स्वसूचना क्या है ?

स्वसूचना क्या है ?
पिछले दो लेखों में, हमने स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया क्या है एवं अपने स्वभावदोष कैसे पहचानें, इन विषयों को प्रस्तुत किया था । स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया में अगला चरण है अपने स्वभावदोष दूर करना, तथा इस लेख में हम ऐसी तकनीक को समझेंगे जो हमें यह करने में सहायता करेगी ।

१. प्रस्तावना

हम एक ऐसे अत्यधिक-संयोजित विश्व में रहते हैं, जहां हमारे समष्टि कार्य एवं दृष्टिकोण का प्रभाव समाज एवं पर्यावरण पर पडता है । भले ही आधुनिक विज्ञान ने मानव शरीर की रचना को समझने में बहुत प्रगति की हो, किंतु हमारी चेतना के गहन पहलुओं को समझने के विषय में वह अभी उतना सफल नहीं हो सका है । मानव व्यवहार को कौन नियंत्रित करता है तथा हमारे कर्मों का कारण क्या है ?

हम सब समाज के सामने, स्वयं को इस प्रकार सबल रूप से प्रस्तुत करने हेतु विवश हो जाते हैं कि हम अपनी अंतर्मन की भावनाओं को छुपा देते हैं । इनमें कई प्रकार के दुःख एवं तनाव भी सम्मिलित हो सकते हैं । हम प्रायः यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि हम सामान्य स्थिति में हैं, किंतु यदि ऐसा न हो और वास्तव में हम भीतर से टूट रहे हों, तब क्या होगा ? क्या ऐसी परिस्थिति एवं दिखावा, जो हम सभी अल्प-अधिक मात्रा में करते हैं, इससे बाहर निकलने का कोई मार्ग है ? जब हम तनाव उत्पन्न करने वाले कारकों को देखते हैं, तब मूल कारण लोगों में आतंरिक रूप से व्याप्त उनके स्वभावदोष होते हैं । हमारे स्वभाव में विद्यमान दोषों के कारण विभिन्न समस्याएं एवं दुःख उत्पन्न होते हैं ।

२. मन के संस्कारों द्वारा हमारी सम्पूर्ण अवस्था को निर्देशित करना

हममें से अधिकांश, जब किसी कठिन परिस्थिति अथवा ऐसी परिस्थितियां जो हमारी इच्छानुसार नहीं होती, का सामना करते हैं तब अत्यधिक तनाव अनुभव करते हैं तथा विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को व्यक्त करते हैं । हम बौद्धिक रूप से यह जानते हैं कि हमें क्रोध नहीं करना चाहिए, हमें ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, हमें छोटी छोटी बातों के लिए दुखी नहीं होना चाहिए और अपने इच्छानुसार कुछ न होने पर उदास नहीं होना चाहिए, इत्यादि । हम कठिन परिस्थितियों में भी संतुलित एवं दृढ रहना चाहते हैं । आइए, परिस्थितियों में उत्पन्न कुछ सामान्य प्रतिक्रियाएं देखते हैं ।

  • जब मेरे इच्छानुसार कुछ नहीं होता, तब मुझे क्रोध आ जाता है ।
  • जब मैं अपने मित्र की नई जैगुआर कार को देखता हूं, तो मैं ईर्ष्या से भर जाता हूं ।
  • जब मेरे अधिकारी मेरी कडी मेहनत की प्रशंसा नहीं करते तो मैं इस विचार से उदास हो जाता हूं कि चाहे मैं कितनी भी मेहनत करूं, वह कम ही होता है ।

