विषय सूची
१. आध्यात्मिक स्तर के संदर्भ में
व्यक्ति की आध्यात्मिक परिपक्वता अथवा आध्यात्मिक क्षमता का वर्णन करने के लिए SSRF आध्यात्मिक स्तर शब्द का (संज्ञा का) उपयोग करता है । यह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का एक मापक (scale) है तथा इस बात का भी संकेत है कि व्यक्ति साधनायात्रा में तुलनात्मक दृष्टि से कहांतक पहुंचा है । व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर जितना अधिक होगा, उतना ही उसमें र्इश्वरीय तत्त्व अधिक मात्रा में प्रकट होता है ।
२. आध्यात्मिक स्तर का मापदंड
SSRF आध्यात्मिक स्तर की व्याख्या करने हेतु १ प्रतिशत से १०० प्रतिशततक के मापक का उपयोग करता है । १ प्रतिशत किसी निर्जीव वस्तु के आध्यात्मिक स्तर का सूचक है, जबकि १०० प्रतिशत उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है, जो आध्यात्मिक प्रगति के शिखरको अर्थात आत्मसाक्षात्कार अथवा र्इश्वर से एकरूपता के लक्ष्यको प्राप्त कर चुका है ।
वर्तमान कलियुग में (संघर्ष के युग में), अधिकतर लोग २० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर की श्रेणी में आते हैं । अध्यात्मशास्त्रानुसार जिस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत से अधिक होता है, उसे संत कहते हैं । जिस प्रकार सांसारिक विश्व में अपने-अपने क्षेत्र में लोग अधिकारी (उच्च पद पर) होते हैं, उसी प्रकार पृथ्वी पर जो संत होते हैं, वे अध्यात्मक्षेत्र के अधिकारी होते हैं । वे केवल विद्वान ही नहीं होते, अपितु अपने दैनिक जीवन में अध्यात्मशास्त्रानुसार आचरण करनेवाले र्इश्वरदर्शी जीव होते हैं ।
जो संत सक्रियता से अध्यात्मशास्त्र सिखाते हैं तथा साधकों की आध्यात्मिक उन्नति हेतु उनका पोषण करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं । पृथ्वी पर वास करनेवाले संतों में से १० प्रतिशत से अल्प संत ही गुरु होते हैं । गुरु अर्थात र्इश्वर का स्थूल मार्गदर्शक-रूप । इस अत्यधिक जडवादी विश्व में वे आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करनेवाले की भूमिका निभाते हैं ।
३.आध्यात्मिक स्तर एवं साधना
४. आध्यात्मिक स्तर कैसे निर्धारित किया जाता है ?
सामान्य नियमों की सहायता से व्यक्ति बुद्धि से अपने आध्यात्मिक स्तर का अनुमान लगा सकता है । इसे समझाने के लिए हम नीचे एक मापक (scale) दे रहे हैं ।
आध्यात्मिक स्तर न ही किसी आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणद्वारा और न ही किसी व्यक्ति की बुद्धिद्वारा निर्धारित किया जा सकता है । केवल संत अथवा गुरु ही अपनी अतिजाग्रत छठवीं ज्ञानेंद्रिय अथवा अतिरिक्त संवेदी बोध-क्षमताद्वारा व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर निर्धारित कर सकते हैं ।
जिस प्रकार से नेत्र अपनी अंगभूत क्षमता के कारण सुलभता से नीले तथा लाल रंग की वस्तु में १०० प्रतिशत अचूकता से विभेद कर सकते हैं, उसी प्रकार संत अपनी छठवीं ज्ञानेंद्रिय की क्षमताद्वारा किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर का अचूकता अनुमान लगा सकते हैं । छठवीं ज्ञानेंद्रिय व्यक्तिको अज्ञात (अदृश्य) विश्व के संबंध में पूर्ण सतर्कता तथा उसे मापने की क्षमता प्रदान करती है ।
