विषय सूची
१. प्रस्तावना
अहं हमारी साधना की सबसे बडी बाधा है । हममें से अधिकतर लोगों को अहं के संदर्भ में थोडी जानकारी तो होती ही है;किंतु अधिकतर लोग यह नहीं जानते कि कर्त्तापन अहं का एक बडा प्रकार है । कर्त्तापन का अर्थ है, मैं कर रहा हूं, ऐसी भावना होना । किसी कार्य का कर्त्तापन लेने का अर्थ ह कि ईश्वर ही सब कुछ करवा रहे हैं तथा कृत्यों को ईश्वर को समर्पित करने के स्थान पर हमें यह लगता है कि हम ही वह कार्य कर रहे हैं । दूसरे शब्दों में, जब हम किसी कार्य का कर्त्तापन स्वयं ही लेते हैं, तब हम सोचते हैं कि हम स्वयं ही कार्य कर सकते हैं । उदाहरण के लिए, हमें लगता है कि हमारा अपना घर है, हमारे पास कार है, आजीविका कमाने के लिए हम काम कर रहे हैं, इत्यादि ।
साधना में कर्त्तापन अर्पित करना महत्वपूर्ण है । यह ईश्वर के साथ संबंध जोडने की अवस्था निर्मिति में सहायक है, जहां हम यह अनुभव करते हैं कि वास्तव में हम किसी कार्य के कर्त्ता नहीं हैं तथा केवल ईश्वर ही सभी कार्यों के एकमात्र कर्त्ता हैं ।
२. कर्त्तापन कैसे बढता है ?
कर्त्तापन वास्तव में सुख की खोज करने तथा दुख को दूर हटाने की वर्त्तमान वैश्विक प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न हुआ है । पिछले युगों में जब लोग आध्यात्मिक रूप से अधिक शुद्ध थे, लोगों में कर्त्तापन की भावना अल्प थी तथा ईश्वर के प्रति शरणागत अवस्था में थे, उन्हें लगता था कि ईश्वर ही सबकुछ करवा कर रहे हैं । जैसे-जैसे समय बीतता गया, मनुष्य का ईश्वर के साथ होनेवाला संधान की सहजावस्था विलुप्त होने लगी और वे अपने क्रियमाण का उपयोग कर सुख प्राप्त करने तथा दुख को दूर करने हेतु प्रयास करने लगे । परिणामस्वरूप, लोगों को यह भान होने लगा कि वे कुछ कर रहे हैं और धीरे-धीरे कर्त्तापन की सूक्ष्म भावना विकसित हुई ।
जैसे ही कर्त्तापन विकसित हुआ, तब हम ईश्वर की तुलना में स्वयं पर ही अधिक विश्वास करने लगे । यदि हम ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं तो हमारे लिए जो आवश्यक है ईश्वर हमें प्रदान करते हैं । चूंकि हम स्वयं पर अधिक विश्वास करने लगे हैं, इसलिए हम गलतियां करने लगे हैं, जिसके कारण हमारे मन में अयोग्य संस्कार की निर्मित हुई और वे दृढ हो गए । अंतिमतः इससे स्वभाव दोष जैसे, अधीरता, भय, चिंता करना, हडबडी करना, कठोर, अतिविश्लेषक (अधिक सोचना), नकारात्मक विचार, अतिव्यवस्थितताइत्यादि विकसित हुए । अपनी क्षमता से परे की परिस्थितियों को सुलझाने तथा असंख्य विचारों को संभालने में मन की ऊर्जा अधिक मात्रा में व्यय होती है, इससे हमारी क्षमता घट जाती है और हम परिस्थितियों में तनाव से ग्रसित हो जाते हैं । इससे आज समस्त संसार की वर्त्तमान दशा हुई है जहां अधिकतर लोग अपने कार्य का कर्त्तापन लेते हैं और दुख के स्तर में दृढता से वृद्धि हो रही है ।
३. हम ईश्वर को कर्त्तापन अर्पित करना क्यों चाहेंगे ?
