१. प्रस्तावना
एलबर्ट आइंस्टार्इन (मार्च १४, १८७९ – अप्रैल १८, १९५५) को अभी तक का महानतम भौतिकशास्त्री माना जाता है । प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द टाइम मैगजीन‘ ने उनका चयन ‘२०वें शतक के व्यक्ति’ के रूप में किया है । एक वैज्ञानिक के रूप में भौतिक जीवन पर उनकी अति विशिष्ट उपलब्धियों को देखते हुए हमने उनके जीवन पर आध्यात्मिक शोध कर यह समझने का प्रयत्न किया कि उनकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि कैसी थी तथा अपने जीवन काल में उन्होंने कितनी आध्यात्मिक उन्नति की । हमें लगा कि यह जानकारी सभी वैज्ञानिकों के लिए महत्वपूर्ण होगी ।
२. एलबर्ट आइंस्टार्इन के पूर्वजन्म पर आध्यात्मिक शोध
आध्यात्मिक शोध से हमें पता चला कि पृथ्वी पर जन्म लेने के पूर्व एलबर्ट आइंस्टार्इन का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत था । इस कारण पूर्व जन्म में किए अपने पुण्यों के फलस्वरूप वे कुछ महीने स्वर्ग में रहे । स्वर्ग ब्रह्मांड के सकारात्मक सूक्ष्म-लोकों का प्रारंभिक लोक है । स्वर्ग के अपने जीवन काल में उन्होंने वहां के कुछ लोगों के दैवी कार्य कलापों पर कटाक्ष किया । जिसके दंडस्वरूप उनका स्वर्ग का जीवनकाल घटा दिया गया और उन्हें पृथ्वी पर पुनर्जन्म लेना पडा । यद्यपि पृथ्वी पर भी उन्हें अनन्य प्रसिद्धि प्राप्त हुर्इ, किंतु स्वर्ग में की गर्इचूक के कारण उन्हें सर्वश्रेष्ठ आनंद एवं दुख रहित स्वर्ग छाेडना पडा । स्वर्ग में रहने की तुलना में पृथ्वी पर सुख-दु:ख से भरे चक्र में फंसा जीवन स्वयं एक दंड था ।
३. एलबर्ट आइंस्टार्इन को पृथ्वी के ज्ञानभंडार में प्रवेश की पात्रता
उनमें विज्ञान के माध्यम से मानव जाति की सहायता करने की तीव्र उत्कंठा थी । इस तीव्र उत्कंठा के कारण एवं अपने उच्च आध्यात्मिक स्तर के फलस्वरूप वे अपने मन के सूक्ष्म आयाम द्वारा वैश्विकज्ञान के पंचम स्तर, से संपर्क कर सकते थे । हमने अपने छठवीं ज्ञानेंद्रिय शीर्षक लेख में इसका विवरण दिया है कि कोर्इ व्यक्ति किस प्रकार अपने सूक्ष्म मन और बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
विश्व मन तथा विश्व बुद्धि ने ब्रह्मांड के संपूर्ण ज्ञान को व्याप्त कर रखा है । इसलिए उससे किसी भी प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो सकता है । विश्व मन तथा विश्व बुद्धि सूक्ष्म तरंगों के रूप में ज्ञान के सातों स्तरों में कार्यरत होते हैं । अत: ज्ञान के सातों स्तर इन सूक्ष्म तरंगों से निर्मित होते हैं । अपने आध्यात्मिक स्तर के आधार पर व्यक्ति, उच्च तथा सूक्ष्मतम तरंगों के माध्यम से यह ज्ञान प्राप्त कर सकता है । ज्ञान का सातवां स्तर उच्चतम एवं सूक्ष्मतम होता है ।
अपनी तीव्र उत्कंठा एवं आध्यात्मिक स्तर के कारण वे ज्ञान के उच्च स्तरों के से आध्यात्मिक विचारग्रहण कर सकते थे । यहां तक कि उनकी सभी महत्त्वपूर्ण खोज जैसे E=MC2 भी ज्ञान के उच्च स्तरों तक पहुंच पाने के कारण हुर्इ । तथापि प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान केवल मानसिक स्तर तक ही सीमित रह गया । इसका कारण यह था कि औसत से अच्छा आध्यात्मिक स्तर होने पर भी एलबर्ट आइंस्टार्इन के पास आध्यात्मिक विचार एवं आकलन का उचित मूलभूत आधार नहीं था ।
