जैसा कि हम इस शृंखला के पिछले लेखों में देख चुके हैं, भाव वह अवस्था है जिसमें सर्वत्र ईश्वर का अस्तित्त्व अनुभव होता है । इसमें स्वयं में, दूसरों में, साथ ही संपूर्ण ब्रह्मांड की सभी सजीव और निर्जीव वस्तुओं में भी ईश्वर के दर्शन करना सम्मिलित है । हालांकि कुछ लोग बुद्धि के स्तर पर इस बात को स्वीकारते भी हैं, परंतु इसे अनुभव करना कठिन होता है । इससे भी अधिक कठिन है, अधिकांश व्यक्तियों के लिए क्षण प्रति क्षण इसे अपनाकर अपना जीवन व्यतीत कर पाना ।
अधिकांश व्यक्ति भाव अनुभव नहीं कर पाते, इसका एक महत्वपूर्ण कारण है, सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर कम होना । कृपया यहां ध्यान दें कि ‘सामान्य व्यक्ति’ से तात्पर्य आध्यात्मिक रूप से सामान्य व्यक्ति से है । सांसारिक जीवन में कह व्यक्ति अरबपति, किसी राष्ट्र का अध्यक्ष अथवा मनोरंजन जगत का नायक हो सकता है । आज के काल में पूरे विश्व के लोगों के आध्यात्मिक स्तर का बहुलक मान (मोड – एक सांख्यिकी परिमाण है) २० प्रतिशत है जबकि मोक्ष-प्राप्त संत का आध्यात्मिक स्तर १०० प्रतिशत होता है । भाव से अपनेआप साधना होने के लिए साधक का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत होना चाहिए, उसी प्रकार साधना द्वारा भाव जागृति के लिए, न्यूनतम ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर आवश्यक है । इस स्तर को प्राप्त करने हेतु, ईश्वर का नामजप करना, सत्संग में रहना और निरंतर सत्सेवा में योगदान देना आवश्यक है । भाव-जागृति के पश्चात भी, उसे बनाए रखने हेतु निरंतर साधना करना आवश्यक है ।
ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रयासरत खरे साधक को एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में रखना होगा की के भाव के बाह्य प्रदर्शन से सदैव बचें । कृपया पढें हमारा लेख ‘भाव कैसे विभिन्न प्रकार से प्रकट होता है ?’ यह अति आवश्यक है कि हम अपने भाव को सदैव इस मापदंड से परखते रहें कि क्या हम अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसे जी पा रहे हैं । उदाहरण के रूपमें किसी को भाव ठंडे आंसू के रूप में अनुभव होता है, जब वह किसी आराधना स्थल पर होता है, अपने गुरु का स्मरण करता है अथवा अनुभूति होने पर; तथापि हमारे भाव की वास्तविक परीक्षा तब होती है, जब हम विपत्ति के समय भी अपने साथ ईश्वर का आशीर्वाद अनुभव करें । उस समय जब हम सारे संभव प्रयास कर चुके होते हैं, हम सक्रियता से घटनाक्रम ईश्वर के चरणों में समर्पित कर पाते हैं । दूसरी परीक्षा है कि हम यह देखें कि हमारा भाव और व्यवहार दूसरों के प्रति कैसा है, विशेषकर उन लोगों के प्रति जिनका व्यवहार हमारे प्रति नकारात्मक है । यदि हम उनमें विद्यमान ईश्वरीय तत्त्व के प्रति सचेत होकर उनके साथ व्यवहार करते हैं, तो यह निश्चित ही हमारे भाव का प्रमाण है ।