चूंकि अब हम स्वभाविक रूप से अपने कृत्यों का कर्त्तापन स्वयं लेने लगे हैं, इसलिए यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा होगा कि हम क्यों उसे अर्पित करना चाहेंगे । एक रोचक बिंदु यह है कि किसी भी कार्य की सफलता के लिए अकर्त्तापन की भावना आवश्यक है । किसी भी कार्य को योग्य ढंग से होने के लिए, उसमें शांतता तथा समर्पण आवश्यक है । इस बिंदु को अच्छे समझने के लिए, सितार बजाते एक संगीतकार का, एक जिमनेस्ट का तथा एक सार्वजनिक वक्ता का उदाहरण देखते हैं । इनमें से किसी में भी यदि कर्त्तापन की भावना तथा तनाव रहा, तब वे अपने कार्य को उचित ढंग से नहीं कर सकेंगे । यदि तनाव रहा तो सितारवादक अच्छे से सितार नहीं बजा पाएगा, जिमनेस्ट कूदने के समय गिर पडेगा आर सार्वजनिक वक्ता अपने भाषण में गलतियां करेगा ।
सभी सफल संगीतकार, एथेलिट्स तथा सार्वजनिक वक्ता शांतिपूर्ण आचरण करते हैं । एक प्रकार से उन्होंने अपने कार्य के नियंत्रण को समर्पित कर दिया है तथा आंशिक रूप से उससे एकरूप भी हो गए हैं, जिससे उनके कार्य स्वतः ही उनके भीतर से होता है । इसलिए वे अपने कुछ कार्य अचूक ढंग से करने में सक्षम होते हैं ।
जैसे-जैसे साधक आध्यात्मिक प्रगति करते हैं, वे अपनी पंचज्ञानेंद्रियों, मन तथा बुद्धि की तुलना में स्वयं में विद्यमान ईश्वरीय तत्व से अधिक पहचाने जाने लगते हैं । संगीतकार, जिमनेस्ट तथा सार्वजनिक वक्ता के समान, साधक शांतता से व्यवहार करता है और उसके कृत्य फलदायी तथा अंतःस्फूर्त आंतरिक प्रेरणा सेहो जाते हैं । कठिन परिस्थितियों में, साधक चिंता न कर ईश्वर पर श्रद्धा रखता है और चिंतामुक्त हो जाता है । उसके इस चिंतामुक्तता का रहस्य समर्पण और उसके कारण होनेवाला अल्प कर्त्तापन है ।
सांसारिक तथा आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से, कर्त्तापन को न्यून करने तथा उस पर विजय प्राप्त करना लाभदायक है । क्योंकि सांसारिक तथा आध्यात्मिक कृत्य तभी सर्वोत्तम ढंग से हो सकते हैं जब कर्त्तापन न्यून होगा । इसका अर्थ है कि हम अपने लक्ष्य चाहे वह सांसारिक तथा आध्यात्मिक हों, उसे सरलता से प्राप्त कर सकते हैं जब हममें कर्त्तापन की भावना न्यून होगी ।
४. हम कर्त्तापन को कैसे पहचानें तथा उस पर कैसे विजय प्राप्त कर सकते हैं ?
