पू. भावना शिंदेजी द्वारा संतपद प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा
जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करते हुए, पू. भावना शिंदेजी संतपद तक पहुंचने हेतु अपनी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में निरंतर प्रयत्नरत रही । यह उनकी अद्वितीय आध्यात्मिक यात्रा है; जो कुछ इस प्रकार की है कि जिससे सभी साधक सीख सकते हैं.
हमरा सुझाव है कि इस लेख को अच्छे से समझने हेतु आप नीचे दिए गए लेखों से परिचित हो जाएं :
विषय सूची
- पू. भावना शिंदेजी द्वारा संतपद प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा
- १. एक संत की आध्यात्मिक यात्रा की प्रस्तावना
- २. पू. भावना शिंदेजी का बचपन
- ३. उनकी किशोरावस्था में हुआ परिवर्तन
- ४. अमेरिका में नवयुवावस्था
- ५. पू. भावना शिंदेजी के अध्यात्म की खोज का प्रारम्भ
- ६. ईश्वर की ओर अपने मार्ग की खोज
- ७. साधना का प्रारम्भ
- ८. भारत के गोवा स्थित अध्यात्म शोध केंद्र और आश्रम की प्रथम यात्रा और परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी से भेंट
- ९. साधना में वृद्धि होना
- १०. आध्यात्मिक कष्ट का भान होना
- ११. समष्टि साधना पर अधिक ध्यान देना
- १२. साधना में तीव्र प्रयास करने के कारण शीघ्र उन्नति होना
- १३. सभी परिस्थितियों में ईश्वर पर ध्यान केंद्रित रखना
- १४. आगे की आध्यात्मिक उन्नति हेतु अहं के प्रकटीकरण पर ध्यान देना
- १५. अपेक्षाओं को दूर करने और अंतर्मुखता बढाने के उनके प्रयास
- १६. संतपद प्राप्त करना
- १७. उनके वर्तमान उत्तरदायित्त्व
- १८. निष्कर्ष
१. एक संत की आध्यात्मिक यात्रा की प्रस्तावना
आध्यात्मिक रूप से प्रगति कर संतपद प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है, उस पर यदि साधक
तीव्र आध्यात्मिक कष्ट, प्रतिकूल प्रारब्ध और जीवन की अन्य अनेक चुनौतियों से पीडित हो, तो यह दुर्लभतम है ।
ऐसा ही एक उदाहरण है पूज्य भावना शिंदेजी का ।
पूज्य भावना शिंदेजी की आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में जो वास्तविक रूप से उल्लेखनीय है, वह है उनकी दृढता/लगन, तीव्र तडप तथा हार न मानने की प्रवृत्ति, जहां उन्होंने अंततः संतपद प्राप्त करने हेतु साहस और लगन के साथ सभी कठिनाइयों का सामना किया ।
प्रत्येक संत की आध्यात्मिक यात्रा अद्वितीय होती है तथा साधक उनसे अपार प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि किसी भी साधक के लिए यह समझना कठिन है कि ईश्वर के निकट कैसे जाते हैं अथवा कैसे उनका प्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं; क्योंकि हम ईश्वर को देख नहीं सकते । हममें से कुछ ही के पास वैश्विक मन एवं बुद्धि को देखने की जागृत छठी इंद्रिय होती है । इसके साथ ही, सूक्ष्म जगत व्यापक है और इस जगत से अनिष्ट शक्तियां प्रायः साधक के सामने बाधाएं निर्माण करती है तथा उन्हें भ्रमित करती है । जिन साधकोंकी आध्यात्मिक उन्नति हुई है तथा जिन्होंने कठिनाइयों का सामना करते हुए संतपद को प्राप्त किया है, ऐसे साधकों से सीखना, यह आज के समय में किसी भी साधक के लिए आध्यात्मिक उन्नति कैसे होती है, इस पर अमूल्य अंतर्दृष्टि प्रस्तुत करता है । संतों के कार्य, विचार, दृष्टिकोण, व्यवहार एवं जीवन यात्राएं यह सभी पहलू हम साधकों के लिए, आध्यात्मिक उन्नति होने हेतु कैसे प्रयास करने है, इस पर मार्गदर्शन करते हैं ।
अध्यात्म में, स्वयं के बल पर तथा अपने निर्णयों के आधार पर आध्यात्मिक उन्नति करना अत्यंत कठिन होता है । ऐसा विशेष रूप से वर्तमान युग (कलियुग) के संदर्भ में है । हमें निरंतर आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है । क्योंकि संत स्वयं उस मार्ग से चले होते हैं, इसलिए बाधाओं को कैसे दूर करते हैं तथा कैसे प्रयास करते हैं, इसके बारे में वे हमारा व्यावहारिक रूप से मार्गदर्शन कर सकते हैं । एसएसआरएफ द्वारा संतों की आध्यात्मिक यात्राएं प्रकाशित करने का कारण यह है कि इससे हम उनके प्रयासों से सीख सकें और उन्हें अपने जीवन में उतार सकें ।
परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी के शब्दों में,
“इस लेख का वास्तविक लाभ तभी प्राप्त किया जा सकता है जब हम संत के प्रयासों एवं गुणों (जैसे पू. भावना शिंदेजी की आध्यात्मिक यात्रा) से सीखकर प्रेरणा प्राप्त करें और साधना के प्रयास करें । उन्हें इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पडा, जिससे उनमें दूसरों को समझने की क्षमता निर्माण होने में सहायता प्राप्त हुई । इस प्रकार, वे विभिन्न प्रकार के लोगों की समस्याओं को समझ सकती हैं और उन्हें उनकी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में मार्गदर्शन कर सकती हैं ।”
२. पू. भावना शिंदेजी का बचपन
पू. भावना शिंदेजी का जन्म ३ मई १९७२ में भारत के मुंबई में हुआ । उनमें बाल्यवस्था से ही अध्यात्म की ओर प्रबल झुकाव था । २ से ४ वर्ष की आयु से, वे पश्चिम भारत में स्थित एक शहर सोलापुर में अपनी दादीजी एवं दादाजी के साथ रहती थी । उनकी दादीजी प्रतिदिन देवताओं की विधिवत पूजा करती थीं और पू. भावना शिंदे उन्हें अति उत्सुकता से देखती थीं । यद्यपि वे आयु में बहुत ही छोटी थी, तो भी वे प्रतिदिन प्रातःकाल ४ बजे उठती, स्नान करती और फिर अपनी दादीजी को पूजा की एक विधि/कृति के रूप में देवताओं को चढाने हेतु पुष्प लाने में सहायता करती थी । कुछ समय पश्चात, पू. भावना शिंदेजी की दादीजी ने उन्हें वेदी को स्वच्छ करने और पुष्प चढाने की सेवा दी, जबकि उनकी दादीजी अगरबत्ती घुमाती । इतनी छोटी आयु में भी, पू. भावना शिंदेजी पूजन विधि में भाग लेने के समय अनुभव हुए आनंद को स्मरण करती हैं ।
तीन वेर्ष की आयु में अपने माता पिता एवं भाई के साथ पू. भावना शिंदेजी
४ वर्ष की आयु से अपने माता-पिता के घर जाने के पश्चात भी उन्होंने देवताओं की पूजा विधि करना जारी रखा, यद्यपि किसी ने उन्हें ऐसा करने को नहीं कहा था । कभी कभी तो वे पूजा में इतना लीन हो जाती थी कि उन्हें उसमें २ घंटे तक लग जाते थे ।
१० वर्ष की आयु में पू. भावना शिंदेजी
