इस लेख में हम अहं की आध्यात्मिक परिभाषा की चर्चा करेंगे –
१. अहं की आध्यात्मिक परिभाषा
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अहं का अर्थ है स्थूल देह से तादात्म्य रखना तथा सूक्ष्मदेह के अनेक केंद्रों में विद्यमान संस्कारों के कारण स्वयं को अन्यों से एवं ईश्वर से अलग समझना । संक्षेप में, इस विचार के साथ जीवन जीना कि हमारा अस्तित्व पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धितक ही सीमित है और विभिन्न प्रमाण में इसके माध्यम से पहचाने जाना ही अहं है ।
अध्यात्मशास्त्र के अनुसार हमारे अस्तित्व की खरी स्थिति स्वयं को आत्मा अथवा हमारे अंतर में विद्यमान ईश्वरीय तत्त्व से तादात्म्य होना तथा प्रतिदिन इसी भान के साथ अपना जीवन व्यतीत करना । हम सभी में एक ही ईश्वरीय तत्त्व विद्यमान है, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से पूरी सृष्टि में एकात्मता है ।
तथापि, हममें विद्यमान ईश्वरीय तत्व अर्थात आत्मा से हमारी एकरूपता (पहचान) हमारे अहं के स्तर पर निर्भर करती है । यदि हमारा अहं अधिक है तो हम स्वयं को आत्मा अथवा हमारे अंतर में विद्यमान ईश्वरीय तत्व से कम पहचानते हैं ।
२. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार अहं :
सर्वसामान्य भाषा में, अहं को स्वयं के विषय में अभिमान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है । मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा जीवन, मेरी संपत्ति, मेरी पत्नी और बच्चे, मुझे सुख मिले इत्यादि विचार अहं के कारण उत्पन्न होते हैं ।
मनोवैज्ञानिक स्तर पर अहं अर्थात स्वयं का भान, अभिमान, अहंकार, घमंड, ‘मैं’पन शब्द अहं से ही संबंधित हैं ।
३. अहंयुक्त व्यक्ति का सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित चित्र
सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित नीचे दिया गया चित्र एक अहंयुक्त व्यक्ति का है । यह चित्र SSRF के एक साधक द्वारा बनाया गया है जिसकी छठवीं इंद्रिय अधिक विकसित है । आत्मा के चारों ओर दिखनेवाला काला आवरण व्यक्ति का अहं है । इस व्यक्ति का अहं अधिक होने के कारण वह स्वयं को आत्मा के रूप में नहीं पहचानता । अहं के कारण उसके चारों ओर काली शक्ति का आवरण एकत्रित हुआ है । साथ ही, जब किसी का अहं अधिक होता है तब ईश्वरीय कृपा का प्रवाह भी अवरुद्ध होता है ।
काली शक्ति के आवरण के साथ ईश्वरीय कृपा प्राप्ति का मार्ग अवरूद्ध होने के परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पडता है ।