ब्रह्मांड की आयु एवं उसके चक्रों के संबंध में आध्यात्मिक शोध

१. प्रस्तावना

हमने कुछ लेखों में हमारे ब्रह्मांड की आयु तथा उसके चार युग सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग का संदर्भ दिया है । हमारे पाठकों ने हमसे कई प्रश्न पूछे, जैसे हम ब्रह्मांड को किस प्रकार परिभाषित करते हैं तथा आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से ब्रह्मांड की आयु का किस प्रकार से समाधान निकालते हैं । यह लेख उन सभी प्रश्नों के प्रत्युत्तर-स्वरूप है, इसमें हमने आध्यात्मिक शोध द्वारा प्राप्त र्इश्वरीय ज्ञान की सहायता से यह स्पष्ट किया है कि ब्रह्मांड की आयु कितनी है अर्थात यह कितना पुराना है ।

संपादकीय दल की टिप्पणी : नियम के अनुसार SSRF उन्हीं लेखों को प्रकाशित करता है जो अधिक व्यावहारिक हों, जिससे लोग सीख पाएं और अपने जीवन में सुधार कर सकें । उत्पत्ति को समझना यह अधिकांशतः सैद्धांतिक प्रयास है तथा हमारी आध्यात्मिक यात्रा में इसका व्यावहारिक महत्व नगण्य है । इसलिए, कृपया इस लेख को केवल उन लेखों का परिशिष्ट समझें जिनमें हमने ब्रह्मांड का उल्लेख किया है । ब्रह्मांड से संबंधित अन्य लेखों की अस्पष्टता दूर करने के लिए यहां हमने इस विषय के संदर्भ में कुछ प्रासंगिक बिंदु प्रस्तुत किए हैं ।

२. ब्रह्मांड की परिभाषा

SSRF की दृष्टि से ब्रह्मांड क्या है, सर्वप्रथम इसे परिभाषित करते हैं । SSRF के अनुसार पूर्ण दृश्यमान (स्थूल) तथा अदृश्य (सूक्ष्म) जगत (सम्मिलित रूप से) ब्रह्मांड है । इसमें, पृथ्वी के साथ सौर मंडल, नक्षत्र और आकाशगंगाएं, जिन्हें हम आकाश में देखते हैं, वे सभी सम्मिलित हैं । परंतु यह भी ब्रह्मांड का एक छोटा सा अंश हैं । इनके साथ-साथ इसमें, हमारे संदर्भ लेख ‘मृत्यु के उपरांत क्या होता है’ में उल्लेखित अस्तित्व के ७ नकारात्मक (निम्न) लोक (नरक) और ६ सकारात्मक लोक (उच्च्लोक) भी सम्मिलित हैं ।

३. ब्रह्मांड की आयु कितनी है

इस भाग को समझने हेतु हमें उत्पत्ति के मूलभूत आध्यात्मिक नियम से परिचित होना चाहिए । ब्रह्मांड में, ब्रह्मांड सहित सभी का सर्वप्रथम सृजन होता है, तदुपरांत कुछ काल तक उसका पोषण होता है और अंत में सब नष्ट हो जाता है । ब्रह्मांड तथा उसके घटकों की उत्पत्ति, पोषण तथा विनाश यह निरंतर प्रक्रिया अनंतकाल से चली आ रही है ।

आध्यात्मिक शोध के माध्यम से हमें यह ज्ञात हुआ है कि संपूर्ण ब्रह्मांड इस उत्पत्ति, पोषण तथा विनाश के अनेक चक्रों से गुजर चुका है । ब्रह्मांड के आंशिक विनाश को प्रलय कहते हैं और इसका विस्तृत स्पष्टीकरण हमने नीचे दिए अनुभागों में किया है ।

ब्रह्मांड की निर्मिति के पश्चात तथा उसके विनाश से पूर्व (अर्थात पोषणकाल के समय), ब्रह्मांड अनेक चक्रों से गुजरता है । इन चक्रों में से लघु चक्र में ४ युग होते हैं । वे युग हैं, सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ।

आध्यात्मिक शोध द्वारा हमें ज्ञात हुआ कि एक चक्र में प्रत्येक युग का कार्यकाल आगे दिए विवरणानुसार है :

एक चक्र में युग के अर्थ (पर्याय) में

युग वर्ष
सत्ययुग १,७२८,०००
त्रेतायुग १,२९६,०००
द्वापरयुग ८६४,०००
कलियुग ४३२,०००
कुल ४,३२०,००० *

*अर्थात ४.३२ मिलियन वर्ष

वर्तमान चक्र के अर्थ (पर्याय) में हम कलियुग (संघर्ष का युग) के लगभग ५११२वें वर्ष में हैं । वर्तमान चक्र प्रारंभ होने के पश्चात लगभग ३.८ मिलियन से कुछ अधिक वर्ष व्यतीत हो चुके हैं तथा ४२०,००० से कुछ अधिक वर्ष अभी शेष हैं । कलियुग के अंत में और सत्ययुग प्रारंभ होने के पूर्व एक छोटा सा लयकाल होता है । इस छोटे से लयकाल का अधिकांशतः संबंध प्रचंड विनाश जैसे युद्ध, प्राकृतिक आपदाएं, जनहानि आदि से है । संपूर्ण ब्रह्मांड के विनाश जिसे प्रलय कहते हैं, उसकी तुलना में इस विनाश का स्तर आंशिक है ।

इन युगों में एक मुख्य अंतर है समाज में सात्विकता का स्तर और मानवजाति का औसत आध्यात्मिक स्तर । चक्र के प्रत्येक युग में मानवजाति के आध्यात्मिक स्तर का बहुलक (मोड) निम्न सारणी में दर्शाया गया है ।

प्रत्येक युग में मानवजाति का आध्यात्मिक स्तर

युग आध्यात्मिक स्तर का बहुलक*
सत्ययुग ७० प्रतिशत
त्रेतायुग ५५ प्रतिशत
द्वापरयुग ३५ प्रतिशत
कलियुग २० प्रतिशत

*सांख्यिकी में, बहुलक (मोड) वह संख्या होती है जो किसी आंकडों के समूह में सबसे अधिक बार आती है ।

४. ब्रह्मांड के मुख्य चक्र

नीचे दी गई सारणी में अन्य मुख्य कालचक्र वर्णित हैं जिनसे होकर ब्रह्मांड गुजरता है :

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४.१ ब्रह्मांड का विनाश अथवा लय

समय-समय पर ब्रह्मांड में घटित होनेवाले लय/विनाश के प्रकार निम्नलिखित हैं –

४.१.१ प्रलय (प्रत्येक ४.३२ बिलियन वर्ष)

  • प्रलय का अर्थ है ब्रह्मांड का लय
  • क्या नष्ट हो जाता है ? जब प्रलय होता है, तब भूलोक (आकाशगंगा सहित आदि), निम्नलोक (भूवर्लोक), नरक (पाताल) के ७ लोक, स्वर्ग आदि सभी का विनाश होता है ।
  • शेष क्या रहता है ? उच्चतर सकारात्मक सूक्ष्म लोक जैसे महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक वैसे ही रहते हैं । उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी (ब्रह्मा), पोषण के लिए उत्तरदायी (विष्णु) तथा लय/विनाश के लिए उत्तरदायी (महेश) र्इश्वर के ये तत्व वैसे ही रहते हैं ।
  • यह कब होता है ? यह प्रत्येक ४.३२ बिलियन वर्ष अथवा १००० चक्र अथवा ब्रह्माजी के १ दिन (१ कल्प) में एकबार होता है ।
  • प्रलय के उपरांत उत्पत्ति को कार्यान्वित होने और सत्ययुग के आरंभ के लिए ४.३२ मिलियन वर्ष की आवश्यकता होती है । उत्पत्ति को कार्यान्वित होने के लिए कुछ समय व्यतीत होने की आवश्यकता होती है । लय के उपरांत, उत्पत्ति की क्रिया तत्काल प्रारंभ होती है; परंतु उसे दृश्यमान अवस्था में आने में ४.३२ मिलियन वर्ष लगते हैं ।

४.१.२ महाप्रलय (प्रत्येक ४३२ बिलियन वर्ष)

  • श्रीब्रह्माजी (उत्पत्ति तत्त्व) के प्रत्येक १०० दिनों (४३२ बिलियन वर्षों) में महाप्रलय आता है ।
  • महाप्रलय में संपूर्ण ब्रह्मांड का लय होता है अर्थात ब्रह्मांड के ७ सकारात्मक और नकारात्मक लोकों का । इसमें उत्पत्ति, पोषण और लय/विनाश के उत्तरदायी र्इश्वर के तत्त्वों का भी विघटन होता है ।
  • केवल परमेश्वर निर्गुण अवस्था में रहते हैं ।

५. आधुनिक विज्ञान और अध्यात्मशास्त्र के दृष्टिकोण में अंतर

आधुनिक विज्ञान की मान्यता है कि ब्रह्मांड की आयु १३ बिलियन वर्ष है (wikipedia.com) । आधुनिक विज्ञान और अध्यात्मशास्त्र के दृष्टिकोण में अंतर का प्रमुख कारण ब्रह्मांड की उत्पत्ति, पोषण तथा विनाश के सिद्धांत को समझने के लिए आवश्यक छठी इंद्रिय क्षमता (संतों की तुलना में) का अभाव है ।

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६. ब्रह्मांड और मानवजाति के सृजन पर अन्य विविध बिंदु

ब्रह्मांड की उत्पत्ति के विषय में आध्यात्मिक शोध द्वारा प्राप्त कुछ अन्य बिंदु निम्नलिखित हैं ।

प्रश्न : मनुष्यों से परिपूर्ण इस वर्तमान सघन स्थिति तक पहुंचने में पृथ्वी को कितना समय लगा?

उत्तर: एक बार जब ब्रह्मांड खुली आंखों से दिखने योग्य हो जाता है तब वह संपूर्णता से तत्काल प्रकट होता है । पृथ्वी के रहने योग्य बनने तथा सत्ययुग का प्रारंभ होने के पूर्व पृथ्वी का कोई ऋतुकाल नहीं था ।

प्रश्न: लोगों ने पृथ्वी पर बसना कब प्रारंभ किया ?

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उत्तर : मनुष्य सत्ययुग के प्रारंभ में ही पृथ्वी पर बसा । वह नर-वानरों (मनुष्य-सदृश पशु (प्राइमेट)) अथवा अन्य प्रजातियों से विकसित नहीं हुआ जैसा कि आधुनिक विज्ञान द्वारा अपनायी हुई प्रचलित अवधारणा है । उदाहरणार्थ होमो निएंडरथलेन्सिस जिसे निएंडरथल मानव के नाम से भी जाना जाता है, हम इससे विकसित नहीं हुए । निएंडरथल मानव एक भिन्न प्रजाति से था ।

सत्ययुग और कलियुग के मनुष्य में प्रमुख अंतर उनके औसतन आध्यात्मिक स्तर में है जो क्रमशः ७० और २० प्रतिशत है । सत्ययुग में सात्विकता अधिक थी, इसलिए विनाश/वृद्ध होने की गति धीमी थी । उदा. सत्ययुग में लोगों की आयु अधिक थी (औसतन ४०० वर्ष), उनकी लंबाई अधिक थी, आदि । कलियुग में मनुष्य का जीवनकाल घट गया है (७०-८० वर्ष), लोगों की औसत लंबाई भी कम हो गयी है । जब भी, कलियुग समान रजोगुण और तमोगुण में वृद्धि होती है तब वृद्ध होने तथा विनाश की गति में भी वृद्धि होती है ।

निम्नलिखित सारणी में इन चार युगों से संबंधित कुछ अन्य पहलू दिए गए हैं ।

पहलू सत्ययुग त्रेतायुग द्वापरयुग कलियुग
७० प्रतिशत से भी अधिक आध्यात्मिक स्तरवाले लोगों की प्रतिशत मात्रा ६० प्रतिशत ४० प्रतिशत २० प्रतिशत ०.००००१ प्रतिशत
पुण्य और पाप का अनुपात (प्रतिशत)  
पाप ० प्रतिशत २५ प्रतिशत ५० प्रतिशत ७५ प्रतिशत
पुण्य १०० प्रतिशत ७५ प्रतिशत ५० प्रतिशत २५ प्रतिशत

पूर्वकाल के अनेक विभिन्न चक्रों में कुछ प्रजातियां जैसे डायनासोर आदि अस्तित्व में थे । वर्तमान चक्र में भी वे कुछ युगों तक जैसे त्रेतायुग तक अस्तित्व में थे और उसके उपरांत विलुप्त हो गए । यही समानता लंबे मनुष्य के संबंध में लागू होती है । सूक्ष्म-शरीर, जब तक साधना कर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं होते, तब तक सभी युगों में वह मनुष्यरूप में पुनः-पुनः जन्म लेता रहता है । इसी प्रकार कलियुग में पशुओं का आकार भी छोटा हो गया है और कुछ प्रजातियां भी लुप्त हो गयी हैं । परंतु वे अगले चक्र में पुनः प्रकट होंगी ।