सामान्य नियमों की सहायता से व्यक्ति बुद्धि से अपने आध्यात्मिक स्तर का अनुमान लगा सकता है । इसे समझाने के लिए हम नीचे एक मापक (scale) दे रहे हैं ।
आध्यात्मिक स्तर बढने पर जीवनसंबंधी दृष्टिकोण और धारणा में आकस्मिक परिवर्तन आता है । उदाहरणार्थ, ३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के व्यक्तिको अपनी व्यस्त दिनचर्या में से एक आध्यात्मिक प्रवचन सुनने के लिए भी समय निकालना कठिन लगता है । यही व्यक्ति ४० प्रतिशत (आध्यात्मिक) स्तर प्राप्त करने पर, उतनी ही व्यस्तता में से आध्यात्मिक प्रवचन सुनने तथा आध्यात्मिक ग्रंथों का नियमित अध्ययन करने के लिए सहजता से समय निकाल पाता है ।
एक विशिष्ट आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति उदा. ३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति स्वयं से कुछ ही प्रतिशत अधिक स्तर के व्यक्तिको समझ सकता है । उसके लिए ४० प्रतिशत स्तर के व्यक्तिको समझ पाना बहुत कठिन होता है, इसका उलटा भी होता है ।
अपनी बुद्धि से कोई व्यक्ति यह अनुमान लगा सकता है कि अमुक व्यक्ति उससे कुछ मात्रा में (आध्यात्मिक दृष्टि से) अधिक प्रगत है, किंतु अधिकतर यह अनुमान अस्पष्ट ही होगा ।
बुद्धि से यह परख पाना कि कोई व्यक्ति संत है अथवा नहीं, असंभव-सी बात है ।
आध्यात्मिक स्तर निर्धारित करने के अनेक कारक (factors) होते हैं । निम्न सूत्रों में हमने व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर के लिए उत्तरदायी कुछ महत्त्वपूर्ण घटक तथा आध्यात्मिक उन्नति के कारण उनमें होनेवाले परिवर्तनों के विषय में विस्तृत चर्चा की है ।
४.१ अहं और आध्यात्मिक स्तर
- व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर का एक महत्त्वपूर्ण मापदंड है, उसके अहं की मात्रा । इसका अर्थ है उसकी आत्मा के सर्व ओर विद्यमान अंधकार कितना हट गया है तथा उसका अपनी अंतरात्मा के साथ कितना तादात्म्य स्थापित हुआ है ।
- आत्मा के सर्व ओर विद्यमान अहं (अंधकार) का अर्थ है; मनुष्य की वह प्रवृत्ति जो उसका तादात्म्य केवल पंज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धितक ही सीमित रखती है । यह अहं अर्थात अपने वास्तविक अस्तित्व का (आत्मा का) आध्यात्मिक अज्ञान । हमारी आधुनिक शिक्षाप्रणाली और समाज हमें यही सिखाते हैं कि हमारा अस्तित्व, हमारी देह, मन एवं बुद्धितक ही सीमित है । हमारा वास्तविक अस्तित्त्व हमारी अंतरात्मा है, इस तथ्य से हम अनभिज्ञ रहते हैं ।
- अध्यात्मशास्त्र के अध्ययन से हम अपनी बुद्धि से यह समझ पाते हैं कि हमारे भीतर आत्मा है; किंतु न ही हमें उसका भान होता है, न ही हम उसे अनुभव कर पाते हैं । जब हम साधना आरंभ करते हैं, यह अहं का अंधकार छंटने लगता है तथा जब हम आध्यात्मिक शिखर पर पहुंचते हैं, तब हमनी अंतरात्मा से पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर पाते हैं ।
