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सारांश : आध्यात्मिक विश्व हमारे जीवन को ८० प्रतिशत तक प्रभावित करता है । जीवन की ६५% घटनाएं पूर्वजन्म तथा इस जन्म में हुए सभी पूर्वकर्मों पर प्रारब्ध के रूप में प्रकट होती हैं । यह प्रारब्ध विविध घटनाओं के माध्यम से स्थूल (शारिरीक) तथा आध्यात्मिक स्तर पर भुगता जाता है । हमारे प्रारब्ध को प्रभावित करने वाले आध्यात्मिक स्तर के घटकों में अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) तथा हमारे मृत पूर्वजों के सूक्ष्म-देह अंतर्भूत हैं । आध्यात्मिक साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना करने से, हमें इन आध्यात्मिक घटकों के प्रभावों पर मात करने के लिए सहायक आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है । 

इस लेख को समझने के लिए अनुरोध है कि आप पहले निम्नांकित लेख पढें :

  • क्रियमाण और प्रारब्ध क्या है ?

  • प्रारब्ध और लेन-देन का नियम

१. प्रस्तावना

इस विभाग के पहले के लेख में की गई चर्चा के अनुसार किसी भी समस्या का मूल आध्यात्मिक स्तर पर होने की संभावना होती है । इस लेख में हम इन आध्यात्मिक कारणों का तथा उन पर विजय प्राप्त करने के  सिद्धांत का अन्वेषण करेंगे ।

समस्याओं के मूल में विद्यमान आध्यात्मिक कारणों का स्पष्टीकरण हम दो दृष्टिकोण से दे सकते हैं :

आध्यात्मिक साधनामार्ग : वैदिक सिद्धांतके (तत्त्वज्ञानके) अनुसार ईश्वरप्राप्तिके विविध सर्वमान्य मार्ग हैं । लोग अपने स्वभावानुसार/व्यक्तित्वानुसार मार्ग चुनते हैं । इनमेंसे कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग, ज्ञानयोग इ.कुछ मार्ग हैं ।

१. पहला स्पष्टीकरण ‘कर्मयोग’ के अनुसार है । इसमें प्रारब्ध कर्म, क्रियमाण कर्म तथा लेन-देन का नियम अंतर्भूत हैं, जो कि मनुष्य के जीवन को भारी मात्रा में प्रभावित करता है ।

. दूसरा स्पष्टीकरण ऐसा है कि आध्यात्मिक विश्व के घटक हमारे प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म को प्रभावित करते हैं ।

२. कर्ममार्ग (योग) के अनुसार दृष्टिकोण

कर्ममार्गो में स्वाभाविक रूप से जैसी करनी, वैसी भरनी इस सिद्धांत के अनुसार साधना की जाती है ।

जीवन में हमें सुख तथा दुःख का अनुभव क्यों होता है, इस पर यदि हम विचार करेंगे; तो कर्ममार्ग के अनुसार जीवन के सर्व सुख तथा दुःख और जीवन की सभी घटनाएं हम प्रारब्ध कर्म अथवा क्रियमाण कर्म के कारण अनुभव करते हैं ।

क्रियमाण कर्म : कुछ घटनाएं (प्रसंग), विचार, कृत्य और आचरण व्यक्ति के संपूर्ण नियंत्रण में होते हैं । ऐसे कृत्यों में हम अपने मन (संवेदनाएं और भावनाएं) तथा बुद्धि का (निर्णयक्षमता) उपयोग कर तदनुसार कर्म करते हैं । सामान्य रूप से वर्तमान समय में हमारा ३५% जीवन अपनी इच्छा अथवा इच्छाशक्ति के अनुसार निश्चित होता है ।

प्रारब्ध कर्म : हमारे जीवन का जो भाग हमारे पूर्वजन्म के कर्म अथवा इस जन्म की घटनाओं पर निर्भर होता है और उसपर हमारी इच्छाशक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता, वह प्रारब्ध के अनुसार होता है । सामान्य नियम ऐसा है कि हमारे जीवन की सभी बडी घटनाएं प्रारब्धानुसार होती हैं । इन घटनाओं में जन्म, विवाह, गम्भीर दुर्घटनाएं और व्याधियां इ. अंतर्भूत हैं । वर्तमान समय में इनकी मात्रा हमारे कुल जीवन मैं ६५% होती है । विविध प्रकार की संवेदनाओं तथा घटनाओं को दिया जाने वाला प्रतिसाद हमारे प्रारब्ध के अनुसार होता है ।

