आनंद
सुख से अनंत गुना एवं उससे भी परे की सर्वोच्च अवस्था को आनंद कहते हैं । सामान्य भाषा में जिसे हम सुख कहते हैं वह बाह्य जगत से संबंधित है । जबकि आनंद आत्मा से संबंधित अनुभूति है, यह किसी बाह्य उत्तेजना से संबंधित नहीं है ।
अपने जीवन में हम देखते हैं कि जिससे भी हमें सुख मिलता है, उसी से हमें दुख भी मिलता है । इसे समझने के लिए, हमें उन माध्यमों को समझना होगा, जिनसे हमें सुख मिलता है ।
ये माध्यम हैं :
- पंचज्ञानेंद्रिय : पंचज्ञानेंद्रियों से मिलनेवाले सुख को हम स्पर्श, स्वाद, ध्वनि, सुगंध और दृश्य के माध्यम से अनुभव करते हैं ।
- मन : यह हमारे विचारों का एक भाग है, जो हमारी भावनाओं से जुडा होता है (हमारी भावनाएं और विचार एक दूसरे से गुंथे हुए होते हैं – दु:ख देनेवाले विचार से दुःख देनेवाली भावनाएं उत्पन्न होती हैं एवं सुख देनेवाले विचार से सुख देनेवाली भावनाएं उत्पन्न होती हैं ।) मन से प्राप्त होनेवाला सुख पंचज्ञानेंद्रियों से प्राप्त होनेवाले सुख से कहीं श्रेष्ठ है ।
- बुद्धि : यह निर्णय लेने और तर्क-वितर्क की क्षमता से संबंधित है । यह मन से मिलनेवाले सुख की तुलना में उच्च स्तर की एवं अधिक सुख का अनुभव देती है ।
यह आकृति दिखाती है कि विभिन्न देहों (अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि) द्वारा प्राप्त सुख का स्तर क्रमश: केवल गुणात्मक दृष्टि से ही नहीं बढता, अपितु अधिक समयतक टिकनेवाला भी होता है ।
जब हम आत्मा से आनंद अनुभव करते हैं, तो वह सबसे उच्च स्तर का सुख होता है तथा अनंत कालतक टिकता है । आनंद की व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती, इसे अनुभव ही किया जा सकता है ।
शब्दों की मर्यादा जानने के लिए हम शक्कर की मिठास का उदाहरण देखते हैं । जिस व्यक्ति की जिह्वा ही नहीं है, उसे हम कभी शक्कर की मिठास शब्दों के माध्यम से समझा सकते हैं क्या ? नहीं, हमें ऐसा कोई शब्द ज्ञात नहीं है, जो शक्कर की वास्तविक मिठास कैसी होती है, उसकी व्याख्या कर सके । इसी प्रकार आनंद को समझने के लिए उसे अनुभव करना ही आवश्यक है । साधना के माध्यम से ही हम आनंद की अनुभूति ले सकते हैं ।