- साधना आरंभ करने पर हमारा अहं क्षीण होने लगता है । इसका हमारे बढते आध्यात्मिक स्तर से सीधा संबंध होता है । निम्न आकृति से यह प्रक्रिया स्पष्ट होती है ।
२० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर व्यक्ति अति आत्मकेंद्रित होता है, उसे अपने अस्तित्व का भान अधिक होता है और वह स्वयं के ही बारे में विचार करता है । साधना करने से देहबुद्धि न्यून होने लगती है । हम केवल सुख-दुःख का सामना करना ही नहीं सीखते, अपितु अपनी प्रशंसाको सिर चढने नहीं देते तथा उस समय भी स्थिर रहना सीखते हैं ।
उदाहरणार्थ, यदि किसी स्त्रीको कहा जाए कि उसका वजन बढ गया है अथवा वह बूढी दिखने लगी है, और वह लंबे समयतक निराशा में रहती है । जब कोई व्यक्ति सभी के सामने अपनी साधना का उल्लेख नहीं करता, इस संकोच से कि उसके साथी उसके विषय में क्या सोचेंगे, तो यह भी अहं की अभिव्यक्ति है । अधिकतर प्रसंगों में जब कोई हमारी चूकें दिखाता है, तब हमारे मन में नकारात्मक प्रतिक्रियाएं आती हैं । अपनी चूकें स्वीकार पाने में कठिनाई होना, अहं का लक्षण है ।
४.२ अपने सुख की ओर ध्यान और आध्यात्मिक स्तर
साधारण मनुष्य की तुलनामें, अपने सुख के प्रति अल्प ध्यान होना, उच्च आध्यात्मिक स्तर का एक स्पष्ट लक्षण है । जैसा कि निम्न आकृति में दिखाया है, जो व्यक्ति संतपदतक पहुंच जाता है, उसका अपने सुख की ओर मात्र १० प्रतिशत ही ध्यान रहता है । इसका एक कारण है – आध्यात्मिक प्रगति के साथ व्यक्ति का अपने शरीर, मन तथा बुद्धि के साथ तादात्म्य घटने लगता है ।
साधारण मनुष्य के जीवन में स्वयं के सुख की ओर ध्यान देने के उदाहरण अनेक हैं, जैसे –
१. परिवार के किसी व्यक्ति की शश्रुषा करने की आवश्यकता पडने पर चिडचिडाहट होना, क्योंकि इससे असुविधा होती है ।
२. आध्यात्मिक प्रवचन के लिए केवल तब जाना, जब वह निकट के परिसर में हो ।
३.अन्याय के विरोध में निषेध व्यक्त करने के लिए पैसे दान करने की तत्परता दिखाना, परंतु उसके लिए अपना समय एवं श्रम देना असुविधाजनक लगना
अपने सुख की ओर ध्यान अल्प होने का सकारात्मक परिणाम यह होता है कि इससे व्यक्ति व्यापक बनता है और मनःपूर्वक दूसरों के तथा समाज के सुख की ओर ध्यान देता है ।
जैसे हमारा आध्यात्मिक विकास होता है और हम अपने सुख की ओर अधिक ध्यान नहीं देते, तब इसका विपरीत लाभ होता है कि हमें अपने जीवन में अधिकाधिक सुख मिलने लगता है । आध्यात्मिक स्तर बढने पर सुख में गुणात्मक तथा संख्यात्मक वृद्धि कैसे होती है, यह निम्न आकृति से स्पष्ट होगा । संत आनंद की अनुभूति करते हैं, जो कि सुख के परे एवं सुख की तुलना में अत्युच्च स्तर की अवस्था होती है ।
४.३ साधना और आध्यात्मिक स्तर
जैसे हमारा आध्यात्मिक स्तर बढता है, वैसे साधना करने की गुणात्मक एवं संख्यात्मक क्षमता में वृद्धि होती है । यह आध्यात्मिक स्नायुबल बढनेसमान ही है । साधना के लिए परिश्रम जितना अधिक उतना हमारा आध्यात्मिक स्नायुबल बढता है ।
३५ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर वास्तव में साधना आरंभ होती है । इससे यह अभिप्रेत है कि इस स्तर के व्यक्ति में आध्यात्मिक प्रगति की लगन उत्पन्न होती है और प्रतिदिन अध्यात्म के मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार वह साधना करता है । आध्यात्मिक प्रगति का एक आधारभूत मापदंड है, सांप्रदायिक (अर्थात किसी धर्म / पंथ के अनुसार) साधना के परे जाना और अधिकाधिक उच्च एवं सूक्ष्मतर साधना कर पाना । उदाहरणार्थ, जो व्यक्ति पहले अपने शरीर के माध्यम से देवतापूजन (कर्मकांड के अनुसार) करता था, वह उच्च तथा सूक्ष्म स्तर पर जाकर अब र्इश्वर का मानसिक (मानस) पूजन करने लगता है । नामजप-साधना इसका एक उदाहरण है ।
निम्न कुछ उदाहरण साधना के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन स्पष्ट करते हैं ।
- २० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर कोई साधना नहीं होती अथवा केवल नाममात्र साधना होती है । यदि लोग किसी तीर्थस्थल पर /प्रार्थनास्थल पर जाते भी हैं, तो केवल आदतन अथवा मन बहलाव के लिए ।
- ३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर तीर्थस्थल जाने में अथवा कर्मकांड के अनुसार पूजापाठ करने में एक सामान्य-सी रूचि होती है ।
- ४० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर उसे जीवन में उतारने की रूचि होती है । ऐसे लोग अपना अधिकांश रिक्त समय आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत करने में बिताते हैं ।
- ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर व्यक्ति अपने धर्म के (पंथ के) परे, शुद्ध अध्यात्म की ओर बढता है । व्यक्ति के जीवन का केंद्रबिंदु सांसारिक विषयों में आसक्त होने तथा सांसारिक महत्वाकांक्षाएं पूर्ण करने की अपेक्षा आध्यात्मिक विकास करना होता है । अतः उसके जीवन का अधिकांश समय साधना करने में व्यतीत होता है, चाहे उसकी परिस्थिति जो भी हो, चाहे वह व्यवसायी हो, गृहिणी आदि । ऐसा आवश्यक नहीं है कि ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति अपना सांसारिक जीवन अथवा व्यवसाय त्याग देता है । किंतु उसका केंद्रबिंदू सांसारिक प्रगति की अपेक्षा आध्यात्मिक प्रगति की ओर होता है । अतः व्यक्ति, जो पहले अपनी आय के संदर्भ में अथवा लोगों के संदर्भ में बहुत सोचता था, वह अब इस बात में रूचि लेने लगता है कि र्इश्वर उसके बारे में क्या सोचते हैं ।
४.४ (मानसिक) भावना और आध्यात्मिक स्तर
वर्त्तमान स्वार्थी एवं निर्दयी विश्व में यदि किसी के मन में सकारात्मक भावना है, विशेषकर अन्यों के प्रति, तो वह निश्चित ही स्तुत्य है । यद्यपि यह अवस्था (स्तर) किसी निर्दय तथा संवेदनहीन व्यक्ति की तुलना में श्रेयस्कर है, तथापि यह ध्यान में रखना होगा कि यह कोई शिखर नहीं है । वास्तव में (मानसिक) भावना मन का ही एक कार्य है, जो कि उपर्युक्त चित्र में बताए अनुसार हमारी आत्मा के सर्व ओर विद्यमान काले आवरण का एक भाग है । इस प्रकार यह आवरण हमें हमारे भीतर के र्इश्वर की (अंतरात्मा की) अनुभूति से दूर रखता है । र्इश्वर भावनाओं के (मानसिक भावनात्मक अवस्था के) परे होते है; वे सुख की उच्च अवस्था में अर्थात आनंद में होते हैं । आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगत व्यक्ति कभी भावना में आकर कोई कृत्य नहीं करता । उसे मन की अधिक संतुलित अवस्था प्राप्त होती है और वह अपने आसपास होनेवाली घटनाओं से प्रभावित होकर दोलायमान नहीं होता ।
२० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर की युवती के केश अपेक्षाकृत एक सेंटीमीटर अधिक काटे जाने पर वह क्रोध से तमतमा जाती है और कई दिनोंतक दुखी रहती है । यही युवती उसका आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत होने पर उसे कैंसर अथवा एडस जैसी असाध्य व्याधि होने की बात सुनकर भी निर्विकार (stoic) अवस्था में दृढता से रह पाती है ।
४.५ भाव (र्इश्वर के प्रति आध्यात्मिक भावना) और आध्यात्मिक स्तर
र्इश्वर के प्रति भाव होने का अर्थ है, र्इश्वर के सर्वव्यापी अस्तित्वको तीव्रता से अनुभव करना; अर्थात दैनिक कृत्य करते समय र्इश्वर की उपस्थिति अनुभव करना और इस जागरुकता के साथ अपना जीवन बिताना ।
जैसे-जैसे किसी का भाव बढता है, वैसे-वैसे जीवन के प्रत्येक अंग में वह र्इश्वर की भूमिका को अधिकाधिक अनुभव करने लगता है, जिससे वह और अधिक र्इश्वर की शरण में जाने लगता है । जैसे ही यह शरणागत अवस्था आती है, र्इश्वरीय तत्त्व उसके माध्यम से कार्य करने लगता है । यह तत्त्व उस व्यक्ति में अधिकाधिक प्रकट होने लगता है और वह व्यक्ति के साथ ही अन्य लोग भी उसके माध्यम से प्रवाहित होनेवाले र्इश्वरीय चैतन्यको अनुभव करने लगते हैं ।
२० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति कोई बडा प्रतिष्ठित व्यावसायिक करार (deal) करने पर अपने आप पर तथा अपनी बौद्धिक क्षमता पर गर्व करता है । इसी स्थिति में ५० प्रतिशत स्तर का व्यक्ति इस करार के रूप में र्इश्वरद्वारा प्राप्त कृपा के कारण भाव तथा कृतज्ञता से विभोर हो जाता है ।
यदि २० प्रतिशत स्तर का व्यक्ति इस करार से हाथ धो बैठता है, तो वह चिडचिडाहट, मत्सर (ईर्ष्या) तथा दुःख से ग्रस्त हो जाता है । तथापि ५० प्रतिशत स्तर का व्यक्ति इस परिस्थिति में भी र्इश्वर की कृपा ही देखता है और यह समझता है कि यह करार उसी को मिला जो इसके पात्र है । र्इश्वरने उस पात्र व्यक्ति पर कृपा की, र्इश्वरद्वारा दिए इस दृष्टिकोण के लिए वह कृतज्ञता व्यक्त करता है ।
५. आध्यात्मिक स्तर के कुछ पहलू
हमारा आध्यात्मिक स्तर निर्धारित करता है कि हम अपना जीवन किस प्रकार से जीते हैं तथा परिस्थिति और प्रारब्ध का हम पर क्या प्रभाव पडता है । आध्यात्मिक स्तर की संकल्पना के कुछ पहलू तथा इससे जीवन पर पडनेवाले प्रभाव नीचे दिए हैं ।
५.१ आध्यात्मिक स्तर और जन्म
हमारा जन्म किसी निश्चित आध्यात्मिक स्तर पर होता है । यह पिछले जन्म में प्राप्त आध्यात्मिक स्तर पर आधारित होता है । उदाहरण के रूप में यदि कोई व्यक्ति साधना कर ५० प्रतिशत स्तर प्राप्त करता है, तो आगे के जन्म में ५० प्रतिशत स्तर पर ही जन्म लेता है । मूलतः अध्यात्म में हम पिछले जन्म में जहां होते हैं, वहीं से आगे बढते हैं । यह सांसारिक ज्ञान के समान नहीं है, जहां जन्म लेने पर हमें पुनश्च पहले से आरंभ करना पडता है ।
५.२ क्या नास्तिक का आध्यात्मिक स्तर उच्च हो सकता है ?
बिलकुल, र्इश्वर पर विश्वास न होते हुए भी नास्तिक का आध्यात्मिक स्तर उच्च हो सकता है । कभी-कभी नास्तिक अपने जीवन के उत्तरार्ध में साधना आरंभ करता है, जो कि प्रारब्ध के अनुसार होता है ।
५.३.आध्यात्मिक स्तर और अनुकूलता (compatability)
जैसे कि हमने पहले देखा है, आध्यात्मिक स्तर में अंतर दो व्यक्तियों के जीवन की ओर देखने के दृष्टिकोण में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाता है । इसलिए जैसे ही आध्यात्मिक स्तर में यह अंतर बढता जाता है, दो व्यक्तियों की अनुकूलता न्यून होने लगती है । यह घटक दो व्यक्तियों में असंगतता के लिए ५ प्रतिशत उत्तरदायी होता है ।
दो व्यक्तियों का आध्यात्मिक स्तर समान होते हुए भी, उन में आध्यात्मिक उन्नति की लगन में अंतर के कारण असंगतता हो सकती है ।
र्इश्वरप्राप्ति करनेवाले दो साधकों में पर्याप्त अनुकूलता न होने का एक और कारण यह भी है कि एक प्रमुखतः व्यष्टि साधक है और दूसरा प्रमुखतः समष्टि साधक । व्यष्टि साधक अर्थात जो व्यक्तिगत उन्नति के लिए साधना करता है तथा समष्टि साधक वह है जो समाज की उन्नति के लिए साधना करता है । इस कारण से दो साधकों में ८ प्रतिशततक असंगतता हो सकती है ।
संदर्भ लेख :कृपया विस्तृत जानकारी लिए ‘‘अनुकूलता को प्रभावित करनेवाले घटक इस लेख का संदर्भ लें ।”
५.४ आध्यात्मिक स्तर और ब्रह्मांड की शक्ति ग्रहण करने की क्षमता
अधिकतर लोग अपना संपूर्ण जीवन निम्न स्तर की शक्तिको (स्थूल शक्तिको) प्राप्त करने में बिता देते हैं । इस के कुछ उदाहरण नीचे दिए हैं । किंतु जैसे हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती (अर्थात आध्यात्मिक स्तर बढता) है, हम ब्रह्मांड की उच्च शक्ति ग्रहण कर पाते हैं ।
- व्याधि से मुक्त होने के लिए औषधियां – उदा. जीवाणुओं को मारने के लिए प्रतिजैविक (एंटिबायोटिक्स)
- वध करने के लिए स्थूल शस्त्र का उपयोग करना
- आर्थिक शक्ति
- राजनीतिक शक्ति
उदा. एडॉल्फ हिटलर के सत्ता में आकस्मिक चढाव का कारण था, नरक के (पाताल के) निचले लोकों के बलशाली मांत्रिक का (एक प्रकार की अनिष्ट शक्ति का) प्रयोजन । इस मांत्रिकने हिटलरको उसके सत्ताकाल में आवेशित कर रखा था तथा उसे किसी भी शक्तिद्वारा अपराजेय बना दिया था । जिन लोगोंने प्रत्यक्ष में हिटलरको (अर्थात मांत्रिकद्वारा आविष्ट हिटलर को) अपनी आध्यात्मिक शक्तिद्वारा प्रतिबंधित कर रखा था, वे भारत के दो संत थे, पू.माताजी और योगी अरविद (श्री ऑरोबिंदो)। (संदर्भ : lightworks.com 2006, gurusoftware.com 2006, lightendlesslight.org 2006)
संपूर्ण लेख पढने के लिए कृपया यहां पर क्लिक करें – ‘ब्रह्मांड की शक्तियों का पदक्रम’
५.५ आध्यात्मिक स्तर – अनिष्ट शक्तियों से रक्षा का साधन
अनिष्ट शक्तियों से (भूत, पिशाच इ.) स्वयंको बचाने का एकमात्र सुनिश्चित एवं स्थायी मार्ग है, आध्यात्मिक उन्नति करना । २०-३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर सर्व प्रकार की अनिष्ट शक्तियों के (भूत, पिशाच इ.) आक्रमणों का ग्रास बनने की (शिकार होने की) संभावना होती है । इस स्तर पर कोई भी अनिष्ट शक्ति उसकी इच्छा के अनुसार हमें आविष्ट कर सकती है; क्योंकि हम र्इश्वरीय संरक्षण से लाभ पाने की स्थिति में नहीं होते ।
संपूर्ण लेख पढने के लिए कृपया यहां पर क्लिक करें – अनिष्ट शक्तियों से रक्षा हेतु सुरक्षाकवच की निर्मिति में आध्यात्मिक स्तर का क्या योगदान है ?
५.६ मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर
जहां अधिकांश लोगों का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत होता है, वहीं मानसिकरूप से विकलांग व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर १९ प्रतिशत होता है; क्योंकि उसमें बुद्धिमानी का अभाव होता है । बुद्धि मूल सूक्ष्म घटक ‘सत्वगुण’ का कार्य है, जो हमारा आध्यात्मिक स्तर बढाने में सहायक होती है । इसलिए मनोरोगी का आध्यात्मिक स्तर सामान्य मनुष्य की तुलना में अल्प होता है ।
६. वर्तमान विश्व की जनसंख्या का आध्यात्मिक स्तरानुसार वर्गीकरण
हमने आध्यात्मिक शोधपद्धति की सहायता से इ.स.२०१३ में विश्व की ७१० करोड जनसंख्या का आध्यात्मिक स्तरानुसार वर्गीकरण किया ।
इ.स.२०१३ में विश्व की जनसंख्या का आध्यात्मिक स्तर
आध्यात्मिक स्तर | विश्व की जनसंख्या (प्रतिशत की मात्रामें) | कुल जनसंख्या (१) |
---|---|---|
२०-२९% | ६३% | ४४६ करोड |
३०-३९% | ३३% | २३४ करोड |
४०-४९% | ४% | २८.३ करोड |
५०-५९% | नगण्य | १५, ००० |
६०-६९% | नगण्य | ५, ००० |
७०-७९%२ | नगण्य | १०० |
८०-८९% | नगण्य | २० |
९०-१००% | नगण्य | १० |
१. १८ मई २०१३ के census.gov के अनुसार विश्व की जनगणना पर आधारित – ७०८.६ करोड
२. ७०% और उससे अधिक आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति को संत कहते हैं ।
स्रोत : स्पिरिच्युअल साइंस रिसर्च फाऊंडेशनद्वारा संचालित आध्यात्मिक शोध के अनुसार
उपर्युक्त सारणी से ज्ञात होता है कि वर्तमान में विश्व की अधिकतर जनता का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत से २९ प्रतिशत के बीच है । आज विश्व अनेक समस्याओं से ग्रस्त है । ये समस्याएं विविध प्रकार की हैं, जैसे व्यक्गित समस्याएं – व्यसनाधीनता, वैवाहिक मतभेद तथा सामाजिक समस्याएं – राष्ट्रीय एवं सामाजिक समस्याएं, उदा.सांप्रदायिक हिंसा, युद्ध, प्राकृतिक आपदाएं । विश्व की यह वर्तमान स्थिति मुख्यतः इस कारण है कि अधिकतर जनता एवं उनके नेताओं का आध्यात्मिक स्तर बहुत ही न्यून है । अर्थात विश्व की इस वर्तमान स्थिति में भी सुधार होगा, जब मनुष्यजाति का औसत आध्यात्मिक स्तर ऊंचा होगा । यह तब हो सकता है जब लोग नियमितरूप से साधना करेंगे ।