वास्तव में समस्या यह थी कि एलबर्ट आइंस्टार्इन आध्यात्मिक ज्ञान को मानवता की आध्यात्मिक उन्नति हेतु उचित दिशा में परिवर्तित करने तथा उसका व्यावहारिक उपयोग समझाने में असमर्थ थे । इसीलिए जो विचार उनके मन में आते वे कार्यान्वयन के स्तर तक नहीं पहुंच पाते अर्थात वे उनके सिद्धांतों में अंगीकृत नहीं हो पाते थे ।
आइंस्टार्इन की ज्ञान के पांचवें स्तर से ज्ञान प्राप्त करने की इस प्रक्रिया में सूक्ष्म स्तरीय मांत्रिक ने हस्तक्षेप करने का प्रयास किया । उन्होंने इस ज्ञान को चुराकर नास्तिक वैज्ञानिकों को प्रदान करने का प्रयास किया । इन विचारों को अपनी काली शक्ति की सहायता से वे एक अलग ही रूप देने कर प्रयास कर रहे थे। आध्यात्मिक विचारों को वैज्ञानिक रूप देने हेतु नास्तिक वैज्ञानिकों को प्रवृत करने की उनकी योजना थी । जिससे अध्यात्म शास्त्र झूठा सिद्ध हो जाए; परंतु वे वैज्ञानिक आइंस्टार्इन समान बुद्धिमान नहीं थे, इसलिए इन विचारों के आधार पर नवीन आविष्कार करना तो दूर , वे उन्हें समझ भी नहीं पाते ।
४. अपने आध्यात्मिक उद्देश्य की अवहेलना
र्इश्वर प्रदत्त उपहार; तीक्ष्ण बुद्धि, स्थिरता एवं दृढता के आधार पर उन्होंने विज्ञान जगत में नर्इ क्रांति लार्इ एवं भावी वैज्ञानिकों की पीढी के लिए सशक्त नींव रची । परंतु आगे इन वे सब में इतने उलझ गए कि जीवन के वास्तविक दो सूत्री उद्देश्य को भुला बैठे, जिनमें से एक था र्इश्वर प्राप्ति ।
हमारे वर्त्तमान शिक्षातंत्र को इस प्रकार बनाया गया है कि हम सांसारिक प्रयास करकर सांसारिक सफलता प्राप्त कर सकें; किंतु यह हमारे जीवन का उद्देश्य नहीं है । जीवन का मूल उद्देश्य प्रारब्धानुरूप लेन-देन को पूर्ण करना तथा आध्यात्मिक उन्नतिकर ईश्वर से एकरूप होना है । हमारे आधुनिक शिक्षातंत्र इस तथ्य को पूर्णतः भुला बैठा है । इसलिए जब तक हमारे आध्यात्मिक दृष्टिकोण न हो जिससे हम अपनी तथा मानव जाति की आध्यात्मिक उन्नति कर सकें, तब तक सांसारिक प्रयासों से केवल हमारे लेन-देन के कर्म में वृद्धि होती रहेगी और हम जन्म – मृत्यु के चक्र में फंसते चले जाएंगे ।
५. केवल संतों में ही अच्छा वैज्ञानिक होने की क्षमता
विज्ञान को पूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है, उसके सभी आयामों अर्थात भौतिक, मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक आयाम को ध्यान में रखा जाए । चूंकि आधुनिक विज्ञान आध्यात्मिक आयाम को नहीं स्वीकार ता, वह निरंतर बदलते परिप्रेक्ष्य में रहता है । इसलिए उसमें निरंतर बदलाव होते रहते हैं। इसीलिए एक ही वस्तु अथवा परिस्थिति के संबंध में विभिन्न सिद्धांत प्रतिपादित किए जाते हैं । उदाहरण के लिए, प्रारंभ में प्रकाश को कण माना गया, तदोपरांत उसे तरंग तथा इसके उपरांत उसे कण तथा तरंग दोनों का मिश्रित स्वरूप कहा गया ।
केवल आध्यात्मशास्त्र ही आध्यात्मिक आयाम पर आधारित है, जो पूर्ण है एवं कभी परिवर्तित नहीं होता । इसीलिए आध्यात्मिक विज्ञान के सिद्धांत सदैव अपरिवर्तित रहते हैं ; परंतु कालानुरूप उनका उपयोग परिवर्तित हो सकता है ।