कर्त्तापन का भान तब होता है जब व्यक्ति मानसिक स्तर पर सुख अथवा दुख का अनुभव करता है । विचार जैसे, मैं यह अच्छा कर रहा हूं, अन्य मुझसे प्रभावित होंगे, मैं अवश्य ही क्षमतावान हूं क्योंकि मैं यह कार्य अच्छे से कर रहा हूं इत्यादि सब कर्त्तापन के कारण उभरते हैं । जब हम ऐसा सोचते हैं तब हम सुख का अनुभव करते हैं;किंतु वास्तव में यह हमारे कर्त्तापन लेने के कारण होता है । जब हम सुख का अनुभव करते हैं, यदि तब हम अपने भीतर झांके तो अनेक बार हमें ज्ञात होगा कि यही सूक्ष्म विचार उपस्थित थे ।
इसी प्रकार, कर्त्तापन के कारण हमें दुख का भी अनुभव होता है । विचार जैसे, “अन्य मुझे समझें”, “मैं इस परिस्थिति का सामना नहीं कर सकता”, “मुझे इससे और अधिक अच्छा मिलना चाहिए था”, इत्यादि कर्त्तापन के कारण उत्पन्न होते हैं ।
दूसरे शब्दों में, यदि हमें अपने कार्यों के परिणामस्वरूप सुख अथवा दुख अनुभव होता है, तब हम अपने कार्यों का कर्त्तापन ले रहे हैं यह समझ सकते हैं ।
तो प्रश्न यह है कि हम कर्त्तापन पर विजय कैसे प्राप्त करें ? वास्तव में हममें से अधिकतर को यह नहीं पता कि कर्त्तापन के बिना कार्य कैसे किया जाए;क्योंकि हम अनेक जन्मों से कर्त्तापन सहित कार्य कर रहे हैं । ऐसा विचार कि मैं कर्त्तापन पर विजय प्राप्त करूंगा भी कर्त्तापन के कारण ही उत्पन्न होता है । तब भी, कर्त्तापन पर विजय प्राप्त करने के लिए साधक निम्नलिखित अनेक चरणों को अपना सकता है :
१. ईश्वर की शरण जाने से कर्त्तापन पर विजय प्राप्त की जा सकती है । ईश्वर की शरण जाने के लिए हम छोटे-छोटे कृत्यों में उन कृत्यों को करना सीखाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर आरंभ कर सकते हैं । उदाहरण के लिए, कक्ष को स्वच्छ कैसे करें अथवा संगणक कैसे चलाएं जिससे कि साधना हो, हम इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं । छोटे कृत्यों में भी कर्त्तापन छिपा) होता है और इन कृत्यों में ईश्वर से सहायता के लिए प्रार्थना करने से साधक शरण जाना सीखता है । आगे साधक अधिक कठिन कार्य जैसे ब्योरा बनाना अथवा सत्संग लेने इत्यादि में शरणागत होने में सक्षम हो जाता है ।
२. सुख एवं दुख ईश्वर को अर्पित करने से कर्त्तापन पर विजय प्राप्त की जा सकती है । सुख की तुलना में दुख को अर्पण करना सरल है, क्योंकि मन सुख के अनुभव हेतु आसक्त है । साधक अपने जीवन में आए कठिन प्रसंगों को स्वीकार कर तथा ईश्वर की सहायता के लिए प्रार्थना कर तथा उसे स्वीकार कर ईश्वर की शरण जाना सीख सकता है । साधक ईश्वर से प्रार्थना कर सकता है कि आप ही हमें कठिन परिस्थितियों में साधना करना सीखाइए । और जब समस्या समाप्त हो जाए तब साधक ईश्वर को कठिन परिस्थिति में सहायता करने हेतु कृतज्ञता व्यक्त कर सकता है । उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि किसी साधक की नौकरी चली गई । वह इस परिस्थिति का सामना सकारात्मक ढंग से कर सकता है, इस कठिन परिस्थिति में साधना कैसे कर सकते हैं यह सीखाने के लिए तथा उनकी शरण जाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकता है । वह इस बात की चिंता नहीं करता कि उसे नौकरी मिलेगी अथवा नहीं । जब साधक इस प्रकार शरणागत होता है, ईश्वर उस साधक का ध्यान रखते हैं और उसकी साधना होने के लिए जो भी आवश्यक हो उसे देते हैं । कठिनाईयों का सामना इस प्रकार करने से हम चिंतामुक्त हो जाते हैं और कठिनाईयों का समाधान भी अधिक सरलता से हो जाता है । श्रद्धा भी बढती है क्योंकि हमने यह अनुभव कर लिया होता है कि ईश्वर पर श्रद्धा रखने और उनकी शरण जाने से कठिन प्रसंगों का समाधान हो जाता है ।
