अपने दैनिक जीवन में, प्रत्येक कार्य करते हुए हमें अपने अस्तित्व का भान रहता है क्योंकि यह हमारे भीतर गहराई से समाया हुआ है । हमारे अस्तित्व का यह भान पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के कारण होता है । अत: सभी घटनाएं अथवा अनुभव इस भान के अनुसार ही होते हैं । आध्यात्मिक परिभाषा में हम अपने इस अस्तित्व को छोटा ‘मैं’ कहते हैं । दूसरी ओर हम आत्मा अथवा हमारे भीतर विद्यमान ईश्वर को बडा ‘मैं ’ कहते हैं ।
साधना आरंभ करते ही हम अनुभव करने लगते हैं कि एक उच्च शक्ति अर्थात ईश्वर ही हमारे जीवन को व्याप्त कर रहे हैं। जैसे-जैसे हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है, हमारे जीवन में एवं सर्वत्र ही हम ईश्वर का अनुभव और अधिक करते हैं और स्वयं के अस्तित्व अथवा छोटा मैं की ओर हमारा ध्यान घटता जाता है ।
व्यक्ति के जीवन में स्वयं के अस्तित्व के भान के स्थान पर ईश्वर अथवा गुरु के अस्तित्व का उसी तीव्रता से भान ही भाव कहलाता है। दैनिक कृत्य करते हुए, किसी भी रूप में ईश्वर अथवा गुरु के अस्तित्व का तीव्र भान तथा जीवन के प्रत्येक अंग में सर्वत्र यही भान रखते हुए जीवन व्यतीत करना, ईश्वर अथवा गुरु के प्रति भाव कहलाता है।
जब कोई व्यक्ति भाव की स्थिति में होता है, तो उस समय व्यक्ति का अवचेतन मन ईश्वर के साथ एकरूप हो जाता है । मन एवं बुद्धि का कार्य थम जाता है और व्यक्ति ईश्वर के साथ अत्यधिक आंतरिक सान्निध्य (एकरूपता) का अनुभव करता है । अत: इस स्थिति में व्यक्ति को अध्यात्म अथवा ईश्वर के प्रति किसी भी प्रकार के विचार अथवा विकल्प नहीं आते ।
भक्तियोग और गुरुकृपायोग में भाव, अनुभव की जानेवाली एक स्थिति है ।
नीचे दिया गया सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित चित्र एक भाववाले व्यक्ति का है । सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित यह चित्र SSRF के अति विकसित छठवीं इंद्रियवाले साधक द्वारा बनाया गया है ।