यद्यपि वैज्ञानिक बुद्धिमान ही होते हैं जो स्थूल सांसारिक घटनाओं के पीछे छिपे वैज्ञानिक कारण का पता लगाते हैं किंतु घटनाओं के वास्तविक अथवा मूल कारण को मात्र आध्यात्म शास्त्र ही समझा सकता है । जब तक मूल कारण पता नहीं चलता, । वैज्ञानक कितना ही बुद्धिमान अथवा प्रसिद्ध हो आध्यात्मिक दृष्टि से उसे कनिष्ठस्तर का ही माना जाता है । केवल संत ही अच्छे वैज्ञानिक हो सकते हैं; क्योंकि उन्हें घटना के वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक कारण पता होते हैं । यहां एक विचित्र विरोधाभास है, यद्यपि संतों मे सफल वैज्ञानिक बनने की सर्वोत्तम क्षमता होती है किंतु सांसारिक शोध करने के स्थान पर उनका पूरा ध्यान ज्ञान प्राप्त कर उसे मानव जाति को र्इश्वर प्राप्ति करवाने की ओर होता है ।
६. आधुनिक वैज्ञानिकों की दुर्दशा
आधुनिक वैज्ञानिक संपूर्णता की नहीं, सापेक्षता की स्थिति में कार्यरत रहते हैं। ,इसलिए वे सदैव असंतुष्ट एवं तनाव में रहते हैं । प्रत्येक नवीन आविष्कार के बाद उनके मुख पर आगे क्या ?’ जैसी एक अपूर्णता की भावना रहती है । प्राय: इस कारण जीवन से उनकी अपेक्षाएं बढती जाती हैं । जीवन के उत्तरार्ध में उन्हें यह आभास होता है कि उनका शरीर उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर रहा, अर्थात वे वृद्ध तथा अशक्त हो चुके हैं, तब उनके आंतरिक गुणों का तीव्र गति से ह्रास हो जाता है । यही सब आइंस्टार्इन के साथ भी हुआ । यद्यपि बाह्य दृष्टि से आइंस्टार्इन आनंदित थे किंतु उनकी आखों में दु:ख झलकता था । इसका कारण यह है कि वैज्ञानिक उत्साह जीवन में पूर्ण संतुष्टि प्रदान नहीं कर सकता । इसीलिए प्रत्येक शोध अपूर्ण सिद्ध होता है एवं अंतत: निराशा का कारण बनता है ।
जबकि दूसरी ओर, संत सदा बिना किसी अपेक्षा के सांसारिक सुखों से अनासक्त होकर कार्य करते हैं । उनका सदा ऐसा भाव होता है कि ‘‘मेरा जीवन सत्सेवा करने हेतु ही है एवं ईश्वर ही मुझसे सब कार्य करवाते हैं ।” उनमें अंह भाव अत्य अल्प होता है, जिसके फलस्वरूप वे आनंद में जीवन व्यतीत करते हैं तथा जन्म-मृत्य के चक्र से मुक्त हो जाते हैं ।
७. अल्बर्ट आइंस्टार्इन के जीवन का आध्यात्मिक फल
किसी व्यक्ति का जन्म तीव्र उत्कंठा जैसे र्इश्वरीय गुण के साथ होने पर भी जब तक वह उसका उपयोग र्इश्वर से एकरूप होने की दिशा में नहीं करता, वह एक साधक का जीवन व्यतीत नहीं कर सकता । आइंस्टार्इन की तीव्र उत्कंठा उसके सूक्ष्म मन को जागृत कर सकी किंतु र्इश्वर प्राप्ति के लिए उसे जो साधना करना अनिवार्य था, वे वह नहीं कर पाए । जिसके कारण उनके सूक्ष्म मन की जागृतावस्था बनी न रह सकी । इस कारण वे दिव्य अर्थात वास्तविक अध्यात्म ज्ञान का लाभ प्राप्त नहीं कर सके । परिणाम स्वरूप अपने जीवनकाल में उन्हें सांसारिक प्रसिद्धि तो अवश्य मिली किंतु आध्यात्मिक स्तर पर अपर्याप्त रहा । इसीलिए आइंस्टार्इन की जब मृत्यु हुर्इ तो वे जिस स्वर्ग लोक से आए थे उससे निम्न स्तर के भुवर्लोक को प्राप्त हुए ।
कृपया लेख ‘मुत्यु के उपरांत हम कहां जाते हैं ?’ देखें ।
यदि बुद्धि की तीक्ष्णता को अध्यात्म के छ: मूल सिद्धांतों के अनुसार साधना कर प्रकाशित न किया जाए तो आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीवन व्यर्थ हो जाता है । चाहे किसी कितनी ही प्रसिद्धि प्राप्त की हो एवं मानव जाति के लिए सांसारिक दृष्टि से कितने ही कार्य किए हों । आइंस्टार्इन इस प्रकार के जीवन का एक उत्तम उदाहरण है । हम अपने जीवन को इस प्रकार से व्यर्थ होने से रोक सकते हैं, यदि हम अपने सांसारिक कार्यों को अध्यात्म के छ: मूल सिद्धांतों के अनुसार साधना के साथ जोडे ।