानसिक देहों की तुलना में बुद्धि में व्याप्त सत्त्व का अनुपात अधिक होता है (खंड 6.1 में तालिका देखें) । जब बुद्धि असंतुलित हो जाती है, जैसा कि बौद्धिक रूप से अक्षम व्यक्ति के विषय में होता है, तो व्यक्ति में समग्र सत्व गुण घट हो जाता है, और इसीलिए हमने सत्व गुण को 10% दर्शाया है, जो एक औसत व्यक्ति के 20 % सत्व गुण से कम है । अधिकांश प्रकरणों में, असंतुलित बुद्धि व्यक्ति के प्रतिकूल प्रारब्ध के साथ जन्म लेने के कारण होती है ।
२. दूसरी ओर, एक दुष्ट व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग केवल बुरे कार्यों के लिए करता है, और परिणामतः उसकी बुद्धि में व्याप्त सत्त्वगुण घट जाता है, जिससे उसका समग्र सत्त्वगुण घट जाता है । अतः, बौद्धिक रूप से अक्षम व्यक्ति में और दुष्ट व्यक्ति में व्याप्त सत्त्वगुण की न्यूनता का कारण भिन्न होता है ।
३ कुछ प्रकरणों में जहां पशु बहुत सात्विक होता है जैसे कि भारतीय गाय , तो सत्त्वगुण का अनुपात 20% से भी अधिक हो सकता है ।
यह एक मुख्य कारण है कि किसी भी वास्तु से उत्पन्न होनेवाले स्पंदनों की तुलना में उस वास्तु में रहनेवाले व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर वहां के स्पंदनों को अधिक प्रभावित करता है । उदा. यदि कोई संत किसी ऐसे वास्तु में प्रवेश करते हैं जहां के स्पंदन नकारात्मक हैं तो उसका संत पर अत्यल्प प्रभाव पडेगा । इसीलिए फैंग-शुई तथा वास्तुशास्त्र का उपयोग उन व्यक्तियों के लिए है जिनका आध्यात्मिक स्तर न्यून हो अथवा जो कोई साधना नहीं करते ।
६. त्रिगुण तथा मनुष्य
निम्नलिखित बिंदुओं में हम विस्तार में देखेंगे, त्रिगुणों का हमारे जीवन के विविध पहलुओं पर प्रभाव
६.१ हमारी रचना कैसे हुई है, इस संबंध में
त्रिगुणों की प्रतिशत मात्रा |
|||
---|---|---|---|
देह |
सत्व |
रज |
तम |
स्थूलदेह |
२० प्रतिशत |
४० प्रतिशत |
४० प्रतिशत |
मनोदेह |
३० प्रतिशत |
४० प्रतिशत |
३० प्रतिशत |
कारण देह अथवा बुद्धि |
४० प्रतिशत |
४० प्रतिशत |
२० प्रतिशत |
महाकारण देह अथवा अहं |
५० प्रतिशत |
४० प्रतिशत |
१० प्रतिशत |
रजोगुण शरीर की क्रियाओं से संबंधित है, अत: इसका अनुपात सारे देहों में समान है । परंतु जैसे कि हमने ऊपर देखा, विभिन्न देहों में सत्त्व तथा तम गुणों के अनुपात में बहुत अंतर है । इसका सीधा प्रभाव सुख को बनाए रखने की शरीर की क्षमता पर पडता है । उदा. यदि सत्त्व गुण स्थूल देह की तुलना में कारण देह अथवा बुद्धि में अधिक है, तो ऐसे में बौद्धिक स्तर पर मिलने वाला गुणात्मक सुख, स्थूल देह से मिलनेवाले सुख की तुलना में उच्च श्रेणी का तथा अधिक समयतक बना रहनेवाला होता है ।
६.२ आध्यात्मिक स्तर की तुलना में
आध्यात्मिक स्तर तथा त्रिगुणों के अनुपात का अंत: संबंध है । साथ ही उनका संबंध अंडा पहले अथवा मुर्गी पहले, इस उदाहरण के समान भी है । हम यह कह सकते हैं कि किसी का आध्यात्मिक स्तर सत्त्व, रज तथा तम के किसी एक गुण की प्रबलता से निर्धारित होता है । परंतु हम ऐसा भी कह सकते हैं कि किसी एक गुण की (सत्त्व,रज एवं तम) प्रबलता से किसी का आध्यात्मिक स्तर निर्धारित किया जा सकता है । हम जैसे जैसे साधना करते हैं तो त्रिगुणों का अनुपात बदलने लगता है । साधना करने से सत्त्वगुण की मात्रा बढने लगती है । अर्थात हम तमोगुण का रूपांतर सत्त्वगुण में करते हैं ।
