१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को सूचित करने के उपरांत जानलेवा रोग से स्वस्थ होना
मैंने वर्ष १९८८ में साधना प्रारंभ की । वर्ष २००४ में, जब मेरा पुत्र लगभग १२ वर्ष का था तब उसने एक जलपान गृह (रेस्टोरेंट) में कुछ ऐसा खा लिया था जिससे वह बहुत बीमार पड गया । तीन दिन के उपरांत डॉक्टर ने कहा कि हमें इसे किसी जठरांत्रशोथ चिकित्सक (गैस्ट्रोएन्टराइटिस) से जांच करवाने हेतु मुंबई ले जाना चाहिए । मेरे पति एवं मैं त्वरित उसे लेकर मुंबई चले गए । जब डॉक्टर ने उसकी जांच की तब उसे त्वरित चिकित्सालय में भर्ती करवाया गया तथा शक्तिशाली स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक्स औषधियों के साथ पानी (सलार्इन) चढाया जाने लगा ।
आठ दिन के उपरांत भी अभी तक कोई सुधार नहीं हुआ था । कुछ न खाने के कारण उस समय तक मेरे पुत्र का वजन अत्यधिक घट गया था । चिकित्सक ने एंडोस्कोपी की तथा उसने बताया कि हम हमारे पुत्र को कभी भी खो सकते हैं । इसका कारण था कि संक्रमण इतना अधिक हो गया था कि यदि कोई नस फट जाए तो उसके साथ वाले अंग में भी संक्रमण फैल सकता था तथा यह जानलेवा रोग बन सकता था ।
मैं आैर मेरे पति बडे दुख से बात कर रहे थे कि माता-पिता के लिए एक दु:स्वप्न होगा कि – अपने पुत् की संभावित मृत्यु के लिए अपने मन को तैयार करना । इसके साथ-साथ हम उसे चिकित्सीय उपचार के लिए अमेरिका ले जाने का भी नियोजन कर रहे थे । उस समय, मेलबर्न से मेरे भाई का दूरभाष आया तथा मैंने उसे स्थिति की गंभीरता बताई । उसी दिन उसने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से बात करके उन्हें मेरे बेटे की स्थिति के विषय में बताया । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कहा कि चिंता करने की आवश्यकता नहीं है तथा सब कुछ ठीक हो जाएगा । मेरे भाई ने जैसे ही मुझे सन्देश दिया, तब अनायास ही हमारा पुत्र १२ दिनों में पहली बार चार घंटे तक गहरी नीद में सो गया । जब वह उठा तो उसने जेली एवं एक केला खाने की इच्छा प्रकट की । वह स्वस्थ दिख रहा था तथा सगे-संबंधियों से बातचीत कर रहा था जो उसकी गंभीर स्थिति के बारे में सुनकर चिकित्सालय आए हुए थे । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी एवं ईश्वर के प्रति अत्यधिक कृतज्ञता के भाव के साथ मैं चिकित्सालय से निकली । रक्त की जांच हुई और उसके परिणाम यह आए कि श्वेत रक्त कोशिकाएं की मात्रा पुनः सामान्य हो चुकीं थी । अगले ही दिन उसे चिकित्सालय से मुक्त कर दिया गया क्योंकि अब उसके शरीर में कोई संक्रमण शेष नहीं था ।पूरे परिवार की चिंता दूर हुई तथा चिकित्सक ने इस पर अपना आश्चर्य प्रकट किया कि उसने इतने गंभीर रोग में इतना शीघ्र परिवर्तन होते हुए पहले कभी नहीं देखा था ।
२. समय से परे जाना
जब मैंने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में साधना आरंभ की तब मैं एक फैशन मॉडल थी । उस समय, एक बार उन्होंने बताया कि मैं किसी दिन मोटापे से ग्रस्त हो जाऊंगी । मुझे सदैव मोटे होने का भय रहता था तथा इसलिए मैंने उनसे त्वरित पूछा कि क्या मैं पुनः दुबली हो पाऊंगी, इसके उत्तर में वे बोले, “समय रहते” । जिस क्षण उन्होंने ये शब्द कहे, तब मैं एक ऐसे आयाम में पहुंच गई जो समय से परे था । वहां, मुझमें एक दृढ विश्वास उत्पन्न हुआ कि इससे मुझे कोई प्रभाव नहीं पडता कि मेरे शरीर को क्या हुआ है । परिणामस्वरूप, जब मैं पुनः सामान्य चेतना में आई, तब मैंने स्वयं को परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के निकट बैठे पाया एवं मेरा मोटापे का भय दूर हो गया ।
कुछ वर्षों के उपरांत, जैसा कि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कहा था, कुछ ही माह की अवधि में मेरा वजन ९५ किलो हो गया । भोजन पर मेरा बिलकुल नियंत्रण नहीं रहा एवं मैं खाती रहती तथा मेरी भूख तृप्त नहीं हो पाती थी । जो लोग मुझे मॉडल के रूप में जानते थे, वे मेरी नई अवस्था को देखकर अप्रिय रूप से आश्चर्यचकित थे । जब मैंने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से भेंट की और उनसे पूछा कि इस समस्या पर विजय प्राप्त कैसे की जा सकती है, तब उन्होंने कहा कि यह एक आध्यात्मिक समस्या है । उपचार के रूप में, उन्होंने मुझे एक नामजप करने को कहा । उन्होंने यह भी कहा कि मुझे अध्यात्मप्रसार की सत्सेवा भी करनी चाहिए ।
मुझे अपने वजन के पुनः सामान्य होने के समय की प्रतीक्षा थी ।
३ वर्षों तक, मैंने उनके बताए अनुसार लगन से अभ्यास किया । उस समय में, मैंने सीखा कि मोटे होने के भी अपने लाभ तथा नुकसान हैं । यद्यपि स्पष्ट कारणों के कारण मुझे मोटापा पसंद नहीं था किंतु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मुझे इसका यह लाभ हुआ कि समाज मेरे बारे में क्या सोचता है, यह मैंने अनदेखा करना सीखा तथा इसके स्थान पर ईश्वर के साथ अपने भीतर के संबंध को और विकसित किया ।
एक दिन जब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के निवास पर मेरी उनसे भेंट हुई, तब उन्होंने हम कुछ साधकों को भोजन परोसा जो कि उनकी पत्नी ने बनाया था । हम १७ लोग थे तथा केवल मुझे छोडकर उन्होंने सभी को स्वयं अपने हाथों से भोजन परोसा । किंतु जब वे अगले साधक को परोसने के लिए मेरे निकट से निकले तब मुझे बुरा नहीं लगा क्योंकि मेरे भीतर से यह स्वर सुनाई दिए कि मुझे नहीं खाना चाहिए और यह मुझ पर उनकी एक कृपा थी । कुछ ही देर पश्चात वे पुनः मेरे पास आए तथा मुझे केवल १२ अंगूर का एक प्याला दिया । पुनः मेरे भीतर से स्वर सुनाई दिया कि मुझे प्रतिदिन केवल १२ अंगूर खाने चाहिए ।
मैं बहुत ही सहजता से इस आहार का पालन कर पा रही थी तथा आश्चर्य की बात यह थी कि मुझे अब कोई भूख अनुभव नहीं होती, न हीं सिर में वेदना होती अथवा न चक्कर आते । इसके विपरीत, यह नई आहार व्यवस्था बहुत ही आनंददायक थी । उस समय मुझे ऐसा लगता जैसे मैं तैर रही हूं तथा मुझे अपने भीतर हल्कापन अनुभव होता । अपना सामान्य कार्य करते समय अथवा अपने सामाजिक जीवन (जिसमें पार्टियां भी सम्मिलित थी) जीते समय भी, मुझे खाने का प्रलोभन नहीं होता । १६वें दिन, मुझे थोडी भूख लगी, इसलिए मैंने धीरे- धीरे खाना आरंभ किया । उस समय, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मुझे ५ लीटर कोकम (मुख्य रूप से भारत में पाए जाने वाले एक प्रकार के पौधे पर लगा होता है) का रस दिया । मैंने उसे मुख्य रूप से अगले कुछ सप्ताह तक ही लिया । पांच माह की अवधि में मेरा वजन ९५ किलो से ६३ किलो हो गया । यह मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी कि मेरा वजन इतनी सहजता से घट गया और इसमें कोई कष्ट भी नहीं हुआ । यह सब “समय के रहते” ही हुआ क्योंकि मुझे आध्यात्मप्रसार के उद्देश्य से अमेरिका के लिए जाना था ।