३. अंतिमतः कर्त्तापन पर विजय प्राप्त करने के लिए साधक को दुख के साथ-साथ सुख को भी अर्पण करना सीखना चाहिए । चूंकि यह करना सरल नहीं है इसलिए साधना के अगले चरण में यह होता है । जैसे-जैसे साधक की प्रगति होती है वह भाव तथा आनंद का और अधिक अनुभव करने लगता है । जब यह होता है, तब साधक को यह भान होने लगता है कि मानसिक सुख की तुलना में ये अनुभव अधिक समय तक संतोष प्रदान करनेवाले हैं । अब साधक साधना बढाने हेतु प्रयास करने लगता है, जिससे उसे अनुभव होनेवाले भाव तथा आनंद की मात्रा में वृद्धि हो और इससे स्वतः ही सुख के प्रति आसक्ति घट जाती है । साधक अपने मन पर सतत इस बात पर बल दे सकता है कि साधना का उद्देश्य भाव तथा आनंद को अनुभव करना है न कि सुख का अनुभव करना । इससे मन की सुखप्राप्ति की वृत्ति सहजता से नष्ट हो जाती है ।
ऊपरोक्त के अतिरिक्त व्यक्ति साधना के सर्व चरणों, जिसमें नामजप, सत्संग में जाना, सत्सेवा करना सम्मिलित है को करने के प्रयासों को बढा सकता है । साधना बढाने से व्यक्ति अपने भीतर ही ईश्वर को अनुभव करने लगता है और तब ईश्वर को कर्त्तापन अर्पण करना और अधिक स्वाभाविक हो जाता है ।
५. ईश्वर की शरण जाने के संदर्भ में
संक्षेप में, कर्त्तापन वह अवस्था है जो हमें यह अनुभव कराती है कि कर्त्ता हम हैं न कि ईश्वर । कर्त्तापन के कारण हम सुख तथा दुख को भोगने के चक्र में फंस जाते हैं, जिससे आनंद एवं स्वयं में विद्यमान ईश्वर को अनुभव कर पाना हमारे लिए कठिन हो जाता है । फलस्वरूप स्वभावदोष तथा अहं निर्माण होता है । कर्त्तापन पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयास करने पर हम अपनी साधना का लक्ष्य जो ईश्वर से एक रूप होना है की ओर मार्गक्रमण करने में सक्षम होंगे ।
साधकों को कर्त्तापन न्यून करने के प्रयास हेतु प्रोत्साहित करने के लिए नीचे यूरोप, सर्बिया से एक साधक (डेयान ग्लेस्सिक) का अनुभव दिया गया है :
“मैं जीवन तथा कार्य में कुछ परिस्थितियों के कारण तनाव अनुभव कर रहा था । जब मैं आध्यात्मिक उपचार के लिए बैठा तो अकस्मात ही मुझे रोना आ गया । उस समय मुझे अनुभव हुआ कि ईश्वर मेरे शरीर को नियंत्रित कर रहे हैं, मन को शक्ति प्रदान कर रहे हैं तथा विचारों एवं बुद्धि को नियंत्रित कर रहे हैं । ऐसा लगा जैसे श्वास भी ईश्वर द्वारा ली जा रही है और मेरे प्रयासों के कारण कुछ भी नहीं हो रहा था । मैं तो केवल दृष्टा था । सब कुछ ईश्वर द्वारा हो रहा था तथा मैं केवल उनके विचारों में मग्न था । मुझे भान हुआ कि जिस तनावपूर्ण परिस्थिति का मैं सामना कर रहा था, वह मेरे साथ इसलिए घटे जिससे मैं ईश्वर की शरण जाना सीख सकूं तथा केवल उन पर निर्भर रख सकूं । वह अनुभव अवर्णनीय था तथा मैं आनंदित, शांत एवं स्वतंत्र अनुभव कर रही था । मैं सोचने लगा कि जब व्यक्ति उच्च स्तर के संतपद पर पहुंच जाता है तो इस अवस्था में सतत रहना कितना अद्भुत होता होगा ।”
हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस लेख को पढ कर, विश्व में सभी साधक कर्त्तापन पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरित होंगे जिससे वे सबके भीतर विद्यमान ईश्वर को अनुभव कर सकें ।