जिस प्रारब्ध के साथ हमारा जन्म होता है, वह हमारे सभी पूर्वजन्मों के एकत्रित लेन-देन (संचित) का एक भाग होता है । प्रारब्ध के माध्यम से हम अपने पूर्वजन्म के कृत्य और विचारों के फल भोगते हैं ।

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हमारा प्रत्येक कर्म (लेन-देन का) खाता खोलता है अथवा मिटाता है । यह कर्म इन दोनों का मिलाप भी हो सकता है, अर्थात कुछ मात्रा में (लेन-देन) निर्माण करना अथवा मिटाना । लेखा मैं जोड अथवा घटाव भी हो सकता है । हम यदि (लेन-देन का) लेखा मिटाते हैं, तो वह प्रारब्ध कर्मानुसार होता है और जब हम लेखा निर्माण करते हैं, तब वह क्रियमाण कर्म के अनुसार होता है ।

  • जॉन ने यदि मेरी को ठगकर उसे ५ अंक (यूनिटस) कष्ट दिए होंगे, तो इस कर्म से उसके लेनदेन का लेखा मिट भी सकता है और निर्माण भी हो सकता है अथवा दोनों भी हो सकता है ।
  • दूसरी ओर यदि जॉन मेरी को नई कार देता है, तो इस कर्म से लेन-देन का लेखा मिट भी सकता है अथवा निर्माण भी हो सकता है अथवा दोनों भी हो सकता है ।

अतिजाग्रत छठी ज्ञानेंद्रिय न होनेसे, हमारे कर्मों से लेखा मिट गया है अथवा निर्माण किया गया है, यह हम कभी पहचान नहीं पाएंगे । जिसने संत की भांति आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है, वही केवल छठी ज्ञानेंद्रिय के माध्यम से समझ सकता है कि लेखा मिट गया है अथवा निर्मित हुआ है ।

जॉन और मेरी के प्रसंग में, यदि ठगने का लेखा मिट गया होगा, तो वह कदाचित पूर्वजन्म में निर्मित हुआ होगा अथवा इस जन्म के भूतकाल में मेरी द्वारा इतनी ही तीव्रता के कष्ट जॉन को दिए गए होंगे । यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि घटाव का लेखा मिटाते समय हमें जीवन में बहुत कष्ट भोगने पडते हैं ।

कई बार हम देखते है कि सज्जन लोगों को उनके लिए अप्रिय ऐसे और जो इसके पात्र नहीं हैं, ऐसे प्रसंगों से जाना पडता है । ऐसे प्रसंगों का यह स्पष्टीकरण है । बहुत बार हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि यह ईश्वर की इच्छा है अथवा यह एक गूढ है । सत्य तो यह है कि रहस्य (गूढ) नाम की कोई बात होती ही नहीं । प्रत्येक घटना किसी कारणवश ही होती है और लेन-देन, प्रारब्ध तथा क्रियमाण कर्म के नियम के नियंत्रणानुसार होती है ।

  • प्रारब्ध तथा लेनदेन के घटक के अज्ञानवश लोग निराशग्रस्त होकर छाती पीटपीटकर रोने लगते हैं कि “मैंने ऐसा क्या किया था कि मुझे यह सब सहना पड रहा है ?
  • कभी-कभी इससे लोग ईश्वर को कोसने लगते है अथवा ईश्वर के तथा जीवन की अच्छाई के प्रति उनकी श्रद्धा न्यून होती है । 
  • अधिकतर प्रसंगों में लोगों को प्रारब्ध के सिद्धांत का ज्ञान न होने के कारण, उन्हें समझ में नहीं आता कि ऐसे प्रसंगों का सामना कैसे करें अथवा उनपर विजय कैसे प्राप्त करें, जो कि उनके पूर्व-कर्मों द्वारा निर्मित हुए हैं । (सूत्र क्र. ४ का संदर्भ लें)
  • यदि लोगों को लेनदेन के सिद्धांत संबंधी शिक्षा दी जाएगी, तो उनके पास उन प्रसंगों में अल्पतम सैद्धांतिक दृष्टिकोण तो रहेगा कि इन प्रसंगों में उनके अच्छे प्रयासों के उपरांत भी अनिष्ट हुआ है । 
  • साथ ही वे अनिष्ट प्रारब्ध में वृद्धि न करने के संदर्भ में सावधानी रखेंगे ।

इसके विपरीत जोडयुक्त / अच्छा प्रारब्ध मिटाते समय अकस्मात अनपेक्षित सुखदायी अनुभव होता है । यही कारण है कि हम कभी देखते हैं कि जो ऊपर से पूर्णतः अपात्र लगते हैं, ऐसे लोगों को लॉटरी लगती है और वे बिना किसी प्रयास के ऐशो-आराम का जीवन बीताते है । शास्त्र और सिद्धांत समझने से ऐसी घटनाओं की गूढता नष्ट हो जाती है ।

इस जन्म से पूर्व हमारे कई जन्म हुए हैं । हमारे पहले जन्म में किसी एक समय, हमारा पूर्ण जीवन हमारे क्रियमाण कर्म पर निर्धारित होता था । यह किसी कोरे कागज अथवा फलक की भांति था । तदुपरांत जैसे समय बीतता गया, जिस प्रकार से हमारे अनेक जीवन बीतते गए और मनानुसार कर्म होते गए, हमने लेनदेन का लेखा निर्माण किया । यह लेखा पूर्णतः मिटाने के लिए बारबार हमारा जन्म होता है । निम्नांकित सारणी दर्शाती है कि समय के अनुसार हम इस लेखा में वृद्धि कैसे करते हैं । ये लेनदेन अंतिमत: हमारे कुल लेनदेन में (संचित में) जुड जाते हैं और आगामी अनेक जन्मों में हमें इन्हें प्रारब्ध के रूप में चुकाना पडता है ।

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इसके पूर्व लेख में, हमने जीवन की समस्याओं के कारणों का निम्न प्रकार से साधारण वर्गीकरण किया था ।

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यह वर्गीकरण हमारे जीवन के प्रारब्ध संबंधी अंश और क्रियमाण कर्म संबंधी अंश के साथ कैसे समन्वय रखता है ? निम्नांकित सारणी यह समन्वय दर्शाती है । 

कर्म घटना कुल
शारीरिक मानसिक आध्यात्मिक
क्रियमाण (%) १०% १०% १५% ३५%
प्रारब्ध (%) १०% ५५% अन्य दोनों भी आध्यात्मिक हैं ६५%
कुल (%) २०% ६५% १५% १००%
टिप्पणियां (उपर्युक्त सारणी के लाल रंग के अंकों पर आधारित) :

इसका उदाहरण ऐसा हो सकता है, जहां ‘अ’ नामक व्यक्ति को चेतावनी दी है कि विशिष्ट परिसर का जल प्रदूषित है और उसे पीने से पहले उबालने की आवश्यकता है । तथापि अपने स्वास्थ्यके प्रति अति आत्म विश्वास के कारण वह यह कहकर पानी पी जाता है कि मैं सभी प्रकार के किटाणुओं को पचा सकता हूं । इसके पश्चात यदि उसे हैजा हो जाता है, तो कह सकते हैं कि यह उसके कर्म के कारण हुआ है और यह एक क्रियमाण कर्म है ।

. यहां ‘अ’ नामक एक व्यक्ति के प्रारब्ध में हैजा लिखा था; क्योंकि उसके प्रारब्ध में उसकी पूर्व आयु में किए पापकर्म के कारण कुछ मात्रा में कष्ट लिखे गए थे । इस प्रसंग में, उसकी बुद्धि उसके प्रारब्ध के अनुसार कार्य करती है । यद्यपि इस व्यक्ति का स्वभाव साधारणतः संकट से दूर रहने का है, प्रारब्ध में लिखी घटना किसी न किसी कारणवश हो ही जाती है ।

    • अचानक यह व्यक्ति अति आत्म विश्वास पालकर अपने व्यक्तित्व के विरूद्ध जाकर पानी पी ही लेता है ।
    • उसे पानी के बारे में कोई बताने वाला न होने के कारण अज्ञानवश वह संक्रमित पानी पीता है ।

जिसका इतिहास क्रूरता और व्यसनाधीनतापूर्ण है, ऐसे व्यक्ति के बारे में चेतावनी देने पर भी कोई लडकी उस व्यक्ति शारीरिक आकर्षण के कारण फंस जाती है । परिणामस्वरूप वह व्यक्ति उस लडकी का शारीरिक स्तर पर अनुचित लाभ उठा सकता है ।

दोषपूर्ण निर्णय लिया जाने से उस व्यक्ति के बारे में ऐसा होता है, क्योंकि प्रारब्ध के अनुसार यह घटना का घटित होना अटल होता है । विवाह के पश्चात इन्हें बहुत कष्ट होने वाले हैं अथवा उनका विवाह विच्छेद होने वाला है, आसपास के सभी लोगों को ऐसा स्पष्ट दिखाई देने पर भी कुछ लोग विवाह करते हैं, इसका यही एक कारण है । ‘लेन-देन की प्रक्रिया और कभी-कभी हमारे हाथों कर्म क्यों हो जाता है ?’, इस लेख का संदर्भ लें ।

कभीकभी कोई व्यक्ति अनिष्ट शक्तियों द्वारा आवेशित वास्तु खरीदकर उसमें रहने लगता है । इस वास्तु में रहने से इसके पहले के निवासियों को किस प्रकार के संकटों का सामना करना पडा था, उस व्यक्ति के मित्रों द्वारा बताए जाने पर भी उसे उसकी आवश्यकता नहीं लगती और वह सीधे उस घर में रहने लगता है । इससे अनिष्ट शक्ति क्रोधित होती है और उसे प्रभावित करती है अथवा उसे आवेशित करती है ।

संक्षेप में, प्रारब्ध ऐसी बात है कि जो हमारे संपूर्ण जीवन में हमारे विचारों, कर्मों तथा प्रतिक्रियाओं को एक मेघ की भांति प्रभावित करता है ।

३. आध्यात्मिक आयाम के घटक, जो हमें प्रभावित कर सकते हैं

हमारी पंचज्ञानेंद्रियां, मन तथा बुद्धि की समझ के परे एक ऐसा सूक्ष्म और अनाकलनीय विश्व है, जिससे लगभग सभी मनुष्य जाति अनभिज्ञ है । इस विश्व के अनेक नाम हैं – सूक्ष्म-विश्व, सूक्ष्म-आयाम, आत्माओं का विश्व, आध्यात्मिक जगत अथवा आध्यात्मिक आयाम । यह विश्व देवदूत, अनिष्ट शक्तियां, स्वर्ग, पाताल (नर्क) आदि से बना है । जिस बुद्धिगम्य विश्व से हम परिचित है, वह इस सूक्ष्म तथा अनाकलनीय विश्व से बहुत ही छोटा है । प्रत्यक्ष में इस परिचित विश्व की मर्यादा (व्याप्ति) सूक्ष्म-विश्व की तुलना में एक अनंतांश के अनुपात में है । यह सूक्ष्म-विश्व हमारे जीवन को भारी मात्रा में प्रभावित करता है । सूक्ष्म-विश्व के मुख्य घटक हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं उदा. अनिष्ट शक्तियां और हमारे मृत पूर्वजों के सूक्ष्म-देह (सामान्यतः इन्हें आत्मा कहते हैं) ।

सूक्ष्म-विश्व का हमारे जीवन पर पडनेवाला प्रभाव विविध प्रकार का होता है, जो कि हमारी आध्यात्मिक स्थिति अर्थात आध्यात्मिक स्तर, हमारे द्वारा आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत होने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर किए जाने वाले तथा सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले प्रयत्नों पर निर्भर होता है ।

निम्न सारणी दर्शाती है कि सूक्ष्म-विश्व के विविध घटकों का भिन्न आध्यात्मिक स्थिति के दो प्रकार के व्यक्तियों पर कैसे प्रभाव पडता है ।

  • अध्यात्मिक स्थिति १ : २०% आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति, जो कोई साधना नहीं करता
  • अध्यात्मिक स्थिति २ : ५०% आध्यात्मिक स्तर का साधना करने वाला व्यक्ति, जो ज्ञानवश अथवा अज्ञानवश अपने लिए और समाज के आध्यात्मिक उत्थान के लिए आध्यात्मिक साधना के मूलभूत छः सिद्धांतों के अनुसार साधना करता है ।

ये सभी घटक शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक इत्यादि विविध अंगों से हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं और हमारे जीवन की समस्याओं के मूल कारण होते हैं ।

२०% आध्यात्मिक स्तर का बद्ध जीव (अर्थात जो कोई साधना नहीं करता) ५०% आध्यात्मिक स्तर का साधक (जो समाज के लिए आध्यात्मिक साधना करता है)
१. अनिष्ट शक्तियों द्वारा कष्ट (भूत१, प्रेत, पिशाच इ.) ३०% ५०%
१अ. कष्ट का भान (%) ३०% २०%
१ब. सहन करने की क्षमता १०% ३०%
१स. भूत की आध्यात्मिक ऊर्जा ३०% ५०%
२. अच्छी शक्तियों द्वारा कष्ट (%) १०% १०%
३. आध्यात्मिक शक्ति से संबंधित ३०%
३अ. कुण्डलिनी १०%
३ब. प्राणशक्ति में घटौती २०%
४. अन्य  – अन्न, वस्त्र, काल, एकत्रित अवगुण (पापकर्म) इ. १०%
कुल कष्ट ४०% <१००%
टिप्पणियां :

इसमें अनिष्ट शक्तियों द्वारा और पूर्वजों द्वारा दिए कष्ट अंतर्भूत हैं । २०% आध्यात्मिक स्तर का साधना न करने वाला कोई जीव पूर्वजों द्वारा प्रभावित होने की संभावना अधिक होती है । यह इसलिए कि उच्च वरीयता-प्राप्त अनिष्ट शक्ति की दृष्टि से २०% आध्यात्मिक स्तर का जीव महत्त्वपूर्ण तथा हानिकारक नहीं होता । कृपया यह लेख पढें – “हमारे पूर्वज हमें कष्ट क्यों देते हैं ?” दूसरी ओर जो व्यक्ति व्यक्तिगत तथा समाज की साधना के लिए संघर्ष करता है, उसपर अनिष्ट शक्तियों द्वारा आक्रमण होने की संभावना अधिक होती है ।

२. यहां पर अधिक आक्रमण इसलिए होता है कि यह जीव लोगों के आध्यात्मिक विकास में सहायता कर समाज में सत्वगुण की मात्रा बढाने में सहयोग देता है । यह महत्त्वपूर्ण है कि साधना प्रभावकारी होने के लिए ज्ञानवश अथवा अज्ञानवश वह आध्यात्मिक साधना के मूलभूत छः सिद्धांत के अनुसार होनी चाहिए । तभी वह समाज में शुद्धता (सात्त्विकता) बढाने में सहायक होती है । अनिष्ट शक्तियां रज-तमात्मक होने से समाज में वृद्धिंगत सात्विकता से उन्हें कष्ट होने लगते हैं । कृपया यह लेख पढें – ‘अनिष्ट शक्तियों के उद्देश्य ।’

५०% आध्यात्मिक स्तर पर साधना में हुई वृद्धि के कारण, आक्रमण का सामना करने के लिए व्यक्ति की क्षमता स्तर अथवा सुरक्षा तंत्र अधिक प्रभावी होता है । परिणामस्वरूप उन पर आक्रमण होने पर भी वे उसका सामना अच्छे ढंग से कर पाते हैं और उन्हें झेल सकते हैं ।

५०% आध्यात्मिक स्तर के जीव को ईश्वर द्वारा सुरक्षा-कवच प्राप्त होने से, ३०% आध्यात्मिक शक्ति की निम्न स्तर की अनिष्ट शक्तियां उसे स्पर्श भी नहीं कर पाती है । दूसरी ओर, निम्न आध्यात्मिक स्तर के लोग निम्न स्तर की अनिष्ट शक्तियों द्वारा भी प्रभावित होने की आशंका रहती है । कृपया यह लेख पढें – “आध्यात्मिक स्तर किस सीमा तक अनिष्ट शक्तियों से बचने के लिए सुरक्षा-कवच देता है ?

कभीकभी अच्छी शक्तियां भी हमारे जीवन में समस्याएं ला सकती हैं । यह कुछ विपरीत लग सकता है, किंतु एक उदाहरण से इसे समझना संभव होगा । कभीकभी किसी विद्यार्थीमें अच्छी क्षमता होने पर भी उस क्षमता के अनुसार वह पढाई नहीं करता, उसके अभिभावक अथवा शिक्षक उससे बलपूर्वक पढाई करवा लेते हैं । विद्यार्थी के लिए यह एक समस्या हो सकती है, परंतु पढाई में रूचि लेने की दृष्टि से यह सहायक होती है । इसी प्रकार कभीकभी अच्छी शक्तियां हमें विचार करने से रोककर आध्यात्मिक विश्व संबंधी और आध्यात्मिक साधना संबंधी जिज्ञासा जागृत करने के लिए प्रवृत्त करने हेतु हमारे जीवन में समस्याएं लाती हैं ।

अनिष्ट शक्तियों द्वारा सामान्यतः कुण्डलिनी में बाधा तथा प्राणशक्ति न्यूनता लाई जाती है । कुण्डलिनी का विषय केवल साधकों की दृष्टि से है, क्योंकि २०% स्तर के साधना न करने वालों की कुंडलिनी मूलाधार चक्र में, अर्थात रीढ की हड्डी के निचले भाग के आध्यात्मिक शक्ति केंद्र में निद्रित अवस्था में रहती है ।

इसमें सम्मिलित घटक हमें निम्न प्रकार से प्रभावित करते हैं ।

    • अन्न : बांसी, डिब्बाबंद (कैंड) और सामिष अन्न पदार्थों में मूलभूत सूक्ष्म रज-तम अधिक मात्रा में रहते हैं । ऐसे रज-तमयुक्त अन्न का माध्यम के रूपमें उपयोग कर अनिष्ट शक्तियों के लिए व्यक्ति पर आक्रमण करना सुलभ होता है । 
    • वस्त्र : कृत्रिम धागों से बने वस्त्रों में रज-तम की मात्रा अधिक होती है । काला तथा गाढा रंग भी मूलभूत सूक्ष्म रज-तम गुणों को अधिक मात्रा में आकर्षित कर अवशोषित करता है और प्रक्षेपित भी करता है ।
    • समय : व्यक्ति के लिए कोई विशिष्ट समय अच्छा अथवा बुरा हो सकता है । उदा. मृत पूर्वज अथवा अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण न होते हुए तथा कर्मचारियों का सहभाग तथा सहयोग, तकनीक, पूंजीनिवेश इ. घटक अच्छे होने पर भी उद्योगपति को भारी मात्रा में आर्थिक हानि होती है ।
    • एकत्रित कुकर्म : किसी देश, समाज अथवा वंश द्वारा किसी के साथ अत्यंत भयानक कुकृत्य किए जाने पर उसके कुल पापकर्मों में वृद्धि होती है । यहां पर किस विशिष्ट व्यक्ति का इसमें सहभाग था अथवा नहीं, इसका कोई महत्त्व नहीं होता । चुप रहना इसमें सहभागी होने समान ही है । समय के साथ संपूर्ण जनसंख्या को इसी जन्म में अथवा किसी अन्य जन्म में उसी मात्रा में भुगतना पडता है ।

मनुष्य के लिए प्रतिकूल ऐसे किसी भी घटक का आक्रमण करने के लिए अनिष्ट शक्तियां अनुचित लाभ उठाती हैं । साधना न करने वालों से वे भयभीत नहीं होती; क्योंकि उनकी आंखों में उनका कोई महत्त्व नहीं होता ।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम आध्यात्मिक साधना करें अथवा न करें हम पर आक्रमण हो सकता है । प्रथम चरण में किसी को लग सकता है कि साधना करने से अनिष्ट शक्तियों द्वारा आक्रमण होने की संभावना अधिक होगी । किसी धनिक अथवा अतिधनिक को अपहृत करने की संभावना अधिक होने समान यह है । परंतु धनिक व्यक्ति इसका सामना करने की अधिक क्षमता के साथ धनिक होने के कारण सुखों का अधिक उपभोग भी लेता है । इसी प्रकार आध्यात्मिक साधना करनेसे, हम पर अधिक आक्रमण होने के पश्‍चात भी हमें उसी अनुपात में ईश्वर द्वारा सुरक्षा-कवच प्राप्त होता है और इन आक्रमणों का सामना करने की हम क्षमता भी रखते हैं । जो लोग साधना नहीं करते, उनमें आध्यात्मिक शक्ति का अभाव होने से वे किसी भी स्तर की किसी भी अनिष्ट शक्ति के आक्रमण के बलि हो सकते हैं ।

यह बात निम्न उदाहरण से भी स्पष्ट हो सकती है । कभी-कभी हम अनेक वर्ष पढाई करते रहते हैं, जबकि अन्य कोई व्यक्ति जो मात्र हाईस्कूल की पढाई समाप्त कर अत्यल्प मात्रा में ही सही, धनार्जन करने लगता है; उसकी तुलना में पढाई करना कुछ मात्रा में कष्टप्रद हो सकता है । जब हम घर में बैठकर उबते हुए भी कई घंटे पढाई करने में बिताते हैं, तब ये लोग जीवन का आस्वाद लेते हैं अथवा चलचित्र इ. देखते है । तथापि इन शैक्षिक प्रयत्नों के कारण हमारी व्यावसायिक सीढियां चढने की क्षमता बढती है अथवा हमारे द्वारा चुने गए क्षेत्र में हमें सफलता मिलती है । इस सफलता के साथ हमें विविध सुविधाएं और उपलब्धियां प्राप्त होने लगती हैं, जबकि अन्य लोग इस संदर्भ में केवल इच्छा करते रहते हैं । इसके साथ दायित्व भी आता है क्योंकि हमारे पास लोगों की सहायता करने की और समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता आती है । इसी प्रकार आध्यात्मिक विकास के साथ यद्यपि अनिष्ट शक्तियां हमें प्रभावित करती हैं, हमें कई लाभ भी मिलते हैं । इनमें से कुछ लाभों पर हमने हमारे इस विभाग के आध्यात्मिक साधना के लाभ इस लेख में चर्चा की है ।

४. जिन समस्याओं का मूल कारण आध्यात्मिक स्तर पर है, ऐसी समस्याओं पर विजय प्राप्त करने का उद्देश्य

जिन समस्याओं का मूल कारण आध्यात्मिक स्तर पर है, केवल आध्यात्मिकता से संबंधित कृत्य ही उसकी तीव्रता सौम्य कर सकता है और उसे स्थायी रूप से हटा सकता है ।

१. विशिष्ट आध्यात्मिक उपचार : आध्यात्मिक उपचार एक ऐसा कर्म है, जो कि प्राथमिक रूप में विशिष्ट आध्यात्मिक समस्या पर विजय पाने के लिए किया जाता है । इस जालस्थल (वेबसाइट) पर हमने हमारे आध्यात्मिक उपचारों के विभाग में आध्यात्मिक उपचार पद्धतियों पर चर्चा की है । परंतु आध्यात्मिक प्रगति में इनका कोई योगदान नहीं होता ।

. आध्यात्मिक साधना : आध्यात्मिक साधना के मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार की साधना से आध्यात्मिक प्रगति होती है । इस प्रकार की साधना से आध्यात्मिक क्षमता में वृद्धि अथवा आध्यात्मिक विकास होता है, जो कि फलतः आध्यात्मिक विश्व के अनिष्ट घटकों से सुरक्षा-कवच प्रदान करते हैं । 

५. सारांश

इस लेख से लेने योग्य कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र सारांश में :

  • अगली बार जब आपके जीवन में समस्या उभर आए. तब समझ लें कि उसका कारण शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक हो सकता है । इसका मूल कारण आध्यात्मिक स्वरूप का होने की संभावना ही अधिक होगी ।
  • जीवन की सभी बडी समस्याएं प्रारब्ध के अनुसार होने की अधिक संभावना होती है, जो कि आध्यात्मिक स्वरूप की होती हैं और इसमें हमारा पुराना लेन-देन मिट जाता है ।
  • हमारे पूर्वज और अनिष्ट शक्तियां परिवार में शारीरिक, मानसिक इ. व्याधियों जैसी समस्याएं निर्माण कर सकती हैं । हमारा आध्यात्मिक स्तर निम्न होने पर हम इनके आक्रमणों के बलि हो जाते हैं ।
  • आध्यात्मिक साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार दृढतापूर्वक साधना करना, यही आध्यात्मिक आयाम से सुरक्षा पाने का एकमात्र उपाय है ।