पू. भावना शिंदे की माताजी मानसिक समस्याओं से पीडित थी । उपरांत, एक संत ने इसका यह निदान बताया कि उनकी मनोवैज्ञानिक समस्याएं वास्तव में उन पर किए जा रहे काले जादू के कारण थीं । किंतु, उस समय मानसिक रोग से जुडे सामाजिक कलंक के कारण उनके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पडा । विद्यालयमें भी उन्हें चिढाया जाता था । परिणामस्वरूप, पू. भावना शिंदेजी जिस वातावरण में पली-बढीं, वह बहुत कठिन था । अपनी मां की व्यथा और उससे जुडे सामाजिक कलंक के कारण, उनका बचपन सामान्य नहीं था । परिवार के सामने आनेवाली कठिनाइयों का एक उदाहरण यह था कि उनकी मां की नौकरी चली गई और वे (पू. भवना शिंदे की मां) अपनी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के परिणामस्वरूप आगामी १० वर्षों की लंबी अवधि तक चिकित्सालय में भर्ती रही । पू. भावना शिंदेजी को स्वयं पूरे एक वर्ष तक विद्यालय से दूर रहना पडा; क्योंकि उनका परिवार उस स्थिति को सुधारने हेतु संघर्ष कर रहा था । ऐसा होते हुए भी, वे शांत थी और अपनी बाल्यावस्था में आनंद अनुभव करती थी । वे सहज रूप से यह समझ गई कि यही उनकी वास्तविक स्थिति है, जो बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती । वे एक होनहार बालिका थी और विद्यालय में उनका प्रदर्शन अच्छा रहता था । वे शिष्टाचारी और अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी थी । यद्यपि, ऐसी कठिन परिस्थितियों के उपरांत भी, वे अपनी मां को उनकी नम्रता और अपने पिता को उनकी आंतरिक शक्ति के लिए स्मरण करती हैं, जिसने परिवार को एक साथ रखने में सहायता की । वे अपने ऐसे माता-पिता और भाई के प्रति कृतज्ञ हैं जिन्होंने त्याग और प्रेमपूर्ण स्वभाव का उदाहरण दिया, तथा प्रत्येक चरण पर उन्होंने एक-दूसरे का साथ दिया ।
३. उनकी किशोरावस्था में हुआ परिवर्तन
जब पू. भावना शिंदेजी १६ वर्ष की थीं, तब उन्हें अपने व्यक्तित्व में अचानक परिवर्तन अनुभव होने लगा । उनमें भौतिकवादी लक्ष्यों को पूर्ण करने हेतु जूनून सवार हो गया । साथियों के दबाव के कारण, उनमें विद्यालय में अच्छा प्रदर्शन करने, अमेरिका जाने और वहां अपना करियर बनाने की तीव्र इच्छा निर्माण हुई । वे अपने विद्यालय में लोकप्रिय युवाओं के जैसे बनने में रुचि रखती और उनके जैसा ही दिखना और व्यवहार करना चाहती । फैशन और अपने रंग-रूप में उनकी रुचि थी ।
१८ वर्ष की आयु में पू. भावना शिंदेजी
एक और समस्या जो आरम्भ होने लगी वह यह थी कि उन्हें तीव्र क्रोध आने लगा । क्रोध बहुत तीव्र होता था, और पू. भावना शिंदे ने बताया कि उस समय ‘क्रोध में अंधे हो जानाधा रोष’ यह वाक्यांश उन्हें समझ में आया क्योंकि जब वे अत्यधिक क्रोध में होती, तो इतनी अधिक क्रोधित हो जाती कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता – और इसकी तीव्रता इतनी अधिक होती कि उनके सामने अंधकार सा छा जाता था । पूर्व की घटनाओं का स्मरण करते हुए पू. भावना शिंदे ने बताया कि वे कल्पना भी नहीं कर सकती कि उनके क्रोध के कारण उनके प्रियजनों को कितनी पीडा हुई होगी । जिस प्रकार उनकी बाल्यावस्था आनंद और प्रसन्नता से भरी थी, उसी तरह उनकी किशोरावस्था क्रोध, अवसाद और अंधकार से भरी थी । कुछ अवसाद उनकी बदलती शैक्षणिक संस्थाओं के कारण था । नई संस्था में, उन्होंने यह देखा कि लोग उनसे अलग रहते थे और उन्होंने स्वयं को अपनेपन की भावना की खोज करते पाया । परिणामस्वरूप उनमें अकेलेपन की भावना तथा निराशा उत्पन्न हुई ।
२२ वर्ष की आयु में पू. भावना शिंदेजी
४. अमेरिका में नवयुवावस्था
पू. भावना शिंदे की महत्वाकांक्षा उन्हें अमरीका ले आई । मुंबई विश्वविद्यालय से कंप्यूटर इंजीनियरिंग में, अपनी बी. एस. करने के उपरांत वे मियामी विश्वविद्यालय से बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में अपनी मास्टर डिग्री पूर्ण करने चली गई और १९९७ में स्नातक की उपाधि प्राप्त की
मियामी में १९९५ की शरद ऋतु के समय अपनी एमबीए की छात्रवृत्ति के साथ
अपनी स्वाभाविक बुद्धि और परिश्रमी स्वभाव के कारण, पू. भावना शिंदे ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया । एक समय पर, उनके पास ८ प्रशिक्षण (इंटर्नशिप) प्रस्ताव थे, जिसे यह देखते हुए कि १ अथवा २ प्रस्ताव प्राप्त होना सफल माना जाता था, वह उल्लेखनीय था ।
१९९६ की गर्मी, मियामी में प्रशिक्षण (इंटर्नशिप) के समय
उनके पास वह सब कुछ था जो वे चाहती थी, किंतु एक घटना (जिसका वर्णन नीचे किया गया है) से उन्हें यह अनुभव हुआ कि उन्होंने उस आनंद को खो दिया है जो बाह्य परिस्थितियों से परे था तथा जिसे उन्होंने अपने बचपन में अनुभव किया था ।
५. पू. भावना शिंदेजी के अध्यात्म की खोज का प्रारम्भ
मियामी विश्विद्यालय में १९९६ की ग्रीष्मऋतु में पू. भावना शिंदेजी
१९९६ की ग्तुष्मऋतू (गर्मी) में, जब पू. भावना शिंदे मियामी विश्वविद्यालय में थी, तब वहां पर उनकी अपने होनेवाले पति से भेंट हुई । वे उत्सुकता से उनके कॉल की प्रतीक्षा करती थी । जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्हें लगने लगा कि यदि वे उन्हें फोन नहीं करते, तो वे बहुत परेशान हो जाती थी, तथा उनका फोन आने पर वे बहुत प्रसन्न हो जाती थी । केवल एक कॉल प्राप्त करने पर आधारित इस सुख और दुख के बीच के ये उतार चढाव उनके बचपन के समय की उस मनःस्थिति से पूर्णतया विपरीत थे, जहां वे अपने परिवार और स्वयं द्वारा अत्यधिक कठिन समय का सामना करने के उपरांत भी निरंतर आनंदावस्था में रहती थी । उन्होंने बताया कि परिस्थितियां कैसे बदल गई थीं । अब, इसके विपरीत, उनके पास भले ही वह सब कुछ था जिसका वे अपनी किशोरावस्था से सपना देख रही थी, किंतु वे मात्र एक फोन कॉल न मिलने पर दुखी हो जाती थी ।
इस बात का पू. भावना शिंदेजी पर गहरा प्रभाव पडा और उन्हें लगने लगा कि उनके जीवन में कुछ तो कमी है । उन्होंने उन संतों की कहानियों का स्मरण किया जिनके उन्होंने बचपन में चलचित्र देखें थे । उन्हें स्मरण हुआ कि कैसे संत तुकाराम को समाज में लगातार सताया जाता था, किंतु वे सदैव आनंदावस्था में रहते थे और मुस्कुराते हुए तथा ईश्वर की भक्ति के साथ सब कार्य करते थे । पू. भावना शिंदेजी ने अनुभव किया कि वे भी ऐसा बनना चाहती हैं और निरंतर आनंद में और ईश्वर और मानवता की सेवा में रहना चाहती हैं । इस प्रसंग से पू. भावना शिंदेजी की आध्यात्मिक खोज का प्रारम्भ हुआ ।
उत्तर खोजने हेतु, पू भावना शिंदे एक गिरिजाघर (चर्च) में जाने लगी और १९९६ की गर्मियों से दिसंबर १९९८ तक उन्होंने प्रतिदिन २ घंटे बाइबल के नए विधान का लगनपूर्वक अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया । वे २ घंटे तक १-२ पृष्ठों का गहराई से अध्ययन करती थी तथा उस अध्ययन के विषय में प्रायः उनके मन में प्रश्न रहते थे । उन्हें बाइबल अध्ययन समूहों में सहभाग लेनेवालों की श्रद्धा/भक्ति वास्तव में अच्छी लगी, किंतु जब उन्होंने अपने प्रश्न पूछे, तो उन्होंने पाया कि उनके उत्तरों से उन्हें संतोष प्राप्त नहीं हुआ ।
६. ईश्वर की ओर अपने मार्ग की खोज
