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आनंद

सुख से अनंत गुना एवं उससे भी परे की सर्वोच्च अवस्था को आनंद कहते हैं । सामान्य भाषा में जिसे हम सुख कहते हैं वह बाह्य जगत से संबंधित है । जबकि आनंद आत्मा से संबंधित अनुभूति है, यह किसी बाह्य उत्तेजना से संबंधित नहीं है ।

अपने जीवन में हम देखते हैं कि जिससे भी हमें सुख मिलता है, उसी से हमें दुख भी मिलता है । इसे समझने के लिए, हमें उन माध्यमों को समझना होगा, जिनसे हमें सुख मिलता है ।

ये माध्यम हैं :

  • पंचज्ञानेंद्रिय : पंचज्ञानेंद्रियों से मिलनेवाले सुख को हम स्पर्श, स्वाद, ध्वनि, सुगंध और दृश्य के माध्यम से अनुभव करते हैं ।
उदाहरण : एक व्यक्ति जिसे आईसक्रीम बहुत प्रिय है, वह आईसक्रीम पार्लर जाने का इच्छुक है । उसे पहली आईसक्रीम बहुत स्वादिष्ट लगती है और वह जैसे-जैसे अधिक खाता जाता है उसकी इच्छा घटती जाती है और ७वीं अथवा ८वीं प्लेटतक उसे कष्ट होने लगता है । इस प्रकार आईसक्रीम खाने से प्राप्त सुख अधिक समयतक टिक नहीं पाता । यही अवस्था हमारी अन्य सांसारिक इच्छाओं के साथ होती है, कोई भी बात पुन:-पुन: करने पर उसका सुख घटता जाता है और अंत में वही बातें दु:ख देने लगती हैं ।
  • मन : यह हमारे विचारों का एक भाग है, जो हमारी भावनाओं से जुडा होता है (हमारी भावनाएं और विचार एक दूसरे से गुंथे हुए होते हैं – दु:ख देनेवाले विचार से दुःख देनेवाली भावनाएं उत्पन्न होती हैं एवं सुख देनेवाले विचार से सुख देनेवाली भावनाएं उत्पन्न होती हैं ।) मन से प्राप्त होनेवाला सुख पंचज्ञानेंद्रियों से प्राप्त होनेवाले सुख से कहीं श्रेष्ठ है ।
उदाहरण : हमारे लिए सबसे अधिक सुखप्रद भावना कौनसी है ? संभवतः प्रेम करने का अनुभव । दो व्यक्तियों का उदाहरण देखते हैं, जो एक दूसरे से बहुत प्रेम करते हैं और एक दूसरे के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते । परंतु एक बार विवाह होने के पश्चात उनके सुख की वह सर्वोच्च अवस्था अधिक समयतक टिक नहीं पाती । दोनों का एक दूसरे को देखने का दृष्टिकोण ही परिवर्तित हो जाता है, उन्हें लगने लगता है कि उनका साथी जो उसे अत्यधिक सुख देता है, उसी साथी से अधिक उसे कोई और दु:खी अथवा क्रोधित नहीं कर सकता ।
  • बुद्धि : यह निर्णय लेने और तर्क-वितर्क की क्षमता से संबंधित है । यह मन से मिलनेवाले सुख की तुलना में उच्च स्तर की एवं अधिक सुख का अनुभव देती है ।
उदाहरण : एक वैज्ञानिक का उदाहरण देखते हैं जिसने अपने आपको पूरी तरह से शोधकार्य में समर्पित किया है । और एक दिन वह सैंकडों वर्षों से मानव जाति के लिए बने रहस्य का हल ढूंढ लेता है – वह अत्यधिक प्रसन्न होता है । परंतु उसकी प्रसन्नता की चरम सीमा का क्या होता है, जब लोगों के बीच उसकी प्रशंसा घटने लगती है ? इस विचार से कि अब वह उन ऊंचाईयों पर नहीं है – वह चिंतित हो जाता है तथा अपनेआप को व्यस्त रखने के लिए कोई नया शोध करने के लिए व्याकुल हो उठता है । इससे भी दुःख भरी बात यह होती है कि वह निराशा में चला जाता है क्योंकि वह देखता है कि उसके महान शोध (उदा. उर्जा का सूत्र, E=mc2 ) का उपयोग, अणु बम द्वारा मानव जाति के विनाश के लिए किया जा रहा है ।

 

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यह आकृति दिखाती है कि विभिन्न देहों (अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि) द्वारा प्राप्त सुख का स्तर क्रमश: केवल गुणात्मक दृष्टि से ही नहीं बढता, अपितु अधिक समयतक टिकनेवाला भी होता है ।

जब हम आत्मा से आनंद अनुभव करते हैं, तो वह सबसे उच्च स्तर का सुख होता है तथा अनंत कालतक टिकता है । आनंद की व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती, इसे अनुभव ही किया जा सकता है ।

शब्दों की मर्यादा जानने के लिए हम शक्कर की मिठास का उदाहरण देखते हैं । जिस व्यक्ति की जिह्वा ही नहीं है, उसे हम कभी शक्कर की मिठास शब्दों के माध्यम से समझा सकते हैं क्या ? नहीं, हमें ऐसा कोई शब्द ज्ञात नहीं है, जो शक्कर की वास्तविक मिठास कैसी होती है, उसकी व्याख्या कर सके । इसी प्रकार आनंद को समझने के लिए उसे अनुभव करना ही आवश्यक है । साधना के माध्यम से ही हम आनंद की अनुभूति ले सकते हैं ।