अपनी कुशलता तथा क्षमता के अनुसार ईश्वर को अर्पित करना

ईश्‍वर ने हम सभी के अधिकार में कुछ प्रकार के साधन दिए हैं । साधना का मूलभूत सिद्धांत यही है कि हम इन्हीं साधनों का उपयोग करते हुए तथा इस प्रयास को अपनी साधना मानकर ईश्‍वर की सेवा करें । फलस्वरूप हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है । हमें प्राप्त ये साधन साधारणतः चार प्रकार के होते हैं ।

१. हमारी देह

२. हमारा धन और हमारे सांसारिक संबंध

३. हमारा मन एवं बुद्धि

४. हमारी छठवीं ज्ञानेंद्रिय

आइए, इन चार अंगों को कुछ और विस्तारपूर्वक देखते  हैं;

१. हमारी देह

देह से सेवा करनेका अर्थ है, इस देह को ईश्‍वर की सेवा में लगाना । उदाहरणार्थ :

  • कार्यक्रम स्थल की स्वच्छता कर आध्यात्मिक प्रवचन का आयोजन करना
  • साधकों को कार्यक्रम स्थल पर ले जाना
  • आध्यात्मिक प्रवचन के प्रसार हेतु भित्तिपत्रक (पोस्टर) लगाना

 

२. हमारा धन और सांसारिक संबंध

ईश्‍वर की सेवा हेतु धन तथा सांसारिक संबंधों के उपयोग के उदाहरण क्रमशः इस प्रकार हैं :

  • आध्यात्मिक प्रवचन के लिए उपलब्ध कार्यक्रम स्थलका किराया देना अथवा स्थल उपलब्ध करवाना
  • जिस संस्था से हम जुडे हैं, उस संस्था में आध्यात्मिक प्रवचन का आयोजन करना
  • अपने परिचितों को आध्यात्मिक प्रवचन के लिए आमंत्रित करना

 

३. हमारी बुद्धि तथा मन

मन तथा बुद्धि का उपयोग करने का अर्थ है, हमारी रचनात्मक और बौद्धिक क्षमताआें का उपयोग ईश्‍वर की सेवा के लिए करना । इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :

  • अपनी बुद्धि का उपयोग कर अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन करना, स्वयं साधना कर अन्यों को भी इस संदर्भ में बताना (मार्गदर्शन करना)
  • अपनी लेखन शैली का उपयोग कर अध्यात्मप्रसार के लिए लेख लिखना
  • किसी कार्यक्रम के आयोजन तथा उसके अभिलेख बनाने में सहायता करना

 

४. हमारी छठवीं ज्ञानेंद्रिय

हममें से कुछ लोगों को बचपन से ही छठवीं ज्ञानेंद्रिय की दिव्य देन अर्थात सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता प्राप्त है । यह देन अथवा कुशलता पूर्वजन्म की अथवा इस जन्म में की गई साधना के कारण प्राप्त होती है । अपनी तथा अन्यों की आध्यात्मिक उन्नति को सुगम बनाने हेतु ही इसका उपयोग करने का दायित्व हम पर होता है । अपनी छठवीं ज्ञानेंद्रिय का (सूक्ष्म आयाम को समझने की क्षमता का) उपयोग किसी आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शनानुसार करना चाहिए ।

 

संक्षेप में, निम्न सूत्र ध्यान में रख सकते हैं :

  • हमारे पास जो भी है, उसे हम अपनी साधना मानकर निरंतर ईश्वर को अर्पित करते हैं, तो इससे हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है ।
  • किसी के पास धन अथवा बुद्धि न भी हो, तो सेवा में केवल अपना शरीर अर्पित करने से भी उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है ।
  • उपर्युक्त चार प्रकार की सेवाएं परस्पर अनन्य नहीं हैं । यदि किसी व्यक्ति के पास अच्छी बुद्धि तथा अध्यात्मशास्त्र समझने की क्षमता है, तो उसे केवल बुद्धि अर्पित करने में रूचि हो सकती है । परंतु सिद्धांत यह कहता है कि, हमारे पास जो भी है, वह अर्पित करना है । बुद्धिमान व्यक्ति के पास देह के साथ कुछ धन भी होता है, तो उसे बुद्धि के साथ देह और धन भी सेवा में अर्पित करना चाहिए ।
  • मन और बुद्धि सेवा में अर्पित करना सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इनके माध्यमसे कोई व्यक्ति अन्यों को अध्यात्मशास्त्र समझाने में तथा उसके आचरण में सहायता कर सकता है ।