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१. प्रस्तावना

पूरे विश्व में, अनेक परिवार तथा उनके चिकित्सकों को प्रतिदिन यह वेदनादायी निर्णय लेना पडता है कि क्या अपने प्रियजन को यातनाओं से मुक्त करने हेतु उसे जानबूझकर मरने दिया जाए । इसे सामान्यतः इच्छा मृत्यु कहा जाता है । इससे संबंधित कानून देश के अनुसार भिन्न होते हैं ।

इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द से हुई है, जिसका शब्दार्थ है, अच्छी मृत्यु । इसके अनेक प्रकार हैं । इसकी कुछ परिभाषा आगे दिएनुसार हैं :

  • स्वैच्छिक इच्छा मृत्यु : इसका संबंध उस निर्णय से है, जिसमें चिकित्सक और रोगी दोनों मिलकर (लिखित अनुमति के साथ) रोगी का जीवन समाप्त करने का निर्णय लेते हैं । यह केवल उसी रोगी तक सीमित है, जो असाध्य रोग से ग्रस्त हो और चिकित्सक को बार-बार जीवन समाप्त करने की विनती कर रहा हो । (संदर्भ : Medterms.com)
  • अनैच्छिक इच्छामृत्यु : जब रोगी इच्छामृत्यु की विनती करने (कदाचित अचेत होने अथवा अपनी इच्छा प्रकट करने में असमर्थ हो, तो) अथवा जीवित रहने तथा मरने में चयन करने में सक्षम न हो, तब इसका संबंध आता है । ऐसे प्रकरण में मरनेवाले व्यक्ति की ओर से योग्य व्यक्ति उसके मृत्युपत्र अथवा भूतकाल में प्रकट की इच्छा के अनुसार निर्णय करता है । व्यक्ति के संदर्भ में निर्णय लेने अथवा इच्छा प्रकट करने की असमर्थता की परिस्थितियां इस प्रकार हैं :
    • व्यक्ति का अचेत अवस्था (कोमा में) होना
    • व्यक्ति की आयु बहुत अल्प होना (उदा. एक नन्हा शिशु)
    • अतिवृद्ध व्यक्ति
    • व्यक्ति का गंभीर रूप से मनोरोगी होना
    • व्यक्ति के मस्तिष्क को अत्यधिक हानि पहुंचना
    • मानसिक दृष्टि से व्यक्ति का इतना अस्थिर होना कि उसे अपनेआप से ही बचाने की आवश्यकता होना । (संदर्भ : About.com)
  • सक्रिय इच्छामृत्यु : प्राणघातक औषधि का इंजेक्शन देने जैसा कृत्य कर जानबूझकर व्यक्ति को मारना ।
  • निष्क्रिय इच्छामृत्यु : व्यक्ति के लिए आवश्यक/सामान्य (नित्य और प्रथानुसार) ध्यान अथवा अन्न एवं जल की आपूर्ति न कर जानबूझकर मृत्यु के मुख में धकेलना ।

इच्छामृत्यु सदैव एक विवादास्पद तथा तर्क-वितर्क का विषय रहा है । Medterms.com में इस विवाद को संक्षेप में वर्णित किया है: यह एक ऐसा विषय है, जिसके बारे में अनेक मत हैं – उत्साही समर्थन, सशर्त समर्थन, सीधा अस्वीकार, कठोर निंदा । इसे हत्यासमान मानकर इसका तीव्र धिक्कार भी किया जाता है ।

२. कुछ आध्यात्मिक सिद्धांत

इस लेख में हम इच्छामृत्यु की ओर केवल आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से देखेंगे । इच्छामृत्यु की क्रिया को आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से देखने से पूर्व हम कुछ आध्यात्मिक परिकल्पनाओं से परिचित होंगे ।

२.१ प्रारब्ध

Destiny-Thumbnailप्रारब्ध हमारे जीवन का वह अंग है, जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता । हमारे जीवन की लगभग सभी बडी घटनाएं सामान्यतः प्रारब्धाधीन होती हैं । प्रारब्ध पर विस्तृत जानकारी के लिए हमारे प्रारब्ध, इस अनुभाग का संदर्भ लें ।

 

२.२ जीवन का आध्यात्मिक उद्देश्य

Purpose-of-life-thumbnailआध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से हमारे जन्म के दो मूल कारण हैं । ये कारण हमारे जीवन के मूल उद्देश्यों को परिभाषित करते हैं । ये हैं :

  • प्रारब्ध और विविध लोगों के साथ अपना लेन-देन समाप्त करना ।

  • आध्यात्मिक उन्नति कर अंत में ईश्वर से एकरूप होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाना ।