इसका कारण यह है कि हमारे मन का हम पर नियंत्रण होता है तथा यह हमारी समग्र स्थिति, हमारे विचार, भावनाएं, कृत्य और प्रतिक्रियाओं को निर्देशित करता है । अंतर्मन में स्वभाव दोषों के संस्कारों के कारण, चेतन मन में अनेक विचार चलते रहते हैं तथा चेतन मन इन गलत अथवा अयोग्य उद्दीपनों से प्रभावित होकर तदनुसार कृति करता है । उदाहरणार्थ, हमें कभी ऐसा लग सकता है कि ‘मुझे गरम गरम कॉफी चाहिए थी, किंतु मेरे पति ने मुझे कम गरम कॉफी दी ।’ तब मेरे अंतर्मन में क्रोध के संस्कार होने के कारण, चेतन मन में एक अनुचित उद्दीपन जाता है – कि अब क्रोधित हो जाओ । मेरे पति सदैव ऐसा ही करते हैं । अब मैं इसे और नहीं सहन कर सकती ।’ तथा क्रोध के स्वभावदोष के इस प्रबल संस्कार से निकले उद्दीपन के कारण, चेतन मन उद्दीपन के अनुसार अयोग्य कृति करता है और फलस्वरूप हम क्रोधित हो जाते हैं । इसका कारण यह है कि उस अयोग्य उद्दीपन का विरोध करने के लिए मन को कोई सकारात्मक उद्दीपन नहीं दिया गया होता है ।

अतः, स्वसूचनाओं के माध्यम से, हम अंतर्मन में नकारात्मक संस्कार से आ रहे नकारात्मक उद्दीपन को मात करने हेतु, अंतर्मन को एक योग्य दृष्टिकोण अथवा सकारात्मक सूचना प्रदान करते हैं । ऊपर दिए गए कॉफी के उदाहरण के प्रकरण में, यह चेतन मन को इसे समझने हेतु सहायता करती है कि यहां क्रोधित नहीं होना चाहिए । यह जागरूकता होने में वृद्धि होती है कि यह कृत्य/विचार अयोग्य है तथा इससे दूसरों को हानि होगी तथा इससे हमें अयोग्य व्यवहार, विचार अथवा अयोग्य कृति पर तथा अंततः नकारात्मक संस्कार अथवा स्वभावदोष पर विजय प्राप्त करने में सहायता प्राप्त होती है ।

३. मन की नकारात्मक प्रवृतियों पर विजय प्राप्त करने हेतु आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता होना

मन के नकारात्मक संस्कारों पर विजय प्राप्त करने हेतु, केवल इच्छा कल्पित चिंतन ही पर्याप्त नहीं होता । इसका कारण यह है कि नकारात्मक संस्कार हमारे अंतर्मन में रहते हैं, इसलिए अंतर्मन के स्तर पर उन पर कार्य करना आवश्यक होता है । स्वभावदोष निर्मूलन के लिए परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी का संकल्प है तथा इस कारण इस प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में चैतन्य व्याप्त है । अतः, जब हम स्वसूचना देते हैं तब हमारे अवचेतनमन में स्वसूचना के शब्दों के साथ चैतन्य प्रवेश करता है, फलस्वरुप, हमारे स्वभाव में शीघ्रता से परिवर्तन होने लगता है । अनेक लोगों ने यह अनुभव किया है कि निरंतर स्वयं सूचना देने से उनके स्वभाव दोष न्यून हुए और अंततः उन पर विजय प्राप्त हुई ।

४. स्वसूचना क्या है ?

स्वसूचना अर्थात स्वयं से हुई अयोग्य कृति, मन में आए अयोग्य विचार, भावना, कृति प्रतिक्रिया अथवा दोनों के संदर्भ में स्वयं ही अपने अंतर्मन को (चित्त को) सकारात्मक सूचना देना । स्वसूचना के माध्यम से, हम हमारे मन को नकारात्मक संस्कार का प्रतिरोध करने हेतु योग्य सकारात्मक सूचना देते हैं, ताकि दोष अंततः निष्प्रभ हो जाए ।

उदाहरण

  • चूक/दोष – क्रोध : जब मां ने यह कहकर मेरी तुलना मेरी बहन से की कि वह अपनी पढाई कितनी अच्छी से कर रही है, तो मुझे क्रोध आ गया ।
  • चूक/दोष – ईर्ष्या : जब मैंने अपने मित्र की नई जैगुआर कार को देखा, तो मैं ईर्ष्या से भर गया ।
  • चूक/दोष – असुरक्षा (दुःखी होना) : जब मेरे अधिकारी ने मेरी मेहनत की प्रशंसा नहीं की, तब मैं इस विचार से दुःखी हो रहा था कि चाहे मैं कितनी भी मेहनत करूं, वह कम ही पडता है ।

