यह प्रकरण अध्ययन कु. श्वेता चौबे का है । वे एक दीर्घकालीन व्याधि, जिसका निदान टाइफाइड (आंत्र ज्वर) के रूप में किया गया था, के कारण लगभग मरणासन्न अवस्था में पहुंच गर्इ थी । साथ ही उन्हें दी गई कोई भी औषधि चिकित्सा सहायक सिद्ध नहीं हो रही थी । इस समस्या का मूल कारण आध्यात्मिक हो सकता है, यह ज्ञात होने के कारण उन्होंने कुछ आध्यात्मिक उपचार भी आरंभ किए । पूर्णतया आध्यात्मिक उपचारों से स्वस्थ होने का यह अनुभव उनके अपने शब्दों में आगे दिया गया है ।
वर्ष २००२ में, नई देहली के विश्वविद्यालय में पढाई करते हुए मैं परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन से अध्यात्म प्रसार की सेवा भी कर रही थी । मैं अन्य साधकों के साथ सेवा केंद्र (एक स्थान जहां साधक सामूहिक रूप से अध्यात्म प्रसार की सेवा में सहभागी होते हैं) में रहने लगी । एक दिन सायंकाल में मुझे हल्का सा बुखार हो गया । मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया और सत्सेवा करती रही । कुछ समय उपरांत उस सायंकाल को ज्वर (बुखार) अपने आप न्यून हो गया । तथापि, उस दिन के पश्चात प्रत्येक सायंकाल ज्वर आ जाता और उसे शांत करने के लिए मैं पेरासिटामोल लेती थी । इसप्रकार से कुछ पांच-छःह दिन निकल गए ।
उसके उपरांत मैं वाराणसी (भारत) गई क्योंकि वहां सत्सेवा के लिए साधकों की आवश्यकता थी । वहा पहुंचते ही मेरा स्वास्थ्य शीघ्रता से बिगडने लगा । वाराणसी में चिकित्सकों ने टाइफाइड के रूप में मुझे हुए रोग का निदान किया और उसके लिए उपचार आरंभ किया । तथापि, ज्वर में कोई कमी नहीं हो रही थी । पूरा दिन अत्यधिक ज्वर रहने के कारण मैं २५ दिनों तक अधिकतर अपने कक्ष में ही रहती थी । मैं अत्यंत दुर्बल हो गई थी, भूख भी नहीं लगती थी और अत्यंत कठिनाई से ही खा पाती थी, इसलिए वाराणसी सेवा केंद्र के अन्य साधक ही मेरा पूरा ध्यान रखते थे । सेवा केंद्र में होने के कारण साधक विभिन्न आध्यात्मिक उपचार जैसे विभूति लगाना, निरंतर नामजप लगा के रखना, इत्यादि का ध्यान भी रखते थे । तथापि, कोई भी उपचार प्रभाव डालते नहीं दिख रहे थे और चिकित्सकों के नित्य आने पर भी मेरी स्थिति निरंतर बिगडती गई । मैं बेसुध अवस्था में जाने लगी जो कि दीर्घकालीन टाइफाइड से होती है । कभी-कभी दिन में मैं किसी को पहचान भी नहीं पाती थी, चिल्लाती थी, भयभीत हो जाती थी और विचित्र बातें करती थी । २५ दिनों पश्चात, चूंकि मेरे पिता एक पेशेवर चिकित्सक थे और मेरे उपचार हेतु अधिक अच्छी चिकित्सकीय सुविधा पर ध्यान दे सकते थे, इसलिए साधकों ने मेरे माता-पिता के साथ मेरे घर वापस जाने का निर्णय लिया ।
वाराणसी से ४०० कि.मी. दूर मेरे घर धनबाद ले जाने हेतु मेरा भाई वाराणसी आया । पूरी यात्रा में मैं बेसुध अवस्था में थी, इस कारण उसकी रेलयात्रा एक कुस्वप्न की भांति हो गई थी । धनबाद पहुंचने के उपरांत जब मेरा भाई मुझे रेलगाडी से उतरने में सहायता कर रहा था, तब मैं पिताजी से मिली और वे मेरी अवस्था देखकर अचंभित हो गए थे । मेरा मुख श्वेत पड गया था तथा मैं अत्यंत दुर्बल और बेसुध थी ।
चूंकि मेरी वर्तमान औषधि कुछ काम नहीं कर रही थी, इसलिए मेरे पिताजी अन्य चिकित्सकों के परामर्श से मुझे दूसरी औषधि देने लगे । उन्होंने मेरी बेसुधावस्था के विषय में मनोचिकित्सक का भी परामर्श लिया । परंतु बुखार बिना कम हुए वैसे ही रहा । उस कालावधि में मैं कुछ नहीं खाती, स्वयं से बातें करती, लगभग पूरा दिन सोती, मुझे डरावने स्वप्न आते, मैं चीखते हुए उठती और तदोपरांत घर के बाहर भाग जाती ।
मेरा पूरा परिवार साधना करता था और इसी कारण औषधि के साथ हम आध्यात्मिक उपचार जैसे नामजप, अगरबत्ती जलाना और विभूति लगाना इत्यादि करते रहे; परंतु इनसे भी अधिक सहायता नहीं हो रही थी । प्रत्येक दिन बीतने के साथ मेरी स्थिति उतनी ही गंभीर थी और घर पर लगभग २५ दिनों के पश्चात, मेरे परिवार को लगने लगा की मैं कदाचित जीवित ना रहूं ।
तभी अकस्मात ही मेरे पिताजी को विचार आया कि हमें चिकित्सा उपचार में गोमूत्र को भी सम्मिलित करना चाहिए । मुझे औषधि देने के उपरांत मेरे पिताजी मुझे एक चम्मच सांद्र (बिना पानी मिलाए) गोमूत्र पीने के लिए देते थे । गोमूत्र लेने के एक सप्ताह उपरांत, एक माह के उपरांत प्रथम मेरी बेसुधावस्था में कमी आई और मैं होश में आने लगी । यद्यपि तब भी मैं दुर्बल थी परंतु अत्यंत अल्प कालावधि में ही मेरे परिवार को मेरी पूर्व स्थिति की तुलना में मुझमें दृष्टि से महत्वपूर्ण सुधार दिखाई देने लगे । उसके अगले सप्ताह मेरा बुखार उतर गया और धीरे-धीरे मेरा स्वास्थ्य सुधरने लगा । मेरे परिवार के लिए यह संपूर्ण अनुभव अत्यंत कष्टदायक था, परंतु इसके उपरांत गोमूत्र के सेवन करने जैसे आध्यात्मिक उपचारों में उनकी श्रद्धा और बढ गयी ।
SSRF की टिप्पणी
- श्वेता को हुए टाइफाइड का मूल कारण पूर्णत: आध्यात्मिक था; तथापि यह टाइफाइड के प्रत्येक प्रकरण में ऐसा ही हो, यह आवश्यक नहीं है । ५० प्रतिशत आध्यात्मिक कारण मृत पूर्वजों के कारण था और शेष अन्य आध्यात्मिक कारकों के कारण था । इसी कारण जिस औषधि से श्वेता सरलता से स्वस्थ हो सकती थी वे प्रभावहीन थीं ।
- श्वेता के पिताजी का स्वर्गवास होने के कारण हम औषधि की सारी तकनीकी जानकारी प्राप्त नहीं कर सके । तथापि, गोमूत्र के उपयोग के उपरांत आश्चर्यकारी सुधार को सभी ने देखा था । आध्यात्मिक शोध से हमें यह ज्ञात हुआ कि गोमूत्र से पहले किए गए आध्यात्मिक उपचारों का योगदान ७० प्रतिशत था । तथापि, गोमूत्र को आध्यात्मिक उपचार में सम्मिलित करने से संतुलन श्वेता की ओर झुक गया और वह उनके उपचार में ३० प्रतिशत उत्तरदायी रहा । श्वेता के बुखार के प्रकरण में गोमूत्र पिलाना उस कहावत के तिनके के समान है जिसने ऊंट की पीठ तोड दी थी । सभी प्रारंभिक आध्यात्मिक उपचारों ने सहायता की थी, परंतु जब गोमूत्र का उपयोग किया तभी सुधार दिखने लगे ।
- विभिन्न प्रकार की आध्यात्मिक उपचार पद्धति में विभिन्न प्रकार की अनिष्ट शक्तियों का सामना करने की क्षमता होती है । केवल आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्ति ही अपने विकसित छठवीं इंद्रिय द्वारा वे कष्ट, जिसका मूल कारण आध्यात्मिक है, के लिए योग्य आध्यात्मिक उपचार पद्धति प्रदान कर सकते हैं । ऐसे विशिष्ट मार्गदर्शन के अभाव में यह आवश्यक है कि समस्या जिसका मूल कारण आध्यात्मिक होने की संभावना हो, उसका सामना करने के लिए हम सभी ज्ञात आध्यात्मिक उपचारों का उपयोग ‘कई आयामी दृष्टिकोण’ से करते रहे ।