मनुष्यजन्म अमूल्य है क्योंकि हमें केवल भूलोक में ही आध्यात्मिक उन्नति करने का उत्तम अवसर मिलता है । जीवन का आध्यात्मिक उद्देश्य, इस लेख का संदर्भ लें ।

२.३ मृत्युसमय की परिकल्पना

Time-of-death-thumbnailकभी न कभी हम सभी की मृत्यु होगी और यह प्रारब्ध के अनुसार निश्चित होता है । हमारे जीवन में अपने प्रारब्धानुसार कुछ ऐसे पूर्वनियोजित काल होते हैं, जिनमें हमारी मृत्यु हो सकती है । व्यक्ति के मृत्यु की प्रक्रिया भिन्न हो सकती है और उसका प्राब्धानुसार होना आवश्यक नहीं होता । उदाहरण के रूप में, पूर्वनियोजित काल के अनुसार यदि व्यक्ति की मृत्यु होनी है, तो वह होगी ही । मृत्यु का मार्ग इच्छामरण अथवा आत्महत्या अथवा सामान्य चिकित्सकीय कारण आदि में से कोई भी हो सकता है । महामृत्युयोग (अटल मृत्यु) की घटना में यह कारण आत्महत्या, इच्छामृत्यु होने की संभावना अत्यल्प होती है । मृत्यु किसी स्वाभाविक रूप में हो, इसकी व्यवस्था ईश्वर करते हैं । जिन लोगों को भीषण मृत्यु का सामना करना पडता है, वह उनके प्रारब्धानुसार होता है ।

 मृत्यु का समय, इस लेख का संदर्भ लें ।

३. इच्छा-मृत्यु – आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य

इस अनुभाग में हम कुछ दृष्टिकोण देखेंगे, जिससे यदि हमें अथवा हमारे प्रिय जनों को इच्छामृत्यु का सामना करना पडे, तो हमें अतिरिक्त दृष्टिकोण मिल सकते हैं ।

इस लेख के संदर्भ में जब हमने शोध किया, तब बीबीसी के इथिक्स नामक जालस्थल (वेबसाईट) का पता चला, जिसमें लिखा है :

इच्छामृत्यु ईश्वर के शब्दों तथा इच्छा के विरूद्ध है

धार्मिक लोग इस विषय पर तर्क नहीं करते कि हम अपनी हत्या नहीं कर सकते हैं अथवा अन्यों से करवा नहीं सकते हैं । उन्हें पता है कि हम यह कर सकते हैं; क्योंकि ईश्वर ने हमें इच्छा की स्वतंत्रता प्रदान की है । वास्तव में उनका कहना है कि ऐसा करना हमारे लिए उचित नहीं है ।

वे मानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य ईश्वर की रचना है और इससे हम पर कुछ मर्यादाएं आती हैं । हमारा जीवन केवल हमारा ही नहीं होता, जिससे कि हम अपने मनानुसार इसका कुछ भी कर लें ।

किसी की हत्या करना अथवा किसी के सहयोग से ऐसा करवाना, ईश्वर के अस्तित्व को, हमारे जीवन पर ईश्वर के अधिकार को, हमारी जीवनमर्यादा तथा जीवन का अंत निश्चित करने के उनके अधिकार को नकारना है ।

संदर्भ : BBC on Euthanasia

संपादकीय टिप्पणी :

  • इच्छामृत्यु की ओर देखने का यह सतही और एकांगी दृष्टिकोण है । भक्तिमार्गानुसार यदि हम अपने जीवन की ओर देखेंगे, तो समझ में आएगा कि ऐसी कोई घटना हमारे जीवन में नहीं है, जो ईश्वर की इच्छानुसार नहीं होती । ईश्वर का हमारे जीवन पर पूर्ण अधिकार है और उसका हम उल्लंघन नहीं कर सकते ।
  • कर्मयोगानुसार हमारा जीवन ६५ प्रतिशत मात्रा में प्रारब्धाधीन होता है और ३५ प्रतिशत अपनी मुक्त इच्छानुसार होता है । ऐसा सदैव नहीं होता कि इच्छामृत्यु का निर्णय इच्छानुसार ही होगा । हमारे इस निर्णय की फलनिष्पत्ति को कई आध्यात्मिक घटक प्रभावित कर सकते हैं ।

३.१ साधना करने की क्षमता

clip_image005जीवन के आध्यात्मिक उद्देश्य को देखा जाए, तो यदि रोगी साधना करने की स्थिति में होगा, तो उसे इच्छामृत्यु का समर्थन नहीं करना चाहिए । यह इसलिए कि सूक्ष्म-देह की तुलना में स्थूलदेह में रहकर साधना करना सरल होता है ।