१९९८ में पू. भावना शिंदेजी का विवाह हुआ । विवाह होने के उपरांत, पू. भावना शिंदेजी एटलांटा चली गई । बाद में उस वर्ष, उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने अफोलाबी रखा । जब वे अपने बच्चे के जन्म के लिए अस्पताल में थीं, तो बालक का जन्म होने के उपरांत जो नर्स उनकी देखभाल करने आई थीं, वे एसएसआएफ जालस्थल के संपादक श्री शॉन क्लार्क की बहन श्रीमती शेरोन सिकेरा थीं । बाद में शेरोन ने बताया कि उनसे यह पूछा गया था कि क्या वे पू. भावना शिंदेजी की देखभाल के लिए रहना चाहती है अथवा दोपहर के भोजन के लिए जाना चाहती है । जब शेरोन ने पू. भावना शिंदेजी का नाम देखा, तो उन्हें अनुभव हुआ कि ईश्वर ने उन्हें यह बताया है कि इस व्यक्ति में आध्यात्मिक क्षमता है । इसलिए, शेरोन ने उनकी देखभाल करने हेतु अपने दोपहर के भोजन का अवकाश स्थगित कर दिया । जब शेरोन ने पू. भावना शिंदेजी के शिशु को देखा तो उन्हें भान हुआ कि ऐसे ही बालक को उन्होंने कुछ दिन पूर्व स्वप्न में देखा था । फलस्वरूप, शेरोन ने दोपहर का भोजन नहीं किया और पू. भावना शिंदे के पास रुक गई । उस समय के दौरान, उनमें केवल अध्यात्म के विषय पर चर्चा हुई । शेरोन ने पू. भावना शिंदेजी को सत्संग में आने का निमंत्रण दिया जिसे परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी की शिक्षाओं पर अटलांटा में आयोजित किया जा रहा था ।
प्रारम्भ में, पू. भावना शिंदेजी शेरोन की सलाह मानने अथवा सत्संगों में भाग लेने के लिए अनिच्छुक थी । ऐसा इसलिए क्योंकि शेरोन को भारत में पहले एक मॉडल के रूप में जाना जाता था, और उस समय, पू. भावना शिंदेजी को लगा कि मनोरंजन उद्योग की पृष्ठभूमि वाला कोई व्यक्ति अध्यात्म के बारे में उनका मार्गदर्शन नहीं कर सकता । किंतु, कुछ माह पश्चात एक घटना ने उनका दृष्टिकोण बदल दिया ।
पू. भावना शिंदेजी संत रामकृष्ण परमहंस की जीवनी पढ रही थी । उन्होंने पढा कि कैसे वे ईश्वर के लिए इतना अधिक लालायित थे कि एक समय वे ईश्वर के दर्शन पाने हेतु तरसने लगे थे । इस बात ने पू. भावना शिंदे को यह सोचने पर विवश कर दिया कि वे ईश्वर को पाने के लिए क्या कर रही है । तब, उन्हें स्मरण हुआ कि कैसे शेरोन ने उन्हें सत्संग में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया था । इसलिए, उन्होंने शेरोन से बात की और दिसंबर १९९८ में अपने पहले सत्संग में भाग लिया ।
दिसम्बर १९९८, अटलांटा में अपने प्रथम सत्संग में भाग लेने तथा परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी द्वारा संकलित अध्यात्म संबंधी ग्रंथ को खरीदने के उपरांत पू. भावना शिंदेजी
वहां उन्होंने बाइबल के बारे में अपने उन प्रश्नों को पूछा, जिनका उन्हें पहले संतोषजनक उत्तर नहीं मिला था । किंतु इस बार, शेरोन से उन्हें वे उत्तर प्राप्त हुए जिनकी उन्हें खोज थी । वास्तव में, शेरोन ने पू. भावना शिंदेजी को इतने संतोषजनक तरीके से उत्तर दिए कि पू. भावना शिंदे को यह अनुभव हुआ कि यह उनकी आध्यात्मिक खोज का अंत और उनकी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) का प्रारम्भ था ।
७. साधना का प्रारम्भ
पू. भावना शिंदेजी ने अपने शब्दों में बताया, “सत्संग में भाग लेने से, मुझे अपनी साधना में दिशा मिली । मुझे समझ आया कि मुझे परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी द्वारा लिखित ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए । यद्यपि उस समय एसएसआरएफ का कोई जालस्थल नहीं था, इसलिए हमारे पास उनकी शिक्षाओं का अध्ययन करने के लिए केवल यही ग्रंथ थे । वहां ५ ग्रंथ उपलब्ध थे, और मैंने यथासंभव निष्ठा के साथ उनका अध्ययन किया ।
– मुझे अनुभव हुआ कि ‘इंट्रोडक्शन टू स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म की प्रस्तावना)’ यह ग्रंथ अध्यात्म के व्याकरण के समान है । ऐसा इसलिए क्योंकि इसे पढने के उपरांत हमें अध्यात्म की भाषा समझ में आ सकती है ।
– ‘गुरुकृपायोग’ इस ग्रंथ ने मुझे सिखाया कि हमें गुरु की खोज में नहीं जाना चाहिए, तथा जब शिष्य पात्र होता है तब गुरु स्वयं ही शिष्य के जीवन में आ जाते हैं ।
– प. पू. भक्तराज महाराज की सीख इस पवित्र ग्रंथ में कहा गया है कि नामजप गुरु का निर्गुण रूप है, इसलिए मैंने ईश्वर के नामजप को अपना आध्यात्मिक गुरु माना ।
इस प्रकार की शिक्षा के कारण, मैंने जिन सत्संगों में भाग लिया, वे मेरे लिए अमूल्य रहे और मैंने एक भी सत्संग नहीं छोडा ।”
यद्यपि पू. भावना शिंदेजी की आध्यात्मिक यात्रा (साधना) ने गति प्राप्त करना आरम्भ किया था, किंतु उनके वैवाहिक जीवन में बाधाएं आ गई । उनके पति उन्हें बार-बार पीटते थे । एक दिन उन्हें शाम में सत्संग में सम्मिलित होना था । इससे पहले, उनके पति ने उन्हें पीटना आरम्भ कर दिया। इस बार, उन्होंने देखा कि अब बात बहुत आगे बढ चुकी है और उन्होंने पुलिस को बुला लिया । पुलिस ने पति को हिरासत में ले लिया । उस दिन की समस्याओं और भावनात्मक मानसिक अशांति के उपरांत भी, उस शाम को बाद में, उन्होंने नियोजन के अनुसार सत्संग में भाग लिया । यह सत्संग में भाग लेने और अपनी साधना में निरंतर प्रयत्नरत (दृढ) रहने के पू. भावना शिंदेजी के दृढ संकल्प को दर्शाता है ।
८. भारत के गोवा स्थित अध्यात्म शोध केंद्र और आश्रम की प्रथम यात्रा और परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी से भेंट
वर्ष २००० में पू. भावना शिंदे (दाएं) संत भक्तराज महाराज के कांदळी आश्रम में डॉ (श्रीमती) रश्मि नल्लादरू (बाएं) और संत भक्तराज महाराजजी की बहू (मध्य में) के साथ
जुलाई 2000 में, पू. भावना शिंदे ने ५ सप्ताह के लिए कार्य से छुट्टी ली और भारत के गोवा स्थित अध्यात्म शोध केंद्र और आश्रम आने का निर्णय लिया । प्रथम ४ सप्ताह के लिए, परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने उन्हें डॉ (श्रीमती) रश्मि नल्लादरू के साथ साधना के विभिन्न मार्गों से साधना करनेवाले कई अलग अलग संतों से भेंट करने हेतु जाने के लिए कहा । वे उन्हें संतों का संसार (संगत), आध्यात्मिक स्पंदन और वास्तव में अध्यात्म क्या है, इसके बारे में परिचित कराना चाहते थे । विभिन्न संतों से भेंट-यात्राओं के दौरान, पू. भावना शिंदे ने अनुभव किया कि सभी सच्चे संत भीतर से एक समान होते हैं । विभिन्न संतों से मिलते समय वे सूक्ष्म प्रयोग करती थीं । उन्होंने विभिन्न संतों से उन्हें अनुभव होनेवाली सकारात्मक शक्ति को अनुभव करने का प्रयास किया; क्योंकि विभिन्न संतों से विभिन्न आध्यात्मिक स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं । उदाहरण के लिए, कुछ प्रकरणों में, उन्हें दैवी शक्ति अनुभव होती, तो कुछ प्रकरणों में आनंद तथा कुछ से शांति का अनुभव होता । सभी संतों ने परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी की बहुत प्रशंसा की । परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी की कृपा से उन्हें वास्तविक आध्यात्मिक जगत क्या है, इसका भान होने लगा । उनके लिए यह जगत अद्भुत था और उनकी कल्पना से कहीं अधिक परे था । वे इसके आश्चर्य में अधिक और अधिक लीन होती गई ।
परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी के साथ पू. भावना शिंदेजी का पहला सत्संग
इससे पहले पू. भावना शिंदेजी को अपने जीवन में, एक बार गणेश भगवान के दर्शन हुए थे । वह पुनः इस दर्शन को पाने के लिए लालायित हो रही थी । वे ईश्वर से याचना करती, ‘आप मुझे अपना दर्शन पुनः क्यों नहीं देते ? मैं आपसे कोई धन अथवा कोई भौतिकवादी वस्तुएं नहीं मांग रही हूं । आप अनंत हैं । तो भी, आप मुझे पुनः अपना दर्शन क्यों नहीं देते भगवान ?’
जब परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी से उनकी भेंट हुई, तब उन्होंने उनसे (पू भावना शिंदे) पूछा, “मैंने सुना है कि आप ईश्वर से मिलना चाहती हैं । तो ईश्वर से मिलने पर, आप क्या करेंगी ?”
पू. भावना शिंदे ने अधिक कुछ नहीं कहा । तब, परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने केवल एक शब्द कहा, “कृतज्ञता” ।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, वे इस घटना के विषय में भूल गई, किंतु पश्चात में दिसंबर २००२ में, १.५ वर्ष उपरांत, अचानक उन्हें यह समझ में आया कि जब उन्होंने (परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने) उन्हें कृतज्ञ रहने के लिए कहा तो उसका क्या अर्थ था । वे उन्हें इस हेतु आत्मनिरीक्षण करने में सहायता करना चाहते थे कि ईश्वर से अधिक मांगने से पूर्व क्या उन्हें ईश्वर के जो पहले दर्शन हुए थे, उसके लिए उनमें कृतज्ञता थी । यह अनुभव पू. भावना शिंदे के लिए अपने भाव जागृति के प्रयास करने (बढाने) हेतु रक बना । इन प्रयासों के एक अंश के रूप में, उन्होंने प्रत्येक वस्तु के लिए ईश्वर को कृतज्ञता व्यक्त करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अनुभव किया कि किसी के जीवन में गुरु की उपस्थिति बहुत सूक्ष्म है किंतु वे सर्वव्यापी होते हैं । भारत की वह यात्रा और परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी से भेंट उनके जीवन में एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ । इसने उनका जीवन परिवर्तित कर दिया ।
९. साधना में वृद्धि होना
जब पू. भावना शिंदेजी का पुत्र अफोलाबी ५ वर्ष का था, तब वे अपने पूर्व पति (२००४) से अलग हो गई थी । पू. भावना शिंदेजी और अफोलाबी ने साथ मिलकर साधना की । अकेली मां होना, स्वयं के और अपने पुत्र दोनों के लिए कमाना और साथ ही साधना करना चुनौतीपूर्ण था, किंतु पू. भावना शिंदेजी एकाग्रचित्त होकर प्रयत्नशील रही ।
इस बार, साधकों को स्वभावदोष निर्मूलन (पीडीआर) प्रक्रिया बताई गई थी । पू. भावना शिंदेजी के लिए यह प्रक्रिया पूर्ण रूप से नई नहीं थीं, क्योंकि उन्हें पूर्व में भी उनकी साधना में क्रोध के लिए एक स्वसूचना बताई गई थी । जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि पू. भावना शिंदेजी का क्रोध इतना तीव्र था कि क्रोधित होने पर उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता था । इसलिए, नामजप के साथ, साधना आरम्भ करने पर उन्हें क्रोध के लिए एक स्वसूचना बताई गई थी । वह स्वसूचना इस प्रकार थी :
‘जब मुझे क्रोध आना आरम्भ होगा, तब मुझे इसका भान होगा और यह ध्यान में आएगा कि हर लडाई लडने लायक नहीं होती । इसलिए, मैं शांत रहूंगी और नामजप करना आरम्भ कर दूंगी ।’
पू. भावना शिंदे ने अपना क्रोध दूर करने के लिए कई उपाय किए जैसे गिनती करना, परिस्थिति को जाने देने का प्रयास करना, दयालु होना इत्यादि, किंतु कुछ भी काम नहीं आया । उन्होंने बताया कि, “इस स्वसूचना को देने के उपरांत, एक प्रसंग था जहां मैं क्रोध में द्वार (दरवाजा) पीटना चाहती थी । किंतु, जैसे ही मैं ऐसा करनेवाली थी, मेरे मस्तिष्क में स्वसूचना के शब्द सुनाई देने लगे और पहली बार मुझे अपने क्रोध का भान हुआ । तब, मैंने अनुभव किया कि हर लडाई लडने लायक नहीं होती है और जैसा कि स्वसूचना में बताया गया था, मैंने नामजप करना आरम्भ कर दिया । तब से, मैंने पुनः कभी क्रोध में दरवाजा नहीं पीटा । अगले कुछ माह में, मेरे क्रोध की तीव्रता औसत से कम होने तक न्यून होती चली गई ।” यह उनकी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में एक और मील का पत्थर सिद्ध हुआ था । पू. भावना शिंदेजी ने स्वसूचनाओं के साथ अपनी प्रारंभिक सफलता से प्रेरणा ली और स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया पर पूरी लगन से ध्यान केंद्रित किया । वे एक दिन में १० चूकें अवश्य (निश्चित रूप से) लिखती और स्वसूचनाएं लगन से देती थी ।
पू. भावना शिंदेजी ने अपने भाव जागृति के प्रयास भी गंभीरता से किए । जिस समय उन्होंने ये प्रयास आरम्भ किए, तब भाव जागृति कैसे करें इस विषय में कोई ग्रंथ नहीं था, और केवल उन्हें प्रत्येक १० मिनट में रुकने और भाव जागृति के प्रयास करने का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था । चूंकि उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि इस संबंध में क्या प्रयास करने हैं, वे केवल १० मिनट के लिए अलार्म लगाती और प्रत्येक बार स्मरण दिलाने हेतु कृतज्ञता व्यक्त करती और ईश्वर का नामप करने का प्रयास करती । ऐसा २ घंटे करने के उपरांत, उन्हें २ दिनों तक तीव्र भावजागृति का अनुभव हुआ । यह ऐसा अनुभव था जिसे उन्होंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था । वे सडक पर वाहन चलाते समय अचानक स्वयं को ईश्वर की स्तुति में कविता के विचारों से प्रेरित हो जाती । उन्हें दिए गए मार्गदर्शन को व्यवहार में लाने के उनके प्रयासों के कारण उन्हें यह अनुभूति प्राप्त हुई ।
कुछ समय तक इस प्रकार भाव जागृति के प्रयास करने के उपरांत, पू. भावना शिंदेजी भाव अनुभव करने हेतु कुछ विशिष्ट कृतियों को करने के लिए प्रेरित होने लगी । उदाहरण के लिए, यह भाव रखना कि उनकी थाली में जो भोजन रखा है वह गुरुदेवजी का ही प्रसाद है, अथवा वस्त्रों से सलवटों की स्त्री करते समय सलवटों के रूप में दोष और अहं ही दूर कर रही है । पश्चात, जब भाव जागृति के विषय पर ग्रंथ प्रकाशित हुआ, तब उनमें से ऐसे अनेक प्रयास जिन्हें पू. भावना शिंदे भीतर से ही करने से प्रेरित हुई थी, वे वास्तव में साधक द्वारा किया जा सकने वाले प्रयासों के रूप में उस ग्रंथ में प्रकाशित हुए । अतः, उन्हें यह भान हुआ कि कैसे ईश्वर ने, मार्गदर्शन हेतु ग्रंथ न होते हुए भी उन्हें विशिष्ट प्रयासों (भाव जागृति के प्रयास) को करने के लिए भीतर से ही प्रेरित कर उनकी भाव वृद्धि होने में सहायता की ।
१०. आध्यात्मिक कष्ट का भान होना
पू. भावना शिंदेजी को आध्यात्मिक कष्ट थे, किंतु वे इसके बारे में अनभिज्ञ थी । आध्यात्मिक कष्ट मायावी हो सकते हैं । अधिकांश प्रकरणों में, जब व्यक्ति नसे तीव्रता (गंभीर रूप) से प्रभावित होता है, तो उसे पता नहीं चलता कि वह प्रभावित है । पू. भावना शिंदेजी के प्रकरण में भी ऐसा ही था । अपनी किशोरावस्था और युवावस्था के समय तीव्र क्रोध के दौरों के समय अथवा अपनी साधना के प्रारम्भ में उन्हें यह नहीं पता था कि यह कष्ट अनिष्ट शक्तियों के कारण है ।
सन् २००० के पश्चात से पू. भावना शिंदे नियमित रूप से अध्यात्म शोध केन्द्र और आश्रम आती थी और एक बार में वहां ५ सप्ताह तक रहती थी । यद्यपि उनके उत्तरदायी साधक ने पू. भावना शिंदे को आध्यात्मिक कष्ट के विषय में बताया था और उन्हें बौद्धिक रूप से यह समझ भी आया, किंतु वे उन्हें प्रभावित करनेवाले उस कष्ट की भयावहता और गंभीरता को नहीं समझ पाई थी ।
१०.१ पू. भावना शिंदेजी को प्रभावित करने वाली अनिष्ट शक्ति का पहला प्रकटीकरण
जनवरी २००६ में, वे भारत के गोवा स्थित अध्यात्म शोध केंद्र में थी । उनका आध्यात्मिक कष्ट अधिक प्रकट हो रहा था और साधक यह देखते ही उन्हें नामजप करने को कहते थे । पू. भावना शिंदेजी साधकों के ऐसा करने पर चिढती रहती थीं, किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थीं कि उन्हें ऐसा क्यों लगा । एक अवसर पर, पू. भावना शिंदे एक ऐसे प्रयोग में भाग ले रही थी जो विविध रंगीन वस्त्रों से प्रक्षेपित होनेवाले सूक्ष्म स्पंदनों को समझने हेतु आयोजित किया जा रहा था । अकस्मात, उनमें से एक वस्त्र (आध्यात्मिक रूप से सकारात्मक रंग का) गलती से पू. भावना शिंदे की गोद में गिर गया । पू. भावना शिंदे को आविष्ट करने वाली अनिष्ट शक्ति का पहली बार प्रकटीकरण हुआ, जिसने उन्हें सकारात्मक वस्त्र को बहुत बल के साथ फेंकने के लिए उकसाया था ।
उसे फेंकने के उपरांत, उन्होंने सोचा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया और धीरे-धीरे उन्हें सब कुछ समझ में आने लगा । उन्हें यह भान हुआ कि क्रोध के तीव्र आवेश, आश्रम में उन्हें अनुभव हो रहे विभिन्न लक्षण और नामजप करने के लिए बताने पर होने वाली चिडचिडाहट ये सभी आध्यात्मिक कष्ट के लक्षण थे । अब यह मात्र एक सैद्धांतिक/मानसिक/बौद्धिक समझ नहीं रह गई थी । उन्होंने अपने जीवन में आध्यात्मिक कष्ट और उसके प्रकटीकरण के विभिन्न पहलुओं को पहचानने में सक्षम हो जाने की प्रक्रिया आरम्भ की ।
उन्होंने बताया कि, “मेरे आस-पास के साधक वह देख लेते थे, जो मैं स्वयं नहीं देख सकती थी ।” उनके लिए, इस घटना ने उनपर दूसरों को सुनने के महत्व को अंकित किया ।
१०.२ परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी द्वारा पू. भावना शिंदेजी के आध्यात्मिक कष्ट दूर करने हेतु उनका मार्गदर्शन करना
उन्हें आविष्ट करने वाली अनिष्ट शक्ति के बारे में जानने के उपरांत, पू. भावना शिंदेजी ने सोचा कि वे कष्ट से लडेंगी और उन्हें प्रभावित करनेवाली अनिष्ट शक्ति को पराजित कर देंगी । इस पर, परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने कहा कि ऐसा सोचना अहं का सूचक है । सूक्ष्म मांत्रिक अत्यंत शक्तिशाली होते हैं और उन्होंने सहस्त्रों वर्षों से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने हेतु विशेष प्रकार की साधना की होती है । इसलिए, हमें यह भाव रखना चाहिए कि केवल ईश्वर ही ऐसी अनिष्ट शक्तियों से मेरी रक्षा कर सकते हैं । इसने पू. भावना को आश्रम में संतों, साधकों के पवित्र संग में रहने के तथा वहां विद्यमान अत्यधिक सकारात्मकता के महत्त्व का भान कराया, फलस्वरूप उनके लिए साधना करना और आध्यात्मिक कष्ट को दूर करना सहज हो गया । साधक द्वारा उन्हें ईश्वर का नामजप करने का स्मरण कराने पर उन्होंने उनकी बात सुनना आरम्भ कर दिया, और अमरीका लौट जाने पर भी उन्होंने गंभीरता से नामजप किया । उन्हें नामजप करने के लिए बीच बीच में समय मिल जाता, उदाहरण के लिए, ट्रेन की प्रतीक्षा करते समय । वे यह अपने ध्यान में रखती थी कि उन्होंने प्रति मिनट कितना नामजप किया और वे इसका उपयोग यह अनुमान लगाने हेतु करती थी कि उनसे कितना नामजप हुआ है । इस प्रकार, वे कार्य से घर लौटने तक ५-६ घंटे (एकाग्रता के साथ बैठकर) नामजप कर पाती थी । इस प्रकार, वे अपने लिए निर्धारित सभी आध्यात्मिक उपचारों को पूर्ण कर पाती ।
आविष्ट करने वाली अनिष्ट शक्ति पू. भावना शिंदेजी को आगे भी परेशान करती रही और उनमें आत्महत्या करने के विचार डालती थी । कभी-कभी, वे स्वयं को हानि पहुंचाने का प्रयास भी करती थी; किंतु अपनी साधना और ईश्वर की कृपा से उनकी रक्षा हुई । साधकों और संतों की सहायता से, वे अपनी साधना में दृढ रही और उन्होंने सचेत रहने के उन पहलुओं को पहचाना, जिससे ज्ञात हुआ कि कैसे उनके जीवन में अनिष्ट शक्ति का प्रकटीकरण होता था । इन पहलुओं में अधिक बोलना, स्वयं को दोहराना, उतावलेपन में कार्य करना, दूसरों से चिढ लगना, उनकी वाणी में परिवर्तन होना इत्यादि सम्मिलित थे । इन संकेतों को देखने पर, उनके आस-पास के साधक उन्हें एकाग्रता से नामजप करने और आध्यात्मिक उपचार करने का स्मरण कराते थे । वे उनकी बात सुनती और लगन से निर्धारित घंटों का पूर्ण नामजप करती ।
११. समष्टि साधना पर अधिक ध्यान देना
२००६ में, जब पू. भावना शिंदेजी अध्यात्म शोध केंद्र में थी, तब परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने साधकों को भान कराया कि वे अपनी स्वयं की आध्यात्मिक प्रगति पर ध्यान दे रही हैं तथा दूसरों की आध्यत्मि प्रगति पर नहीं दे रही । इस घटना से सही अर्थों में उनकी समष्टि साधना आरम्भ हुर्इ । इससे पूर्व, वे समष्टि साधना मुख्य रूप से इसलिए करती थीं क्योंकि वे जानती थीं कि यह उनकी स्वयं की आध्यात्मिक प्रगति के लिए लाभदायक है । किंतु अब, उनका ध्यान दूसरों को उनकी साधना में सहायता करने की ओर गया । वह यह सोचती रहती थी कि अमेरिका के लोग भी उस आध्यात्मिक ज्ञान से कैसे लाभान्वित हो सकते हैं जिससे वे स्वयं लाभान्वित हो रही थी । वे प्रत्येक अवसर पर सत्संग लेती थीं । कार्य से लौटने के पश्चात, वे और उनका पुत्र कुछ भोजन करते और फिर एक स्थानीय पुस्तकालय में जाते, जहां पू. भावना शिंदेजी सत्संग लेती और उनका पुत्र सत्संग का आयोजन करने में सहायता करता ।
जनवरी २००६ में भारत के गोवा स्थिति अध्यात्म शोध केंद्र में पू. भावना शिंदेजी अपने पुत्र अफोलाबी के साथ
अगस्त २००७ में, पू. भावना शिंदेजी को यह विचार आने लगा कि उन्होंने शिष्य होने के स्तर को पार कर लिया है, जिसका अर्थ है ५५% अथवा उससे अधिक आध्यात्मिक स्तर होना । किंतु, उन्होंने सोचा कि यह उनके अहं का प्रकटीकरण है और जब ये विचार उनके मन में आए तो उन्होंने इन विचारों को दोषों के रूप में लिखा । उन्हें लगा कि उनका आध्यात्मिक स्तर न्यून होना चाहिए, क्योंकि जब उन्होंने साधना आरम्भ की, तब उनका आध्यात्मिक स्तर उनके साथ सत्संग में भाग लेने वाले अन्य साधकों की तुलना में न्यून था ।
पश्चात २००८ में, जब वे अध्यात्म शोध केंद्र एवं आश्रम में परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी के एक सत्संग में भाग ले रही थी, तब उन्होंने पू. भावना शिंदेजी को सभी साधकों के सामने खडे होने हेतु कहा और साधकों से कहा कि उनका आध्यात्मिक स्तर क्या है । अधिकांश साधकों ने उनका आध्यात्मिक स्तर लगभग ४०% बताया । फिर, परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने बताया कि सभी साधक पू. भावना शिंदे से काला आवरण हटा हुआ न देख पाने की एक ही गलती कर रहे है और उन्होंने बताया कि उन्होंने (पू. भावना शिंदे) ६०% आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर लिया है । उन्होंने पू. भावना शिंदेजी से पूछा की उन्हें कैसा लगा । उन्होंने बताया कि उन्हें लगा कि वे (परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी) किसी और के बारे में बात कर रहे हैं, और तब परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने कहा कि इससे यह सिद्ध होता है कि वे इस आध्यात्मिक स्तर पर पहुंच गई है । पश्चात, पू. भावना शिंदे ने आत्मनिरीक्षण किया और उन्हें अनुभव हुआ कि अभी भी उनके मन में अलग-अलग विचार और प्रतिक्रियाएं हैं, यद्यपि वे पहले की तुलना में न्यून थे । उन्होंने अनुभव किया कि यदि ६०% आध्यात्मिक स्तर पर ऐसा अनुभव होता है, तो वे निश्चित रूप से १००% आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करना चाहती है ।
२०१० में परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी के साथ पू. भावना शिंदेजी
१२. साधना में तीव्र प्रयास करने के कारण शीघ्र उन्नति होना
पू. भावना शिंदेजी ने अमरीका लौटने पर एक कठोर दिनचर्या बनाई । वे सुबह ८ बजे काम पर निकल जाती थी और शाम ६:३० बजे तक घर आ जाती थी । उन्हें इस अवधि में जब भी बीच में समय मिलता तब वे ५-६ घंटे एकाग्रतापूर्वक नामजप पूर्ण करती । इस समय को वे अपने आध्यात्मिक उपचार के घंटों के रूप में मानती थी । पश्चात, रात ८:३० बजे से वे लेखों का अनुवाद करने तथा कुछ साधकोंकी साधना में उनकी सहायता करने की सत्सेवा करने करती । वे सुबह ५ बजे तक निरंतर सतसेवा करती रहती । उस समय, उन्होंने अनुभव किया कि काम से एक घंटे पहले सोने हेतु प्रयास करने का कोई अर्थ नहीं, इसलिए वे तब तक सत्सेवा करती रहती जब तक कार्य पर जाने का समय नहीं हो जाता । वे अधिकांश दिन इसी दिनचर्या का पालन करती थीं और सप्ताह में १-२ दिन के लिए ३-४ घंटे ही सोती थीं । प्रायः निद्रा के आभाव से अगले दिन कार्य करना कठिन हो जाता है । किंतु पू. भावना शिंदे को थकान जैसा कुछ भी अनुभव नहीं होता था । उन्होंने अनुभव किया कि उन्हें स्वयं को कार्यशील बनाए रखने की ऊर्जा ईश्वर से प्राप्त हो रही थी । उन्होंने एक वर्ष तक इसी प्रकार प्रयास किए और उसके उपरांत उनका आध्यात्मिक स्तर ६४% घोषित कर दिया गया, अर्थात उन्होंने एक वर्ष में ४% प्रगति की ।
१३. सभी परिस्थितियों में ईश्वर पर ध्यान केंद्रित रखना
जून २०१० में उन्होंने दूसरा विवाह किया । इस बार, उन्होंने विचार किया कि वे अब और काम नहीं करना चाहती, और इसके स्थान पर वे अपना पूरा खाली समय साधना करने हेतु समर्पित करना चाहती है । तत्पश्चात, उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ, जहां उन्हें इस बातसे कोई फर्क नहीं पडता था कि वे काम करती है अथवा नहीं । उनके लिए केवल यही मायने रखता था कि वे जितना हो सके उतना समय साधना के लिए दें । उन्होंने अनुभव किया कि उनका सबसे बडा स्वामी तो ईश्वर अथवा श्रीकृष्ण है । वे काम पर अपने उच्च अधिकारी को प्रसन्न रखने, संपर्क बढाने अथवा किसी भी प्रकार से नौकरी को स्थिर (सुरक्षित) रखने के प्रयास नहीं करती थी । उनके लिए मात्र यह महत्त्व रखता था कि जिससे ईश्वर की कृपा प्राप्त हो उन्हें वैसा ही व्यवहार करना है । वे यह सोचती थी कि ईश्वर यदि चाहते है कि उनकी नौकरी रहे, तो कोई भी उनसे वह छीन नहीं सकता और यदि वे चाहते हैं कि उनकी नौकरी चली जाएं, तो उन्हें कोई भी वहां रख नहीं सकता ।
जब उन्होंने इस दृष्टिकोण से काम किया, तो उनकी कार्य क्षमता बढ गई । वे संगणक (कंप्यूटर) प्रोग्राम लिखते समय प. पू. भक्तराज महाराज द्वारा गाए हुए भजन सुनती थीं । उन्हें अनुभव होता कि कंप्यूटर प्रोग्राम को सुधारते समय वे ध्यान लगने (समाधि) जैसी स्थिति में चली जाती थी । और पश्चात उन्हें संकलित करते समय, वे पाती कि वे त्रुटि-मुक्त (पूर्ण रूप से सही) होते । कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में ऐसा होना लगभग असाधारण बात है । उनकी क्षमता इस स्तर तक बढ गई थी कि दूसरों को जो कार्य करने में ८ घंटे का समय लगता था, उन्हें वही कार्य पूर्ण करने में मात्र १-२ घंटे ही लगते थे । इस प्रकार, उन्हें साधना करने के लिए ६-७ घंटे मिल जाते ।
इसके अतिरिक्त, चूकी उनका ध्यान दूसरों से अधिक प्रगति (प्रतियोगिता) करने पर केंद्रित नहीं था, इसलिए उनका व्यवहार एक सहयोगी जैसा था । स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया करने के कारण, चूक हो जाने पर वे दूसरों को दोष नहीं देती थी अपितु यह बताती कि वे स्वयं कहांकम पडी । लोगों (सहकर्मियों) को उनका यह व्यवहार अच्छा लगता और उनके साथ काम करना सहज लगता था । एक समय, कंपनी को नए व्यापारी को दिया जा रहा था । नए व्यापारी के कर्मचारियों द्वारा पुराने कर्मचारियों की नौकरी लेने की संभावना थी, किंतु पू. भावना शिंदेजी ने यह दृढ विश्वास रखा कि उनके स्वामी तो ईश्वर है और यह ईश्वर पर निर्भर था कि वे उनकी नौकरी रखेंगे अथवा नहीं । इस प्रकार, उन्होंने इन नए कर्मचारियों के साथ अच्छा (स्नेहपूर्वक) व्यवहार किया और उन्हें भी यह देखकर अच्छा लगा कि वे उनके लिए सहायक सिद्ध हुई थी । पू. भावना शिंदे के अधिकांश सहकर्मियों की नौकरी चली गई, जबकि उनकी नौकरी न केवल बनी (स्थिर) रही अपितु उन्हें जो भी वेतन चाहिए, यह उनसे बताने के लिए कहा गया, इस प्रकार उनके वेतन में अत्यधिक वृद्धि हुई । यह घटना नवंबर २०१२ में हुई थी ।
जनवरी २०१३ में, वे अध्यात्म शोध केंद्र एवं आश्रम आई और वहां उन्होंने अपनी नौकरी छोडने और अपना पूरा समय साधना में देने का निर्णय लिया । यद्यपि उन्हें उस दिसंबर में अपने बढे हुए वेतन का पहला चेक प्राप्त हुआ था, किंतु इसका उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति था ।
१४. आगे की आध्यात्मिक उन्नति हेतु अहं के प्रकटीकरण पर ध्यान देना
पू. भावना शिंदेजी ने २००६-२००९ तक शीघ्रता से आध्यात्मिक उन्नति की थी, किंतु उसके उपरांत उन्हें आगे की आध्यात्मिक उन्नति करने में कुछ वर्ष लग गए । इस समय में, वे अपेक्षाओं के अपने अहं के प्रकटीकरण के प्रति अधिक जागरूक हो गई । उन्होंने विस्तार से इसका अध्ययन किया और इसके प्रकट होने के सभी तरीकों को लिखा । यह सूची अनेक पृष्ठों तक चली गई । उन्हें भान हुआ कि उनमें दूसरों से, स्वयंसे, वस्तुओं से तथा ईश्वर से अपेक्षाएं थीं । उदाहरण के लिए, जब उनका संगणक (कंप्यूटर) शीघ्रता से काम नहीं करता था तो उन्हें चिडचिडापन लगता था । उन्होंने अपनी प्रत्येक अपेक्षा को पहचाना और स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया के माध्यम से निरंतर उन्हें दूर करने का प्रयास किया । वे अपने स्वसूचनाओं के सत्र में एक ऐसी घटना को लेती जहां उनमें अपेक्षाएं प्रकट होती थी और सत्रों को प्रत्येक माह बदल देती थी । वे इससे कभी नहीं थकती और उन्होंने अपनी अपेक्षाओं पर कई वर्षों तक प्रयास किया ।
एक बार (२०१० के आस पास), जब पू. भावना शिंदेजी अध्यात्म शोध केंद्र एवं आश्रम में थीं, तब वे लगातार दूसरों की चूकों को इस प्रकार बता रही थीं कि उनसे वे उन्हें दुःख पहुंचा रही थीं । उन्हें उनकी बहिर्मुखता (दूसरों दोषों पर ध्यान देना) और अपेक्षाओं से अवगत कराया गया और कहा गया कि कुछ समय तक वे दूसरों की चूकें न बताएं । आरम्भ में, उन्हें यह अनुचित लगा, किंतु आत्मनिरीक्षण करने पर, उन्हें भान हुआ कि उनकी अपेक्षाएं और बहिर्मुखता कैसे सामने आ रही थी । उन्होंने अंतर्मुखी होने तथा वे कहां पर कम पडती है इस और ध्यान देने का प्रयास किया, तथा २०१३ से २०१४ के अंत तक उनमें इस गुण की अत्यधिक वृद्धि हुई । इसके साथ ही, उनकी अपेक्षाएं बहुत सीमा तक न्यून हो गई थीं । वे अपेक्षाओं से लेकर दूसरों को समझना और अंत में स्वीकार करने के परिवर्तन को अनुभव करने में सक्षम हो गई ।
१४.१ उनके जीवन में दर्दनाक/पीडादायक घटनाएं और कष्ट की तीव्रता बढना
इसके अतिरिक्त, उस समय (जनवरी २०१३) के आसपास, उनके व्यक्तिगत जीवन में एक कठिन परिस्थिति उत्पन्न हुई, जिसके कारण अधिकांश लोग हार मान लेते है । किंतु वे स्वसूचनाओं के कारण अपेक्षाओं को मात दे रही थी तथा वे शांत रहने और अपनी साधना में दृढ रहने में सक्षम थी । उस समय, परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने उन्हें इस समस्या से बाहर निकलने तक आश्रम में रहने के लिए कहा था । तब उन्होंने अपनी नौकरी छोड दी, जिससे वे ६ माह तक अध्यात्म शोध केंद्र एवं आश्रम में रही । उनका आध्यात्मिक कष्ट शिखर पर था और उन्हें एकाग्रता के साथ ५-८ घंटे नामजप करने हेतु बताया गया था, जिसे उन्होंने निश्चयपूर्वक प्रतिदिन पूरी लगन से पूर्ण किया । ६ माह उपरांत, जब वे अमरीका के लिए रवाना हो रही थी, तब परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने उनसे कहा, “आपको प्रभावित करने वाली अनिष्ट शक्ति के साथ आपके युद्ध में एक महत्वपूर्ण मोड आ गया है, और आप ६ माह में इसका अंतर देखेंगी ।”
१४.२ बताए गए मार्गदर्शन का पालन करने तथा आगे आध्यात्मिक उन्नति करने की उनकी निष्ठावान इच्छा
अमेरिका लौटने के उपरांत, पू. भावना शिंदे स्वयं को बताए गए मार्गदर्शन का पालन कर रही थीं । उनके घर के आस-पास शराब का सेवन होता था और धमाकेदार संगीत बजता था । चूंकि उनका अपार्टमेंट बहुत छोटा था, इसलिए बहुत ऊंची आवाज आती थी । तब भी, पू. भावना शिंदेजी ने हार नहीं मानी और चाहे कुछ भी हो, उन्होंने आध्यात्मिक उपचार के लिए निर्धारित घंटों के समय को कम नहीं होने दिया । वे ईयरफोन लगाकर नामजप सुनती और अपने निर्धारित घंटों तक एकाग्रतापूर्वक नामजप पूर्ण करती थी । ६ माह के भीतर, निर्धारित घंटों के नामजप को पूर्ण करने के अपने प्रयासों के कारण, उनका आध्यात्मिक स्तर ६७% से बढकर ६९% हो गया ।
आध्यात्मिक कष्ट के साथ अपनी लडाई में, उन्होंने यह अनुभव किया कि दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं – अपने निर्धारित घंटों के नामजप को एकाग्रतापूर्वक पूर्ण करना और स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया के प्रयास करना । ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम नामजप नहीं करते है तो पर्याप्त सकारात्मक आध्यात्मिक शक्ति न होने के कारण स्वभावदोष निर्मूलन नहीं कर सकते, और स्वभावदोष निर्मूलन के बिना, मन के अस्थिर होने की प्रवृत्ति के कारण नामजप का अधिक देर तक प्रभाव नहीं रहता । साथ ही, उन्होंने यह भी अनुभव किया कि उन्हें अपने आध्यात्मिक कष्ट के पीछे नहीं छिपना है और अपने दोषों के लिए इसे बहाने के रूप में उपयोग नहीं करना है, अपितु स्वभावदोष निर्मूलन का गंभीरता से प्रयास करना है । वे इस दृष्टिकोण को बनाए रखती कि आध्यात्मिक कष्ट हमारे अपने कर्मों (अर्थात, पिछले जन्मों में किए गए अयोग्य कार्य) के कारण है और उन्होंने यह अनुभव किया, ‘मैं अपने कष्ट के लिए पूरी तरह से उत्तरदाई हूं’। कष्ट पर विजय प्राप्त करने का एक ही उपाय है कि साधना करें और स्वयं पर प्रयास करें ।
१५. अपेक्षाओं को दूर करने और अंतर्मुखता बढाने के उनके प्रयास
मैरीलैंड में अपने घर पर स्वसूचना सत्र करतीं पू. भावना शिंदेजी
प्रारंभ में पू. भावना शिंदेजी को साधकों से बहुत अपेक्षाएं थीं और साधकों द्वारा उनकी चूकें बताने पर उनमें प्रतिक्रियाएं आती थीं । उन्होंने बताया कि, “दोष बताने पर पहले मेरा ध्यान उसके बारे में क्यों, क्या, कैसे, कब इन पर जाता था – ये सभी वे अनावश्यक पहलू थे जिसने मुझे बहिर्मुखी बना दिया । तब इसके स्थान पर मैंने यह देखना आरम्भ किया कि मैं कहां कम पडी भले ही मैं केवल १०% अथवा १% गलत होती, मुझे तब भी उस पर प्रयास करना है । मैंने अनुभव किया कि दूसरों को अपना शत्रु मानने के स्थान पर, वास्तव में मेरी अपेक्षाएं ही मेरी वे वास्तविक शत्रु हैं जिनके कारण मुझे कष्ट होता है । दूसरों की परिस्थिति को समझना अपेक्षाओं पर नियंत्रण प्राप्त करने की कुंजी है । अपेक्षाओं और स्वीकार करने के बीच का सेतु परिस्थिति को समझना है । किंतु उस सेतु को पार करने के लिए अंतर्मुखता होना आवश्यक है । मैं गहन अंतर्मुखता के साथ चूकें लिखती थी और उनके बारे में मुझमें खेद निर्माण होता था । साथ ही, जब भी मैं अपनी स्वभावदोष निर्मूलन की बही में चूक लिखती थी, तब अपनी अपेक्षाओं का दूसरों पर होने वाले प्रभाव का मैं उल्लेख करती थी । इससे मुझे बोध हुआ कि मैं किस प्रकार साधकों को दुःख पहुंचा रही थी । मैं स्वसूचनाओं को अंतर्मुख होकर देती थी, क्योंकि मुझे पता था कि यदि मैं अपनी चूकों के बारे में अंतर्मुख नहीं होती, तो मेरा मन स्वसूचनाओं में दिए गए सुझावों का पालन नहीं करता ।”
१६. संतपद प्राप्त करना
सितंबर २०१४ में, पू. भावना शिंदेजी को यह विचार आने लगे कि वे संतपद प्राप्त कर चुकी हैं । आखिरी बार जब उन्हें इस तरह के विचार आए, तो वे एक शिष्य के आध्यात्मिक स्तर पर थीं । उस समय, परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने कहा कि उन्हें इन विचारों को जांचने हेतु साझा करना चाहिए था । इसलिए, पू. भावना शिंदेजी ने अपने विचार सद्गुरु सिरियाक वालेजी को बताएं, जिन्हें पू. भावना शिंदेजी को बताने के लिए यह मार्दर्शन प्राप्त हुआ था कि इस बारे में न सोचें ।
दिसंबर २०१४ में, वे अध्यात्म शोध केंद्र एवं आश्रम आई । कुछ दिनों उपरांत, ३ जनवरी २०१५ को एक आनंदमय समारोह में यह घोषित किया गया कि पू. भावना शिंदेजी ने संतपद प्राप्त कर लिया है ।
सुश्री लोला वेज़िलिक पू. भावना शिंदे का अभिनंदन करते हुए
यद्यपि पिछले कुछ माह से उनके मन में जो विचार आ रहे थे, उसके कारण यह उनके लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, किंतु परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने उनके लिए जो कुछ किया था, तो यह अवसर उनके लिए उनके प्रति अत्यधिक कृतज्ञता व्यक्त करने के रूप में आया था । उन्होंने यह अनुभव किया कि उन्होंने जितनी साधना की वह भारत के महान संतों द्वारा की गई साधना के सामने कुछ भी नहीं थी, तब भी वे ईश्वर की कृपा के कारण संतपद के स्तर तक पहुंच सकी । इस समारोह ने केवल उनकी आध्यात्मिक उन्नति की चाह की पुनः पुष्टि की और ईश्वर के साथ एकरूप होने की उनकी प्रतिबद्धता को दौहराया था ।
समारोह में पू. भावना शिंदेजी जहां उन्हें संत घोषित किया गया
पू. भावना शिंदेजी का मानना है कि संतपद तक पहुंचने के उपरांत भी यह दृष्टिकोण रखना उत्तम है कि हम साधक है, क्योंकि उस अवस्था में अत्यधिक आनंद है । दूसरों की सेवा करना एक आनंदमय अनुभव होता है और यह उन्होंने परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी से सीखा है, जो स्वयं मानवता की सेवा के अवतार हैं । अपने गुरु के प्रति इसी कृतज्ञता के साथ पू. भावना शिंदे दिन-रात साधकों की सहायता करती रहती हैं।
संतपद प्राप्त करने के उपरांत सभी साधकों को नमस्कार करते हुए पू. भावना शिंदेजी
पू. भावना शिंदेजी ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) के दौरान विभिन्न बाह्य एवं आंतरिक कठिनाइयों का सामना किया । वे हर स्थिति, चाहे वह कष्टदायक हो अथवा सुखद, उससे ढली हुई है । उन्होंने यह भी देखा कि इतने वर्षों से वे जिस आध्यात्मिक कष्ट से पीडित थी, उसने उन्हें आध्यात्मिक कष्ट से पीडित अन्य लोगों की स्थिति समझने और उनके प्रति सहानुभूति रखने में सहायता की है । परिणामस्वरूप, वे उनके आध्यात्मिक कष्ट पर विजय प्राप्त करने हेतु उनकी सहायता करने में अधिक सक्षम है । चाहे वह आध्यात्मिक कष्ट के साथ संघर्ष हो अथवा अहं के साथ, पू. भावना शिंदे उसी युद्ध का सामना करनेवाले साधकों की परिस्थिति समझ सकती हैं क्योंकि वे स्वयं उस स्थिति का सामना कर चुकी हैं और इसलिए वे उनकी समस्याओं का व्यावहारिक समाधान देने में सक्षम हैं ।
१६.१ पू. भावना शिंदे की साधना का एक प्रसंग जिसने उनमें विश्वास जगाया
परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी (दाएं) के साथ पू. भावना (बाएं)
एक ऐसी घटना जिसने वास्तव में पू. भावना शिंदेजी में उनकी साधना के समय विश्वास जगाया और वे इसे सभी के साथ साझा करना चाहती थीं ।
१९९९ में, जब उन्होंने अपनी साधना आरम्भ की, तब पू. भावना शिंदेजी अपनी मां से क्रोधित हो गईं थी तथा उनके साथ दुर्व्यवहार किया था । उस समय, शेरोन, जो उनकी मार्गदर्शक साधिका थी, उन्होंने पू. भावना शिंदे की ओर से परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी से कुछ प्रश्न पूछे । उन्होंने पूछा कि:
- यह घटना प्रारब्ध के कारण कितना प्रतिशत घटित हुआ,
- कष्ट का योगदान कितने प्रतिशत था,
- भावना शिंदे की चूक का कारण कितना प्रतिशत था,
- उनकी मां की चूक का कारण कितना प्रतिशत था और अंत में,
- क्या ऐसी चूक होने के उपरांत भी वे ईश्वर तक पहुंच सकती है?
उन्हें प्रत्युत्तर में यह बताया गया कि चूक में प्रारब्ध और कष्ट का कोई योगदान नहीं था, इसलिए यह पू. भावना शिंदे के क्रियमाण कर्म के कारण हुई थी । ८० % चूक पू. भावना शिंदे के और २० % चूक उनकी माताजी के कारण हुई थी । अंतिम प्रश्न का उत्तर बडे अक्षरों में “हां” था । यह “हां” उत्तर, कुछ ऐसा था जिसे पू. भावना शिंदे ने अपने गुरु से इस आश्वासन के रूप में लिया था कि वे अपनी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में प्रगति करेगी । कठिनाई के समय और अन्यथा भी, वे सदैव इस घटना का स्मरण करती और अपनी साधना में प्रयत्नरत रहती ।
१७. उनके वर्तमान उत्तरदायित्त्व
आध्यात्मिक कार्यशाला का संचालन करते हुए पू. भावना शिंदेजी
एक रेडियो साक्षात्कार देते हुए पू. भावना शिंदेजी
वर्तमान में, पू. भावना शिंदे विश्वभर के लोगों तथा साधकों का व्यष्टि तथा समष्टि साधना के विषय में मार्गदर्शन कर रही हैं । वे सद्गुरु सिरियाक वालेजी के साथ, विश्वभर में अध्यात्मशास्त्र शोध केंद्र की सभी गतिविधियों को देखती हैं ।
१८. निष्कर्ष
२०२० में अपने जन्मदिन के अवसर पर पू. भावना शिंदेजी
अंत में, पू. भावना शिंदे कहती है कि वे परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी के ही उन शब्दों को पुनः दोहराना चाहती है, “इस शास्त्र को समझें, अभ्यास करें तथा आनंद को अनुभव करें ।
पू. भावना शिंदे इस उपरोक्त कथन का जीवंत उदाहरण है ।