अन्य दोनों गुण, रज एवं तमोगुण की तुलना में जैसे जैसे हम सत्त्व गुण स्वयं में बढाते हैं, यह हमारे आध्यात्मिक स्तर तथा व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव डालता है ।
निम्नलिखित सारणी में साधना करने पर आध्यात्मिक उन्नति से त्रिगुणों का अनुपात किस मात्रा में बदलता है, यह स्पष्ट होता है ।
पादटिप्पणी :
१. ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के पश्चात, त्रिगुणों का अनुपात स्थिर रहता है । इसका कारण यह है कि किसी का तमोगुण का अनुपात २० प्रतिशत से अल्प नहीं हो सकता । यदि ऐसा होने लगा तो व्यक्ति अदृश्य होने लगेगा (भौतिक रूप खोने लगेगा) । अर्थात जबतक किसी का स्थूल शरीर है तबतक तमोगुण २० प्रतिशत से अल्प नहीं हो सकता । परंतु जब आध्यात्मिक स्तर में वृद्धि होती है तब त्रिगुणों का प्रभाव अल्प हो जाता है, आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत होने पर त्रिगुणों का प्रभाव नगण्य रह जाता है । इसके आगे के उप-भाग में हम त्रिगुणों का प्रभाव अल्प होने के विषय में विस्तार से समझ लेंगे ।
२. १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करने के पश्चात भी जब तक संत स्थूल देह में रहते है, तबतक वे त्रिगुणों की रचना में बंधे रहते हैं । परंतु जैसे ही वे देहत्याग करते हैं, त्रिगुणों का अनुपात शून्य हो जाता है तथा वह संत ईश्वर से एकरूप हो जाते हैं ।
६.३ आध्यात्मिक स्तर बढने पर,त्रिगुणों का प्रभाव न्यून होना
जब आध्यात्मिक प्रगति होती है, आंतरिक रूप से पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि का अंधकार दूर होता है तथा हमारे भीतर की आत्मा (ईश्वर) का चैतन्य बढने लगता है । नीचे दिए गए चित्र में देखें । इसको पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि का लय होना भी कहते हैं । हम पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि को अंधकार अथवा अविद्या कहते हैं क्योंकि वे हमारे वास्तविक स्वरूप हमारे भीतर के परमात्मा अथवा आत्मा, को पहचानने नहीं देते ।
जीवात्मा, जो हमारे भीतर का ईश्वर है, त्रिगुणातीत है अर्थात त्रिगुणों के परे है, तथा उसकी रचना त्रिगुणों से नहीं हुई है । इसीलिए साधना से हमारी आत्मा जितनी प्रकाशमान होगी, उतना ही त्रिगुणों का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व, कर्म तथा निर्णयों पर अल्प मात्रा में होगा । आध्यात्मिक प्रगति के अंतिम चरण में जब आत्मज्योत पूर्ण रूप से हमें प्रकाशित करती है तब हम अपना जीवन पूर्णत: ईश्वरेच्छा से व्यतीत करते हैं, तथा त्रिगुणातीत होने पर, उनका हमारे व्यक्तित्व पर नगण्य प्रभाव होता है ।
६.४ हमारे व्यक्तित्व से संबंधित
निम्न सारणी में, हमने कुछ बिंदु दिए हैं, जिससे हम किसी के व्यक्तित्व को उसके प्रबल गुण के आधार पर पहचान पाएंगे ।
ये केवल मूलभूत समझ निर्माण करने के लिए दिशा निर्देश हैं । व्यक्ति में कौन सा गुण प्रबल है, इसका वास्तविक निरीक्षण केवल छठवीं ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय संवेदी क्षमता)के माध्यम से ही हो सकता है ।
सात्विक व्यक्ति |
राजसिक व्यक्ति |
तामसिक व्यक्ति |
|
---|---|---|---|
स्वभावदोष |
अपनी भावनाओं, विचारों और कृत्यों पर पूर्ण नियंत्रण |
क्रोध, ईर्ष्या, गर्व, अहंकारी, ध्यान आकर्षित करना, धौंस जमाने वाला, लालची, अपनी आंकांक्षाएं और सांसारिक इच्छाएं पूरी करने के लिए किसी भी स्तरतक जाना, चिंतातुर, दिन में सपने देखनेवाला |
आलसी, निष्क्रिय, निराश, अति स्वार्थी, दूसरों का विचार न करना, स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुंचाना, चिडचिडा |
गुण (विशेषता) | सभी गुण, सत्यवादी तथा सिद्धांतवादी, सहनशील, शांत, स्थिर बुद्धि, अहंकार रहित
अंतत: गुण और दोषों के परे जाते हैं, मृत्यु का भय नहीं |
परिश्रमी, परंतु आध्यात्मिक प्रगति के लिए दिशाहीन प्रयास | नहीं |
सुख प्राप्ति का माध्यम | ज्ञान और कौशल अर्जित करना, निर्मल, शांत, अहंकार रहित, दूसरों की सहायता करना, ध्यान लगाना, आध्यात्मिक प्रगति करना
अंतत: सुख-दु:ख से परे होकर आनंद प्राप्त करना |
अधिकार प्राप्त करना, सांसारिक वस्तुओं का संग्रह करना | खाना-पीना, संभोग इत्यादि |
अन्यों के संबंध में |
समाज सेवा तथा आध्यात्मिक प्रगति करने हेतु लोगों की सहायता करना । यहां सर्वव्यापी दृष्टि से आध्यात्मिक प्रगति करने का अर्थ है छ: मूलभूत तत्वों के अनुसार साधना करना |
स्व केंद्रित अथवा दूसरों की सहायता करने पर उसका तीव्र अहं |
अन्यों को हानि पहुंचाना । अत्याधिक तामसिक – धर्म अथवा किसी विचारधारा के नाम पर समाज को हानि पहुंचाना |
निद्रा |
४-६ घंटे |
७-९ घंटे |
१२-१५ घंटे |
आध्यात्मिक बल |
अधिक |
अल्प |
अति अल्प 1 |
पादटिप्पणी :
१. इसमें अपवाद यह है कि मांत्रिक जिसमें अनिष्ट हेतु से साधना करने के कारण अत्याधिक आध्यात्मिक बल हो सकता है, परंतु वह मूल रूप से तामसिक ही होता है ।
उपर्युक्त लक्षण पारस्परिक अपवर्जक नहीं हैं । उदा. किसी सात्त्विक व्यक्ति को ९ घंट की नींद आवश्यक होगी, तथा किसी तामसिक व्यक्ति में सहनशीलता का गुण हो सकता है । परंतु मनुष्य का व्यक्तित्व कुल मिलाकर उसके गुण एवं दोषों से बनता है । इसीलिए अपने अथवा किसी और के व्यक्तित्व के एक-दो विशेष लक्षणों की ओर ध्यान देकर निर्णय नहीं करना चाहिए, अपितु सर्व स्थितियों को ध्यान में रखकर निर्णय करना चाहिए ।
किसी का पूर्ण रूप से केवल सात्त्विक,राजसिक एवं तामसिक होना बहुत दुर्लभ है । सामान्यत: व्यक्ति सत्त्व-रज, रज-सत्त्व अथवा रज-तम प्रधान होता है । सत्त्व-रज प्रधान व्यक्ति में सत्त्व तथा रजोगुण के लक्षण समान होंगे, परंतु सत्त्वगुण प्रबल होगा । रज-सत्त्व प्रधान व्यक्ति में इसके विपरीत, अर्थात रजोगुण तथा सत्त्वगुण के लक्षण समान होंगे, परंतु रजोगुण प्रबल होगा ।
व्यक्ति में जो सूक्ष्म गुण प्रबल है, वैसा उसका व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है । अपने व्यक्तित्व को जितना चाहे हम अच्छे वस्त्र, आभूषण एवं ऊपरी बातों के पीछे छिपाएं, हमारे प्रबल सूक्ष्म गुण के अनुसार हमारे मूल स्पंदन प्रक्षेपित होते रहते हैं । हमारा मूल स्वरूप छिपता नहीं है । जिनकी प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय है, वे इन बाह्य छलावरण के पार देख पाते हैं तथा अदृश्य और सूक्ष्म स्पंदनों को अनुभव कर सकते हैं । इसीलिए वे किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव -सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक तथा विशेषताओं के बारे में सरलता से बता सकते हैं ।
किसी भी व्यक्ति के प्रबल गुण हम तब जानते हैं, जब वह व्यक्ति अकेले अथवा एकांत में होता है । व्यक्ति अपना सत्य स्वरूप तब दर्शाता है, जब वह किसी के निरीक्षण में नहीं हो । आगे के उदाहरण से यह सूत्र स्पष्ट होगा ।
चौथी कक्षा में पढनेवाले विद्यार्थियों का उदाहरण लेते हैं । वे कोलाहल करनेवाले तथा उद्दंड हैं, उनकी अध्यापिका उनमें अनुशासन लाने का अत्याधिक प्रयत्न करती है । यदि अध्यापिका कठोर वाणी में बोलती है, तो कक्षा में शांति बनाए रखने की संभावना है । अतः केवल उनकी उपस्थिति में ही विद्यार्थी शांत रहते हैं । जैसे ही अध्यापिका कक्षा से निकलती है तो बच्चे अपनी शरारत आरंभ कर देते हैं । इसका कारण यह है कि इन बच्चों की मूल प्रकृति राजसिक तथा तामसिक है ।
इसके विपरीत यदि उसी कक्षा में एक सात्त्विक बालक हो तथा सहपाठी उससे अनुरोध करें कि वह भी उनके साथ उनकी उद्दंडता, घिनौने हास्यविनोद एवं छल में साथ दे, तो वह बालक उनका साथ कभी नहीं देगा, क्योंकि उसकी मूल प्रकृति ही सात्त्विक है । ऐसे दुष्कर्मों में सुख अनुभव करने स्थान पर ऐसे कर्मों से वह दूर ही रहेगा तथा भयभीत हो जाएगा । यदि उसने ऐसे कर्म किए तो वह अपने आपको क्षमा नहीं कर पाएगा अथवा स्वयं का सामना नहीं कर पाएगा ।
इसीलिए बच्चों को नैतिक मूल्यों पर व्याख्यान देकर उनमें ऊपरी बदलाव लाने के स्थान पर, स्थायी रूप से उनमें परिवर्तन केवल तब होगा जब वे साधना करेंगे तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल वातावरण में उनका संगोपन हो, जिससे उनमें सत्त्व गुण की वृद्धि हो ।
७. त्रिगुण तथा हमारी जीवनशैली
त्रिगुणों में से जो प्रबल गुण हो उसके आधार पर हमारे आस-पास की प्रत्येक वस्तु का वर्गीकरण सात्त्विक,राजसिक अथवा तामसिक इस प्रकार होता है । किसी भी वस्तु में प्रबल गुण केवल छठवीं ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय संवेदी क्षमता) द्वारा ही जाना जा सकता है ।
अपनी जीवन पद्धति की रुचि के अनुसार किसी एक विशेष गुण से संबंध होने पर वह सूक्ष्म-गुण हमारे में अधिक बढता है ।
हमने हमारे जीवन के कुछ विविध पहलू पर कुछ सामान्य उदाहरण तथा उनके प्रधान गुण दिए हैं । हम सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक हैं, उस आधार पर हम सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक जीवनशैली की ओर आकर्षित होंगे । अपनी रूचि की जीवन शैली के द्वारा किसी एक विशेष गुण से स्वयं को जोडने पर वह विशेष गुण हमारे में बढता है ।
त्रिगुण तथा हमारी जीवनशैली
सात्विक | राजसिक | तामसिक | |
---|---|---|---|
भोजन |
गेहूं, खीरा, पालक, चीनी, दूध, मक्खन, घी, दालचीनी, बादाम, अखरोट, काजू | अत्यधिक खारा, कडवा, खट्टा, तीखा और उष्ण पदार्थ (उदा.उबलती चाय अथवा कॉफी) प्याज, लहसुन | सूखी सब्जियां, ठंडे अथवा फ्रोजन खाद्यपदार्थ, दो बार गर्म किए हुए, बासी, गंदगीसे भरे खाद्यपदार्थ, अधपका (जैसे कच्चा मांस) बिना पका खाद्यपदार्थ, पचाने में कठिन, मांसाहार, वाईन तथा मद्य |
रंग |
श्वेत, पीला, नीला | लाल, गहरा लाल, हरा, जामुनी | काला तथा काले रंग की अधिकता हो |
वस्त्र (धागा) |
प्राकृतिक धागे से निर्मित वस्त्र, जैसे सूत, रेशम, गोचर्म | प्राणियों का चर्म | मानव निर्मित कपडे जैसे लाइक्रा, नॉयलन इत्यादि फटे कपडे, बिना इस्त्री के वस्त्र |
संगीत |
संतों द्वारा रचित भजन, संतों द्वारा रचित संगीत | लोक संगीत, पॉप संगीत, अधिकांश फिल्मी गीत | वैसा संगीत जो हिंसा और मादक पदार्थों के सेवन को बढावा दे |
चलचित्र |
विश्व को आध्यात्मिक अथवा व्यावहारिक स्तर पर अधिक अनुकूल बनाने के लिए समाज का ज्ञानवर्धन करना | लडाई-झगडेवाले तथा रोमांचक चलचित्र | अश्लील, हिंसात्मक, भयप्रद चलचित्र |
पुस्तकें |
पुस्तकें जो सर्वव्यापी रूप से आध्यात्मिक ज्ञानवर्धन करे | पुस्तकें जो सांसारिक भावनाएं तथा आसक्ति बढाएं | पुस्तकें जो आध्यात्मिक अनास्था को भडकाए, समाज की हानि करें |
संगति तथा मनोरंजन |
साधक जो साधना के पांच मूलभूत तत्वों के अनुसार साधना करते हों | सामाजिक संबंध जहां पर बातचीत का मुख्य विषय सांसारिक गतिविधियां, व्यवसाय आदि हों । समय बिताने हेतु खरीदारी करना | व्यसनी (ड्रग एडिक्ट) लोगों की संगति, रेव पार्टियां, समारोह जो किसी भी प्रकार के व्यसन को तथा समाज को हानि पहुंचानेवाली बैठक को बढावा दे |
विवाह |
पति-पत्नी के संबंध में आध्यात्मिक प्रगति करना मुख्य उद्देश्य, निरपेक्ष प्रीति | सांसारिक संपत्ति जुटाना, अपेक्षा से भरा व्यावहारिक प्रेम | अनबन, अविश्वास, हिंसा तथा झगडे |
८. त्रिगुण एवं अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इत्यादि)
अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इत्यादि ) मूलत: रज-तम प्रधान होती हैं । जो अनिष्ट शक्ति निचली श्रेणी की है, अर्थात ५० प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक बल, जैसे सामान्य भूत, वे रज-तम प्रधान होते हैं । उच्च स्तर के भूत अर्थात जिनका अध्यात्मिक बल ५० प्रतिशत से अधिक है जैसे मांत्रिक, वे छठें और सातवें पाताल के होते हैं तथा तम-रज प्रधान होते हैं ।
क्योंकि अनिष्ट शक्तियां रज-तम प्रधान होती हैं, वे पृथ्वी पर विद्यमान रज-तमवाले वातावरण में जाती हैं, क्योंकि वहां रज-तम प्रधान व्यक्ति मिलने की संभावना अधिक होती है । ऐसे सम-विचारी लोग, मांत्रिकों के निशाने पर सदैव रहते हैं तथा पृथ्वी पर उनकी योजनाओं को कार्यरत करने तथा उनकी ध्येय पूर्ति के लिए आर्दश लक्ष्य होते हैं । दूसरे शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति तम प्रधान है तथा जिसको दूसरों को कष्ट पहुंचाना अच्छा लगता है, ऐसे व्यक्ति की किसी अनिष्ट शक्ति के नियंत्रण में आने की आशंका अधिक होती है, जिससे समाज को हानि हो ।
सिद्धांतानुसार यदि हमें अपने आपको अनिष्ट शक्तियों से बचाना है तो हमें अपनी सात्त्विकता बढानी होगी । अनिष्ट शक्तियां मूल रूप से तामसिक होती हैं और वे सात्त्विक लोग तथा सात्त्विक वातावरण को सहन नहीं कर पातीं । इसीलिए वे कभी भी किसी उच्च स्तर के संत तथा गुरु को अपने वश में नहीं कर पातीं ।
यह लेख पढें – उच्च सात्त्विकता के प्रभाव में आने से अनिष्ट शक्ति से पीडित व्यक्ति का प्रकटीकरण क्यों होता है ?
९. सारांश में
इस लेख से सीखें कुछ मुख्य सूत्र :
- हम सब सत्त्व, रज तथा तम स्पंदन प्रक्षेपित करते हैं, हमारे प्रधान गुण पर यह निर्भर है । जितनी अधिक सात्त्विकता, उतना ही अच्छा हमारा व्यक्तित्व बनता है, हम उतना ही स्थायी रूप से यश प्राप्त करते हैं, तथा उतने ही अपने व्यवसाय, संबंधों एवं जीवन के प्रति संतुष्ट रहते हैं ।
- सत्त्वगुण साधना करने से तथा जहांतक संभव हो स्वयं को रज-तम के प्रभावों से दूर रखने से बढता है ।
- हम जैसी संगत में रहते हैं, उसका हमारी साधना पर गहरा प्रभाव पडता है ।
- अनिष्ट शक्तियां तम प्रधान वातावरण तथा तम प्रधान लोगों का लाभ उठाकर विश्व में अधर्म को फैलाने और समाज को कष्ट पहुंचाने का कार्य करती हैं ।