भूलोक की तुलना में भुवर्लोक तथा पाताल में अधिक कष्ट सहने पडते हैं । इन सूक्ष्मलोकों में सूक्ष्मदेहों को नगण्य अथवा अत्यल्प सुख भोगने को मिलता है । जब कोई पाताल के निम्न लोकों में जाता है तब साधना करने की उसकी क्षमता क्षीण हो जाती है, यहां उसके भोग भोगने की तीव्रता बढती जाती है ।

HIN_Regions

कुछ मुख्य पंथों की श्रद्धा के विपरीत, कलियुग के इस वर्तमान समय में १ प्रतिशत से भी अल्प लोग स्वर्ग में जाते हैं । स्वर्ग में सभी लिंगदेह उनके पुण्यों के फल का आस्वाद लेने में मग्न होते हैं और साधना करना भूल जाते हैं । केवल महर्लोक तथा उससे उच्च लोकों में जहां मृत्यु के उपरांत ०.१ प्रतिशत से भी अल्प लोग जा पाते हैं, साधना करते हैं । भुवर्लोक तथा उसके नीचे के लोक में जानेवाले सूक्ष्मदेह पर भूलोक में रहनेवाले जीवों की तुलना में उच्च अनिष्ट शक्तियों द्वारा आक्रमण अधिक होते हैं । मृत्यु के उपरांत सूक्ष्म-देह कौन से लोक में जाते हैं, इस अनुभाग का संदर्भ लें ।

सारांश यह है कि सामान्य रोगी के लिए इच्छा-मृत्यु का चयन करने से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता । मृत्यु शीघ्र होने से सूक्ष्म-लोकों में जाकर साधना करने की अथवा दुःख सहने की क्षमता रहेगी, ऐसा नहीं है । परंतु व्यक्ति को इच्छा-मृत्यु की इच्छा के कारणोंनुसार उसका फल मिलता है ।

खंड ४.२ ऐच्छिक इच्छा-मृत्यु की मांग करनेवाले व्यक्ति द्वारा होनेवाले पाप का संदर्भ लें ।

.२ आध्यात्मिक स्तर

Spiritual-level-thumbnailअचेत (कोमा) अवस्था अथवा स्थायी वानस्पातिक निष्क्रिय अवस्था में पडे व्यक्ति का अंतर्मन तथा लेन-देन केंद्र कार्यरत रहता है । अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना करनेवाले और जिसका आध्यात्मिक स्तर ५० -६० प्रतिशत है, उसकी साधना अंतर्मन में चलती रहती है । अचेतावस्था में जाने से पहले यदि किसी पर साधना का दृढ संस्कार न हुआ हो, तो उसके लिए इस अवस्था में साधना आरंभ करना संभव नहीं होता । सामान्य आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति जो असाध्य रोग से पीडित हो और जिसके मन की शक्ति अच्छी हो, वह यदि साधना में मन एकाग्र करेगा, तो मृत्यु के पूर्व उसकी वेदना न्यून होगी और साथ ही मृत्योपरांत जीवन में उसे लाभ होगा । सैद्धांतिक रूप से यह संभव लगता है, किंतु असाध्य व्याधि से ग्रस्त तथा उसे भोगते समय व्यक्ति के लिए अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतां के अनुसार साधना करना कठिन होता है । ऐसी स्थिति में उपशामक उपचारों से लाभ हो सकता है – उपशामक उपचार, इस अनुभाग का संदर्भ लें ।

मन की कार्यात्मक रचना और नामजप कैसे कार्य करता है, SSRF के इस व्याख्यान का संदर्भ लें ।

३.३ स्थायी वानस्पातिक निष्क्रिय अवस्था (वेजीटेटिव स्टेट)

जब अपने प्रियजन की व्याधि के ठीक होने की कोई भी आशा न हो और वह सदैव वानस्पातिक निष्क्रिय अवस्था (वेजीटेटिव स्टेट) में ही पडा हो, तब हमारा दृष्टिकोण क्या होना चाहिए?