मन को प्रत्येक अयोग्य विचार अथवा भावना/प्रतिक्रिया के लिए सकारात्मक सूचना अथवा दृष्टिकोण प्रदान करने से, उसे उस नकारात्मक भावना एवं अशांति पर मात करने और योग्य दिशा मिलने में सहायता प्राप्त होती है ।

स्वसूचना – क्रोध : “जब मेरी मां यह कहकर मेरी तुलना मेरी बहन से करेगी कि वह पढाई में कितनी अच्छी है, तब मुझे भान होगा कि मेरी मां मेरे हित के लिए सोचती है तथा वह चाहती हैं कि मैं अपनी बहन से सीखूं और अपनी पढाई अच्छे से करूं, इसलिए मैं शांत रहूंगा ।”

स्वसूचना – ईर्ष्या : “जब भी मैं जॉन की नई जैगुआर कार देखने पर ईर्ष्या करूंगा, तब मुझे तुरंत इसका भान होगा और यह ध्यान में आएगा कि इसके लिए उसने कडी मेहनत की है तथा वह पूर्ण रूप से इसका हकदार है । मैं उसका समर्थन करता हूं तथा उसकी सफलता से मुझे खुशी है और मैं उसके प्रति प्रसन्न रहूंगा ।”

स्वसूचना – असुरक्षा की भावना : “जब मेरे अधिकारी द्वारा मेरे कार्य की प्रशंसा नहीं किए जाने पर मैं उदास होऊंगा, तब मुझे यह स्मरण होगा कि यह एक सीखने की प्रक्रिया है तथा शिखर पर पहुंचने के मार्ग में सदैव ऊतार चढाव आते रहते हैं, इसलिए मैं ईश्वर से अपने प्रयासों में दृढ रहने हेतु बल देने के लिए प्रार्थना करूंगा ।”

जब हम दूसरों के स्वभावदोषों के कारण तनाव में हो अथवा जीवन की ऐसी कठिन परिस्थिति जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता, उसका सामना कर रहे हो, तो स्वसूचना हमारे भीतर के स्वभावदोषों को दूर करने में सहायक होगी । स्वसूचना न केवल वर्तमान परिस्थिति अथवा नकारात्मकता को दूर करने में सहायता करती है, अपितु वे व्यसन अथवा बाल्यावस्था के रोग जैसे दीर्घ कालीन समस्याओं पर भी प्रभावी सिद्ध होती हैं । स्वसूचना के सत्र द्वारा, हम प्रतिदिन के सत्रों में सकारात्मक सूचनाओं को दोहराते हैं, फलस्वरूप नकारात्मक संस्कार न्यून होने लगते हैं । स्वसूचना देने पर नकारात्मक संस्कार घटने से विपरीत गुणों में स्वतः ही वृद्धि नहीं होती, उसके लिए हमें गुण निर्माण करने हेतु आवश्यक प्रयास करना होता है । उदाहरण के लिए, स्वसूचना देने से मेरा क्रोध घट जाने पर दूसरों के लिए मुझमें प्रेम स्वतः ही निर्माण नहीं होगी । यह उसी प्रकार है जैसे एक रोगी जब औषधि लेता है, तब वह स्वस्थ तो हो जाएगा, किंतु उसका शरीर स्वतः ही हृष्ट- पुष्ट व्यक्ति के शरीर के समान नहीं बनेगा । यदि वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाना चाहता है, तो उसे आवश्यक व्यायाम करना होगा । उसी प्रकार, स्व सूचना देने से मेरा क्रोध न्यून होने पर भी दूसरों के लिए मुझमें प्रेम निर्माण होने हेतु मुझे ध्यानपूर्वक प्रयास करने पडेंगे ।

विश्व में ऐसी कोई समस्या नहीं है जिस पर स्वसूचनाओं के द्वारा विजय प्राप्त नहीं की जा सकती । – परात्पर गुरु (डॉ.) आठवलेजी

५. सकारात्मक वाक्य (अफर्मेशन्स) एवं स्वसूचना में अंतर

मनोचिकित्सक रोगियों को अवसाद अथवा अन्य पुराने दोषों पर विजय प्राप्त करने के लिए सकारात्मक वाक्य (अफर्मेशन्स) देते हैं, तथा प्रत्येक सत्र के लिए हमें बडी राशि शुल्क के रूप में देना पडता है । मनोचिकित्सक प्रायः रोगियों को सकारात्मक वाक्य तो बता देते है, किंतु वे रोगियों को उनके दोषों को समझने और उन पर विजय प्राप्त करने में कदाचित ही सहायता करते हैं । स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया व्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार पूर्ण रूप से योग्य होती है और इसी कारण सकारात्मक वाक्य बोलने से होने वाले लाभ की अपेक्षा इस प्रक्रिया से होने वाला लाभ अधिक होता है । इसके अतिरिक्त, स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया में व्याप्त आध्यात्मिक शक्ति इसकी प्रभावकारिता को और बढा देती है ।

90 से 95 प्रतिशत प्रसंगों में समस्याओं का मूल कारण बाहर न रहकर हमारे अपने दोषों में छुपा होता है, इसलिए समस्याओं के निवारण में स्वसूचना हमें 90 से 95 प्रतिशत तक सहायता कर सकती है । तुलनात्मक दृष्टि से, सकारात्मक वाक्य (अफर्मेशन) 25 से 30 प्रतिशत तक सहायता कर सकते हैं । तब भी सकारात्मक वाक्य देने के कुछ लाभ हैं क्योंकि वे हमें पूर्व की तुलना में अधिक सकारात्मक अनुभव करा सकते हैं, हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु कडी मेहनत करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं, इत्यादि ।

एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि स्वसूचना देने से हमारा प्रारब्ध अथवा कर्म न्यून होता है । इसका कारण यह है कि हमारे कर्म हमारे अंतर्मन में संस्कारों के रूप में संग्रहित होते हैं, तथा स्वसूचना में व्याप्त आध्यात्मिक शक्ति उन संस्कारों को प्रत्यक्ष रूप से न्यून करने हेतु कार्य करती है । इसके विपरीत सकारात्मक वाक्य हमारे कर्म को नहीं घटा सकते । कर्म हमारे स्वभावदोषों के माध्यम से कार्य करता है । उदाहरण के लिए, यदि मुझमें भावनाप्रधानता का संस्कार है तथा जब यह उभरेगा, तो मुझे दुःख होगा । इसलिए जब मेरा मित्र मुझसे छल करता है, तो मुझे ठेस पहुंचती है और दुःख सहना पडेगा । इस प्रकरण में, यह प्रारब्ध के कारण पूर्वनियोजित हो सकता है कि मैं अपने मित्र से छला जाऊंगा, किंतु जो दुःख मुझे इस प्रारब्ध के कारण अनुभव होगा, उसका कारण है भावनाप्रधानता का स्वभावदोष । भावनाप्रधानता पर स्वसूचना देने से, भावनाप्रधानता का स्वभावदोष घट जाएगा और पूर्व में प्रसंग होने पर जो संस्कार उभर जाते थे, अब इस संस्कार संबंधी प्रसंग आने पर मुझे दुःख नहीं होगा ।

इसके अतिरिक्त, जैसे जैसे संस्कार घटते जाएंगे, वैसे वैसे मुझे अनुभव होने वाले कष्ट की अवधि भी न्यून होती जाएगी । अतः, यदि संस्कार बहुत प्रबल है, उदाहरण के लिए मुझे क्रोध आता है और यह एक बहुत प्रबल संस्कार है, तो जो दुःख मुझे सहना पडेगा उसकी मात्रा भी बहुत अधिक होगी । जैसे ही क्रोध का यह संस्कार न्यून होगा, तब प्रारब्ध के कारण मुझे अनुभव होने वाले दुःख की अवधि भी घट जाएगी ।

इसके अतिरिक्त, नियमित स्वसूचनाएं देने से, व्यक्ति द्वारा आगे के लिए प्रतिकूल प्रारब्ध निर्माण होने की संभावना न्यून हो जाती है । स्वभावदोषों के कारण, व्यक्ति से प्रतिकूल प्रारब्ध का निर्माण अधिक होता है। उदाहरणार्थ, यदि मुझमें दूसरों की आलोचना करने का स्वभावदोष होगा तो मेरे द्वारा उनकी आलोचना से उन्हें दुःख पहुंचेगा, और इससे वे हतोत्साहित हो जाएंगे । फलस्वरूप मुझे दूसरों को दुःख देना का पाप लगेगा । अतः स्वसूचनाओं के माध्यम से जब दूसरों की आलोचना करने का मेरा स्वभावदोष घटेगा तब मेरा व्यवहार बदलेगा और मैं दूसरों को अधिक अच्छे से समझने लगूंगा । इस प्रकार नए प्रतिकूल कर्म अथवा प्रारब्ध का निर्माण होने की संभावना घट जाएगी ।

जब मन ही नहीं रहेगा, तब व्यक्ति अपने प्रारब्ध से ऊपर उठ जाता है । व्यक्ति अपने मन के कारण ही दुःख को अनुभव करता है ।

अतः, स्वसूचना की सहायता से, किसी भी प्रारब्धजनित घटना के माध्यम से अनुभव होने वाले कष्ट को हम न्यून अथवा उस पर विजय प्राप्त कर सकते है, किंतु सकारात्मक वाक्य (अफर्मेशन्स) देने पर ऐसा नहीं होगा । जैसे ही हम सात्त्विक बनते हैं, तब हमारा व्यवहार अच्छा होने लगता है और फलस्वरूप हमें कष्टदायक प्रारब्ध नहीं भोगना पडता ।

६. स्वसूचनाएं बनाने के दिशा निर्देश

१. सरलता : स्वसूचना का निर्माण सरल भाषा तथा सीमित शब्दों के प्रयोग से होना चाहिए । उदाहरण के लिए, आपने कभी लेखन से भरे पूरे पृष्ठ अथवा स्प्रेडशीट को ध्यान से देखा है ? क्या उसे पढने का अथवा देखने का मन करता है ? प्रायः हमारा मन उसे पढने में कुछ विरोध करता है अथवा उसे सीधे तौर पर नकार देता है । इसका कारण यह है कि मन को आसान अथवा सरल चीजें अच्छी लगती है । उसी प्रकार, मन को स्वसूचना देते समय, वाक्य रचना सरल तथा सीमित शब्दों में होना चाहिए, जिससे मन को संदेश समझने में आसानी हो ।

२. ‘जब’ से आरंभ करना : स्वसूचना का आरंभ सदैव ‘जब’ से होता है, जिसमें किसी विशिष्ट घटना को भविष्य काल में बतलाया जाता है । ‘जब’ शब्द का प्रयोग मन को सतर्क भी बनाता है ।

उदाहरण के लिए, हम एक चूक का उदाहरण लेते हैं: “मुझे आलस्य लग रहा था और मैंने टहलने जाना टाल दिया ।”

इसलिए, स्वसूचना बनाते समय, हमें उस घटना को आगे दिए अनुसार भविष्य काल में बनाना पडेगा – “जब भी मुझे टहलने जाने को टालने का मन करेगा…” और तदोपरान्त उसे रोकने के लिए क्या करना है, वह उसमें जोडेंगे ।

३. सकारात्मकता : स्वसूचनाएं सदैव सकारात्मक होनी चाहिए । इसमें न करना, नहीं, ना, नहीं होगा, नहीं कर सकते आदि जैसे शब्दों का प्रयोग न करें । उदाहरण के लिए, हमें नहीं कहना चाहिए, “मुझे क्रोध नहीं आएगा” । इसके स्थान पर हम कह सकते है, “मैं शांत रहूंगा ।” इसका कारण यह है कि मन की प्रवृति ऐसी होती है कि जब हम अपने मन को बताते है कि यह नहीं करना है, तो वह अनिवार्य रूप से वही करना चाहता है, किंतु जब हम वही बात सकारात्मक रूप में कहते हैं तो मन उसे स्वीकार करने की स्थिति में चला जाता है ।

४. विशिष्टता (प्रसंगविशेष) : स्वसूचना विशिष्ट होनी चाहिए, सर्वसामान्य नहीं । जैसे, “जब लोग मुझे देखते हैं तो मुझे शर्म आती है” ऐसा बताने के स्थान पर हमें वास्तविक घटना का वर्णन करना चाहिए जो कि इस प्रकार है, “जब मैरी मुझे देखती है तो मुझे शर्म आती है । स्वसूचना में सर्वसामान्य रूप से “लोग” ऐसा बताने से हम पर उतना प्रभाव नहीं पडेगा जितना उसमें विशिष्ट होने पर पडेगा । यदि स्वसूचना सामान्य वाक्य में होगी तो मन मूल भावना को नहीं समझ पाएगा जैसा कि ‘मैरी’ का नाम बताने पर समझ पाएगा । इसका कारण यह भी हो सकता है कि मुझे मैरी पसंद है, और जब भी वह मुझे देखती है तो मेरी प्रेम से सम्बंधित भावनाएं प्रकट हो जाती है । दूसरा उदाहरण यह हो सकता है, मेरे सीनियर जॉन ने मुझे विद्यालय में धमकाया, इससे मुझे बहुत गहरा दुःख पहुंचा । यहां पर जैसे ही जॉन का नाम आता है, मुझे उन सभी घटनाओं का स्मरण हो जाता है जहां जॉन ने मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया था और मेरा दबा हुआ क्रोध प्रकट हो जाता है । किसी और का नाम बताने पर ऐसा नहीं होगा ।

५. एक समय में एक ही दोष लेना : किसी भी घटना में एक से अधिक स्वभाव दोष हो सकते है, किंतु हमें एक समय में एक ही दोष के लिए स्वसूचना देनी है । एक उदाहरण देखते हैं – “जब मेरे सहयोगी ने मुझे एक प्रोजेक्ट में सहायता नहीं की, क्योंकि उसने पहले सहायता करने को कहा था, तो मैं भावुक और उदास हो गया । यहां अपेक्षा रखना, नकारात्मक विचार करना, भावनाप्रधानता, ये दोष हो सकते हैं । स्वसूचना बनाते समय हम इनमें से कोई एक दोष का चयन करना है । जिस दोष का प्रभाव हमारे अथवा दूसरों के जीवन पर सबसे अधिक पडता हो, उस आधार पर हम उसका चयन कर सकते हैं ।

६. प्रसंग घडने की संख्या के अनुसार दोषों का चयन करना : जब किसी एक दोष के कारण एक से अधिक प्रसंग घट रहे हों, तो स्वसूचना के लिए केवल उसी प्रसंग का चयन करें जो सबसे अधिक बार घटती हो । मान लीजिए मैं क्रोध कम करने का प्रयास कर रहा हूं और इसका प्रकटीकरण अनेक प्रसंगों में होता है । किंतु, सबसे अधिक प्रकटीकरण होता है – “जब मेरा पुत्र अपना होमवर्क करने के स्थान पर दूरदर्शन देख रहा था, तो मुझे क्रोध आ गया ।” क्योंकि यह प्रतिदिन होता है । तब मैं सुधार हेतु इस प्रकटीकरण वाले प्रसंग का चयन करूंगा ।

७. तीन (३) स्वसूचना से आरंभ करें : आरंभ में, प्रतिदिन कम से कम ३ स्वयं सूचनाओं के सत्र करें । स्वसूचना लिखें और यदि स्वसूचना याद न रह पाता हो, तो ५ बार पढे । उसके पश्चात, हम उनकी संख्या बढाकर प्रतिदिन ५ स्वसूचना के सत्र तक कर सकते हैं । हम इस विषय में अगले खंड में और अधिक विस्तार से देखेंगे ।

७. निष्कर्ष

हम अपनी भावनाओं के साथ बहुत संघर्ष करते हैं, किंतु हमें उनका समाधान नहीं मिल पाता । इसके साथ ही अनेक उपचार करना, परामर्श लेने (काऊनसिलिंग) पर धन व्यय करना इत्यादि प्रयास करने पर भी कुछ नहीं हो पाता । स्वसूचना देना, आध्यात्मिक स्तर का एक समाधान है तथा यह हमारी नकारात्मक भावनाओं के जड तक जाकर उसे दूर करने का प्रयास करता है । अनेक लोगों ने स्वसूचना के १० मिनट के सत्र नियमित रूप से करने पर बहुत राहत एवं आनंद का अनुभव किया है । स्वसूचना देने से लाभान्वित हुए लोगों के अनुभव कथन इस श्रृंखला के आगे के लेखों में प्रस्तुत किए जाएंगे । हम आशा करते हैं कि आप स्वसूचना एवं स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया के विषय में अधिक जानने के लिए समय निकालेंगे, तो आप भी इसी समान सकारात्मक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं ।