हमारे जन्म से लेकर, हमारा जन्म किस परिवार में होगा, ऐसी अनेक घटनाएं हमारे प्रारब्ध के अनुसार घटती हैं । व्यक्ति उस परिवार में जन्म लेता है जिस परिवार की परिस्थिति उसके लिए उसका प्रारब्ध भोगने हेतु अनुकूल हो और उस परिवार के सभी सदस्यों से उसका बडी मात्रा में लेन-देन हो ।
कर्म का सिद्धांत है कि प्रत्येक सकारात्मक कर्म ‘पुण्य’ उत्पन्न करता है और प्रत्येक नकारात्मक कर्म ‘पाप’ उत्पन्न करता है । इसके कारण प्रत्येक व्यक्ति को कर्म का फल भुगतना ही पडता है । जब भी कोई दूसरों के लिए अच्छा कर्म करता है, फलस्वरूप उस व्यक्ति से उसे ‘धन्यवाद’ के साथ-साथ सकारात्मक फल अर्थात सुख भी प्राप्त होता है । जब भी हम किसी को हानि पहुंचाते हैं, उस समय हमें नकारात्मक फल (दु:ख के रूप में) प्राप्त होता है जिसका क्षालन केवल ‘क्षमा करें’, इतना कहने से नहीं होता ।
कर्म का सिद्धांत अपरिवर्तनशील है । कुछ सीमा तक यह न्यूटन की गति के तीसरे सिद्धांत के समान है, जो यह बोध कराता है कि ‘प्रत्येक क्रिया की समतुल्य और विपरीत प्रतिक्रिया होती है । (For every action there is an equal and opposite reaction.)’
जीवन की संपूर्ण यात्रा में हम किसी पुराने लेन-देन को चुका रहे होते हैं अथवा कोई नया लेन-देन बना रहे होते हैं । यह लेन-देन यदि इस जन्म में पूरा नहीं हुआ, तो उसे दूसरे जन्म में पूरा करना पडता है । हमने अपने गत जन्मों में जो लेन-देन बनाए हैं, उस विषय का हमें ज्ञान नहीं होता ।
अगले जन्म में यह भी संभव है कि परिवारवालों के साथ हमारा संबंध और लिंग बदल जाए । इस जन्म में यदि कोई पिता है तो अगले जन्म में वह अपने बेटे की बेटी के रूप में जन्म ले सकता है ।
निम्नलखित उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाएगा कि लेन-देन कैसे उत्पन्न होते हैं और कैसे प्रारब्ध बनकर उभरते हैं । यह भी ज्ञात होगा कि साधना से प्रारब्ध के परिणामों को कैसे शिथिल अथवा समाप्त किया जा सकता है ।
अध्यात्मशास्त्र के अनुसार हमारे परिवार के अधिकतर सदस्यों के साथ पिछले जन्मों का हमारा सकारात्मक अथवा नकारात्मक लेन-देन होता है । पिछले कर्मों के फल, जो सुख अथवा दु:ख के रूप में होते हैं, उन्हें भुगतने के लिए उन व्यक्तियों के संपर्क में रहना आवश्यक होता है ।
कर्म का सिद्धांत समझने से हमें यह ज्ञात होता है कि अध्यात्म में रुचि न रखने वाले और भौतिक जीवन जीने की चाह रखने वालों के लिए भी साधना कितनी आवश्यक है । प्रारब्ध के होते हुए भी भौतिक संबंधों को सुखमय बनाने के लिए साधना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।