व्यक्ति के लिए ऐसी स्थिति उसके प्रारब्ध के कारण ही आती है । इसका प्रभाव रोगी व्यक्ति तथा उसके सगे-संबंधियों पर पडता है ।

यह प्रभाव रोगी की देखभाल करनेवाले तथा रोगी के मध्य होनेवाले लेन-देन पर निर्भर करता है । यदि रोगी का जीवन लेन-देन समाप्त होने के पहले समाप्त किया जाए, अथवा प्रारब्धानुसार निर्धारित दुःख भोगने से पहले समाप्त किया जाए, तो उसे अगले जन्म में भोगना पडेगा । अतः हम उसकी वेदना भले ही इस जन्म में समाप्त कर दें; किंतु उसे दुख आगे के किसी जन्म में उसे भोगना ही पडेगा । आगे के जन्म में इस भोग की कालावधि तथा तीव्रता में परिवर्तन हो सकता है । उदा. इस जन्म में रोगी एवं उसके सगे-संबंधी इच्छा-मृत्यु के कारण ५ वर्षों में भोगे जानेवाले १० इकाई मात्रा दुःख भोगने से बच जाते हैं । परंतु आगे के जन्म में यही मात्रा २५ इकाई हो सकती है जिसे दो ही वर्षों में भोगकर समाप्त करना पडता है ।

साथ ही सगे-संबंधियों को यह भी देखना चाहिए कि इच्छा-मृत्यु का वास्तविक कारण क्या है । उदा. क्या यह उनके सुख के लिए है ? अथवा सांसारिक सुखों में रममाण होने के लिए वे इस दुःख से मुक्त होना चाहते हैं ? अथवा वे इस समय का सदुपयोग अध्यात्मप्रसार के लिए करना चाहते हैं ? उद्देश्य के अनुसार परिजनों को पाप अथवा पुण्य भोगना पडता है अथवा कभी-कभी वे कर्मफलन्याय के भी परे चले जाते हैं ।

जीवन की समस्याओं के मूल आध्यात्मिक कारण – इस लेख का संदर्भ लें ।

३.४ रोग के ठीक होने की संभावना न होते हुए भी रोगी को जीवित रखने के प्रयत्नों का परिप्रेक्ष्य

निर्णय करनेवाले चिकित्सक निरंतर इस नैतिक दुविधा में रहते हैं कि उनके पास उपलब्ध सीमित साधन-संपत्ति का उपयोग ऐसे रोगियों के लिए करें अथवा नहीं । अन्य रोगियों को आवश्यक होने पर भी ऐसे वानस्पातिक निष्क्रिय अवस्था (वेजीटेटिव स्टेट) के रोगी पर (जिसके ठीक होने की कोई संभावना नहीं है) वे साधन व्यय क्यों करें ?

ऐसी परिस्थिति में आध्यात्मिक दृष्टि से क्या योग्य है, यह निश्चित करने में निम्नलिखित कुछ बिंदु सहायक होंगे :

  • हमारे जीवन का प्रधान उद्देश्य साधना कर आध्यात्मिक उन्नति करना होता है । यदि व्यक्ति साधना करने में सक्षम है अथवा उपशामक उपचारों के रूप में आध्यात्मिक उपचार वह स्वीकार करता है, तो जीवन बढा सकते है । संदर्भ लें – अनुभाग ६ – व्याधि की अंतिम अवस्था में रोगी के उपशामक देखभाल लिए क्या किया जा सकता है ?
  • यदि उपरोक्तानुसार संभव नहीं है, तो उसे इच्छा-मृत्यु दे सकते हैं और उपलब्ध साधन का उपयोग अन्य रोगी जो थोडी साधना कर सकते हैं, उनके लिए करें । साधना के सिद्धांत के अनुसार किसी व्यक्ति (व्यष्टि) की तुलना में समष्टि (समाज) का महत्त्व अधिक होता है । इस सिद्धांत के अनुसार यह है ।

३.५ साधना में बाधा

स्थायी वानस्पातिक निष्क्रिय अवस्था में पडे रोगी की देखभाल करना यदि साधना में बाधा बन रहा हो, तो कभी-कभी परिजन इच्छा-मृत्यु के संदर्भ में सोच सकते है । यदि इसका शुद्ध उद्देश्य उपलब्ध समय तथा साधन-संपत्ति का उपयोग साधना के लिए ही करना हो, तो पाप की मात्रा अत्यल्प हो जाती है ।

३.६ भोग एवं आत्मसम्मान खोना – एक परिप्रेक्ष्य

शारिरीक क्रियाकलापों के लिए अन्यों पर निर्भर रहने से अपनी गोपनीयता और आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है । इसलिए ऐसी अवस्था से कुछ लोगों को मृत्यु अच्छी लगती है । एक अच्छा साधक इस चुनौती भरे समय का उपयोग अपने अहं और देहभान घटाने के लिए कर, आध्यात्मिक उन्नति करता है । अहं तथा देहभान आध्यात्मिक प्रगति में बाधक हैं ।

Pethe-Aji-Wellवर्ष २००८ में SSRF के मार्गदर्शन में साधना करनेवाली संत पूजनीय पेठेदादी को पक्षाघात हुआ, जिससे ४ महिनों तक उन्हें अन्य साधकों पर अपनी दैनिक क्रियाकलापों के लिए निर्भर होना पडा । परंतु इन ४ महिनों में साधनारत होने के कारण वे अपना आध्यात्मिक स्तर निर्वाण समय तक ४ प्रतिशत अर्थात ७४ से ७८ प्रतिशत तक बढाने में सफल हुईं । उनकी सेवा में लगे साधकों को आध्यात्मिक उपचार होने का अनुभव होता था । जीवन में आनेवाली समस्याओं का लाभ हम आध्यात्मिक स्तर पर किस प्रकार उठा सकते हैं, यह समझने के लिए हम यह उदाहरण दे रहे हैं । बीमारी की अंतिम अवस्था में पहुंचे अनेक साधकों की इसी गति से आध्यात्मिक प्रगति हुई है ।

३.७  मृत्यु का अधिकार – एक परिप्रेक्ष्य

कई लोगों को लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपने शरीर तथा जीवन पर अधिकार है और इसलिए किस समय, किस प्रकार और किसके हाथों मरना है, यह वो निश्चित कर सकता है ।

हमें यह समझना होगा कि भक्तियोगानुसार इस ब्रह्मांड में ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ नहीं होता । अतः अच्छा होगा कि ये लोग अपने इस अधिकार का उपयोग कर आध्यात्मिक प्रगति करें, जिसके लिए हमें यह जीवन प्रदान किया गया है ।

४. इच्छा-मृत्यु और पाप

ब्रह्मांड में कुल १४ सूक्ष्म-लोक होते हैं । इनमें ७ सकारात्मक,तो शेष ७ नकारात्मक होते हैं । नकारात्मक लोकों को पाताल के नाम से जाना जाता है । मुख्य लोक में अनेक उप-लोक होते हैं ।

सामान्यतः हमारे प्रत्येककृत्य से पाप अथवा पुण्य अथवा दोनों निर्मित होता है । हमारे पाप-पुण्य तथा अहं की स्थिति के अनुसार मृत्यु के समय हम ब्रह्मांड के विभिन्न लोकों में जाते हैं । उदा. जिसका पुण्य अधिक है वह स्वर्गलोक में जाएगा, तो पाप अधिक होने पर सप्तपाताल में से किसी लोक में जाएगा । किसी कृत्य के पीछे निहित उद्देश्य से यह निश्चित होता है कि व्यक्ति पापार्जन करेगा अथवा पुण्यार्जन ।

पाप की तीव्रता और फलस्वरूप निर्मित लेन-देन का निपटारा १+१=२, इस प्रकार के गणितीय समीकरण के समान सरल नहीं होता; इसमें अनेक प्रकार के घटक अंतर्भूत होते हैं, जो निम्नलिखित हैं :

  • कृत्य करने का उद्देश्य । (किसी कृत्य का उद्देश्य अपने कट्टर दृष्टिकोण के अनुसार नहीं; अपितु आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से मेल खानेवाला होना चाहिए ।)
  • कृत्य करने के समय की प्रत्यक्ष स्थिति
  • कृत्य के कारण व्यक्ति के जीवन में हुई यातनाएं तथा लोगों पर उस कृत्य का प्रभाव
  • कृत्य करनेवाले व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर
  • लेन-देन का निपटारा हुआ अथवा नया निर्माण हुआ
  • किस व्यक्ति की हानि हुई (सामान्य व्यक्ति, साधक, संत अथवा आध्यात्मिक संगठन इत्यादि)

४.१ इच्छा-मृत्यु में सहायता करनेवाले व्यक्ति को लगनेवाला पाप

इच्छा-मृत्यु के प्रकरण में यदि कोई चिकित्सक अच्छे उद्देश्य से व्यक्ति को उसके दुःख से मुक्त करता है, तो उसके लिए पाप के साथ पुण्य भी निर्मित होता है । इच्छा-मृत्यु के उद्देश्य के आधार पर चिकित्सक के पाप-पुण्य की मात्रा निश्चित होती है । निम्न कुछ उदाहरण हैं, जो १ से १०० के पैमाने पर पापजनक और पुण्यकारी कृत्यों से निर्मित पाप अथवा पुण्य की तीव्रता पर प्रकाश डालते हैं ।

  • संतों के प्राण बचाने पर सर्वाधिक (१०० प्रतिशत) पुण्य मिलता है ।
  • संतों की हत्या करने पर सर्वाधिक (१०० प्रतिशत) पाप निर्मित होता है । धर्मप्रसार करनेवाले संत पर यह १०० प्रतिशत लागू होता है ।
  • इच्छा-मृत्यु के कृत्य में सामान्य व्यक्ति की यातनाएं न्यून करने के उद्देश्य से सहयोगी चिकित्सक के लिए पाप १ प्रतिशत और पुण्य १ प्रतिशत होता है ।

जीवन समाप्त करने के कृत्य के कारण पापार्जन होता है । मनुष्य जन्म अमूल्य होता है; क्योंकि इससे हमें साधना कर जीवन का ध्येय साध्य करने का अवसर मिलता है । हमारा पुनर्जन्म कितनी बार होता है ? – इस अनुभाग का संदर्भ लें ।

पहले किए उल्लेखानुसार ब्रह्मांड में (स्वर्ग और उससे नीचे) भूलोक ही एक ऐसा लोक है, जहां लोग प्रत्यक्ष साधना कर सकते हैं । साधना न करनेवाले व्यक्ति की हत्या करने पर वह साधना से वंचित हो जाता है और पाप अधिक मात्रा में बढता है ।

साधक के परिप्रेक्ष्य से यह महत्त्वपूर्ण है कि पाप और पुण्य हमें जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसाते हैं और हम साधक उनके परे जा सकते हैं । यह मात्र साधना से ही संभव है । अकर्म-कर्म का सिद्धांत का संदर्भ लें ।

४.२ ऐच्छिक इच्छा-मृत्यु की मांग करनेवाले व्यक्ति द्वारा अर्जित पाप

यदि व्यक्ति सचेत है और मृत्यु की मांग करता है, तो ऐसी स्थिति में इच्छा-मृत्यु से यहां भी पापार्जन होता है । आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से पीडित व्यक्ति (जहां ठीक होने की कोई संभावना नहीं है) यदि अन्य किसी की सहायता से स्वयं का जीवन समाप्त कर देता है, तो उसे आत्महत्या समझा जाता है । इसमें पाप की तीव्रता इच्छा-मृत्यु की मांग के पीछे निहित उद्देश्य पर निर्भर होती है । कुछ प्रकरणों में कभी-कभी व्यक्ति को उसकी इच्छा-मृत्यु में निहित उद्देश्य के अनुसार पुण्य की प्राप्ति भी हो सकती है ।

मृत्यु के समीप पहुंचे व्यक्ति के विचार उसके आध्यात्मिक स्तरानुसार विविध प्रकार के होते हैं ।

  • व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अधिक होने पर उसका दृष्टिकोण इस प्रकार होगा कि सबकुछ ईश्वर की इच्छा से हो । यहां व्यक्ति अपने कष्टों को तथा प्रतिकूल परिस्थिति की ओर साक्षीभाव से देखता है ।
  • इससे अल्प आध्यात्मिक स्तर होने पर प्रायः व्यक्ति को लगता है कि सबकुछ उसकी इच्छानुसार हो ।

इच्छा-मृत्यु के उद्देश्य के अनुसार अर्जित पाप एवं पुण्य की मात्रा दर्शाने वाले कुछ उदाहरण नीचे दिए हैं ।

इच्छा-मृत्यु के उद्देश्य के अनुसार अर्जित पाप एवं पुण्य की मात्रा

उद्देश्य पाप एवं पुण्य
मैं और कष्ट नहीं चाहता अधिक पाप
परिस्थिति एवं तीव्र वेदना के कारण निराश होना । अल्प पाप
मेरे ठीक होने की कोई संभावना न होने से मुझ पर व्यय होनेवाली साधन-संपत्ति का अन्य किसी को लाभ हो सकता है । अधिक पुण्य
यदि मेरी मृत्यु हो जाएगी,  शीघ्रता से अगला जन्म लेकर मैं साधना जारी रख सकता हूं । अधिक पुण्य एवं अल्प पाप

५. इच्छा-मृत्यु और मृत्यु का समय

ऊपर के खंड में हमने मृत्यु के समय का सिद्धांत समझ लिया । यदि व्यक्ति की मृत्यु का समय निश्चित मृत्यु (महामृत्युयोग) के अनुसार समीप आया हो, तो कोई भी वैधानिक बाधा मृत्यु को रोक नहीं सकती । मृत्यु का कारण इच्छा-मृत्यु अथवा बीमारी कुछ भी हो सकता है ।

वर्ष २००९ में इच्छा-मृत्यु पर प्रकाशित समाचार लेख से यह अधिक स्पष्ट होगा :

वर्ष १९९२ में हुई कार दुर्घटना की पीडित, १७ वर्षों से स्थायी वानस्पतिक निष्क्रिय (वेजीटेटिव स्टेट) अवस्था में रही तथा मृत्यु के अधिकार के लिए बहुचर्चित इटली की एक महिला को एक चिकित्सालय में लाया गया, जहां उसे इच्छा-मृत्यु दी जानेवाली थी । वर्ष १९९९ से उसके पिता ईटली के न्यायालय से यह बताते हुए संघर्ष कर रहे थे कि इच्छा-मृत्यु की उसकी इच्छा थी । जुलाई में मिलान के न्यायालय ने स्वीकार किया कि डॉक्टरों द्वारा घोषित इस महिला की अचेतावस्था कभी ठीक नहीं होनेवाली है । न्यायालय ने यह भी स्वीकार किया कि दुर्घटना के पहले उसने कृत्रिमता से जीवित रहने की अपेक्षा मरने की इच्छा व्यक्त की थी । राज्य के अधिवक्ताओं ने इस निर्णय को चुनौती दी । परंतु नवंबर में रोम के उच्चतम न्यायालय ने इस चुनाती को निरस्त कर दिया । ईटली के स्वास्थ्य मंत्रालय ने उस क्षेत्र के सभी चिकित्सालयों को उसकी सहायता न करने के आदेश दिए; परंतु २१ जनवरी को मिलान के न्यायालय ने इस आदेश को निरस्त कर दिया । उडीन, इटली में वृद्धों के एक निजी चिकित्सालय ने उसे भर्ती कर इच्छा-मृत्यु देने की अनुमति दी ।

उपर्युक्त कहानी का सूक्ष्म-विश्‍लेषण

  • हमारे जीवन की सभी बडी घटनाएं प्रारब्धाधीन होती हैं । कार दुर्घटना होकर उस महिला का वानस्पतिक निष्क्रिय (वेजीटेटिव स्टेट) अवस्था में जाना उसके प्रारब्ध के अनुसार था ।
  • वर्ष १९९२ में उसके साथ जब कार दुर्घटना हुई, तब वह समय उसके लिए संभाव्य मृत्यु (अपमृत्यु) काल था ।
  • उसकी मृत्यु के लिए उसके पिता ने लगातार कई वर्षों तक संघर्ष किया, परंतु कुछ भी नहीं हुआ । इसका कारण यह था कि उसके प्रारब्धानुसार उसकी मृत्यु का समय नहीं आया था ।
  • अब जैसे ही वह अपनी निश्चित मृत्यु (महामृत्युयोग) के समीप आ गई, न्यायालय ने उसके पिता की इच्छा-मृत्यु की मांग को स्वीकार किया ।
  • निश्चित मृत्यु के समयानुसार यदि किसी की मृत्यु होनी हो, तो उसकी मृत्यु इच्छा-मृत्यु के कारण अथवा उसके बिना भी हो जाती है । परंतु अधिकतर घटनाओं में निश्चित मृत्यु इच्छा-मृत्यु के कारण नहीं, अपितु अन्य प्राकृतिक कारणों से ही होती है ।

६. बीमारी के अंतिम चरण में (मृत्युसमीप पहुंचे) रोगी पर उपशामक (पैलिएटिव) उपचार कैसे करें ?

Palliative-careमरणासन्न रोगी, जिसका उपचार संभव नहीं है, उसकी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर देखभाल करने को उपशामक (पैलिएटिव) उपचार कहते है । इसमें परिवार तथा मित्रों को सहानुभूति दर्शाना एवं उनकी सहायता करना अंतर्भूत है। यद्यपि सभी प्रकरणों में समग्र उपशामक उपचार उपलब्ध नहीं होते ।

(यूएसए में वर्ष २००१ में) एक सर्वेक्षण में पाया गया कि मृत्युसमीप पहुंचे रोगी से भेंट करने थोडे समय के लिए उसके परिजन तथा चिकित्सक आते हैं एवं रोगी अधिकतर अकेले रहकर ही अपना समय बीताते हैं । संदर्भ : BBC on euthanasia

एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया कि ऐसे ४५ प्रतिशत रोगियों ने जिन पर अच्छे उपशामक उपचार किए गए, उन्होंने अपने इच्छा-मृत्यु का विचार परिवर्तित कर दिया । संदर्भ : BBC on euthanasia

मृत्युसमीप पहुंचे रोगी पर उपशामक उपचार करते समय निम्न कुछ सूत्र ध्यान में रखें :

  • साधना करने की क्षमता न होना : अधिकतर लोग अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना नहीं करते । मृत्युसमीप पहुंचने के पहले यदि व्यक्ति अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना नहीं करता होगा, तो अंतिम तथा प्रतिकूल अवस्था में साधना आरंभ करना उसके लिए अत्यंत कठिन होता है ।
  • रज-तम में वृद्धि : बीमारी आरंभ होने से वृद्धिंगत रज-तम तथा मृत्यु समीप होने की संभावना के कारण बीमारी के अंतिम चरण में अधिकतर रोगी अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, राक्षस इ.) से प्रभावित होते हैं । ये अनिष्ट शक्तियां मृत्योपरांत व्यक्ति की सूक्ष्म-देह पर नियंत्रण पाने का प्रयास करती हैं ।
  • आध्यात्मिक सुरक्षा का महत्त्व : उपशामक उपचार का महत्त्वपूर्ण भाग होता है, आध्यात्मिक पहलू । आध्यात्मिक प्रगति न होने पर भी रोगी के लिए अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, राक्षस इ.) से सुरक्षित रहना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है ।
  • कौनसे आध्यात्मिक उपचार करें ? : आध्यात्मिक उपचार करने से रोगी के सर्व ओर सूक्ष्म सुरक्षा कवच निर्मित करने में अत्यधिक सहायता करता है । यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि रोगी के लिए उपयुक्त सिद्ध होनेवाले उचित आध्यात्मिक उपचार उस पर किए जाएं । प्रायः सभी प्रकरणों में, लोगों के सूक्ष्म-ज्ञान से परिचित न होने के कारण कौनसे आध्यात्मिक उपचार करने है, इस बात से वे अनभिज्ञ होते हैं । मृत्युसमीप पहुंचे वानस्पतिक (निष्क्रिय) अवस्था के रोगी के कक्ष में नामजप लगाने से उसे सुरक्षा कवच प्राप्त होता है । मृत्युसमीप पहुंचे वानस्पतिक (निष्क्रिय) अवस्था के रोगियों के लिए निम्न नामजप आवश्यक हैं :
  • रोगी पर उपशामक उपचार करनेवाला व्यक्ति सत्सेवा अर्थात व्यक्ति में विद्यमान ईश्वर (आत्मा) की सेवा समझकर उपचार करें ।

७. सारांश

इच्छा-मृत्यु एक अति विवादास्पद विषय है । इसलिए आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य और जीवन एवं मृत्यु से संबंधित कानून को समझे बिना कौनसे पक्ष का समर्थन किया जाए, इसका निर्णय करने में कठिनाई होती है । सामान्य नियमानुसार यदि निर्णय आध्यात्मिक उद्देश्य के अनुसार हो, तो आध्यात्मिक दृष्टि से उनके उचित होने की संभावना अधिक होती है । दुर्भाग्यवश कानून बनानेवाले और निर्णय लेनेवाले आध्यात्मिक आयाम से अनभिज्ञ होते हैं और इससे परस्पर विरोधी दृष्टिकोण दिए जाते हैं ।

हमें यह भी अवश्य समझना चाहिए कि इस ब्रह्मांड में ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता । हमारी यह संकीर्ण दृष्टि होगी, यदि हम सोचें कि हम जीवन को इच्छा-मृत्यु के माध्यम से छोटा कर सकते है, जो कि ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध है । हमारी सीमित बुद्धि से ईश्वर की लीला के संदर्भ में वाद-विवाद करना अथवा उसे समझना, सागर की एक बूंद से महासागर को समझने समान है । प्रारब्ध और लेन-देन हमारे सभी बडे निर्णयों को प्रभावित करते हैं । SSRF के इस व्याख्यान का संदर्भ अवश्य लें – हम जो करते हैं, क्यों करते हैं

अतः आध्यात्मिक शोध द्वारा ब्रह्मांड को समझने का प्रयास करना, अनंत ईश्वरीय तत्त्व को समझने का अत्यंत सतही प्रयास है । आध्यात्मिक शोध, आधुनिक विज्ञान से परे  है.इस शोध का विस्तार साधक को उसकी आध्यात्मिक यात्रा की प्रारंभिक अवस्था में ही संतुष्ट कर पाता है । इसीलिए विश्व के सभी संत साधना करने का आग्रह करते हैं, जिससे हम आध्यात्मिक उन्नति द्वारा अपने संकीर्ण मन तथा बुद्धि के परे जाकर ईश्वर से एकरूप हो सकें । साधना द्वारा संतपद प्राप्त करने पर इच्छा-मृत्यु की समस्या, समस्या ही नहीं रहती; क्योंकि तब व्यक्ति यह समझ जाता है एवं उसे अनुभूति हो जाती है कि सभी घटनाएं ईश्वरेच्छानुसार ही होती हैं और इसलिए व्यक्ति को केवल साधना पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए ।