सामान्यत: जब कोई किसी से प्रेम करता है तो उस प्रेम से कोई अपेक्षा जुडी रहती है । किन्तु आध्यात्मिक प्रीति बिना किसी निर्बन्ध के रहती है, चाहे परिस्थिति कुछ भी हो । प्रेम का यह दैवी रूप लंबे समय तक साधना करने के उपरांत तब उत्पन्न होता है जब प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर की अनुभूति होती है । साथ ही, जब हमारे प्रेम में न्यूनता अथवा अपेक्षा नहीं रहती तब हमें अधिक सुखी होते हैं ।
ऊपर की आकृति यह दर्शाती है कि भौतिक प्रेम, अर्थात् अपेक्षा सहित प्रेम दूसरा व्यक्ति के स्वभाव से साधर्म्य पर आधारित है । किन्तु यह निश्चिति नहीं है कि हमारे स्वभाव के सभी अंग दूसरा व्यक्ति के स्वभाव के समान अथवा स्वभाव के लिए पूरक हों । जब भेद ध्यान में आता है तब संघर्ष एवं क्लेश होने लगता है ।
दूसरी ओर निरपेक्ष प्रेम निर्विकार आत्मा पर आधारित है । यह उसी के समान है जैसे धागा गले के हार में किसी भी आकृति, रंग, अथवा आकार के मणियों कोे पिरोता है – बाह्य स्वरूपका कोई महत्त्व नहीं है । प्रत्येक मणि का छेद हमारी आत्मा जैसा है, जो हम सभी में एक- सा है अर्थात् एक व्यक्ति में विद्यमान ईश्वर दूसरे व्यक्ति में विद्यमान ईश्वर से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं है ।