माया तथा अध्यात्म विषयक ग्रंथ की परिभाषा
- माया विषयक ग्रंथ निर्मित हुई सृष्टि के संदर्भ में होते हैं । कला, विज्ञान, दर्शनशास्त्र, उपन्यास इत्यादि ग्रंथ इस श्रेणी में आते हैं । कृपया यह खंड देखें जिसमें माया के संबंध में अधिक प्रकाश डाला गया है । इन ग्रंथों का आकलन पूर्णरूप से पंचज्ञानेंद्रियों , मन तथा बुद्धि से किया जाता है ।
- अध्यात्म विषयक ग्रंथ वे ग्रंथ होते हैं जो अध्यात्म के विविध पहलुओं पर मार्गदर्शन करते है । इनमें सैद्धांतिक ज्ञान के साथ अध्यात्म के व्यवहारिक पहलुओं के संदर्भ में ज्ञान होता है । किसी भी आध्यात्मिक ग्रंथ के चैतन्यपूर्ण होने के लिए उसके लेखक का आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम ५० प्रतिशत होना अनिवार्य है । यदि अध्यात्म विषयक ग्रंथ आध्यात्मिक प्रगति हेतु साधना के लिए मार्गदर्शन करते हैं तो उनका अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार होना आवश्यक है । आध्यात्मिक प्रगति का अर्थ है पंचज्ञानेंद्रियों , मन तथा बुद्धि से परे जाना तथा स्वयं में विद्यमान आत्मा अथवा ईश्वरीय तत्त्व का अनुभव करना । मनुष्य की रचना कैसे हुई है – इसके संदर्भ में लेख देखें ।
विषय सूची
१. माया तथा अध्यात्म विषयक ग्रंथ के विवेचन की प्रस्तावना
मानव जीवन का मूल उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति है, इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर इस संपूर्ण लेख की रचना की गर्इ है । सभी विषय के ग्रंथों को मुख्यरूप से दो वर्गों में विभाजित किया जाता है ; माया विषयक ग्रंथ एवं अध्यात्म विषयक ग्रंथ ।
- ‘अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन विषय के लेख में हमने इस तथ्य पर बल दिया है कि यदि कोर्इ जीवन के मुख्य उद्देश्यों की ओर अग्रसर होना चाहता है तो उसे उन आध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन को प्राथमिकता देनी चाहिए जो संत अथवा गुरु द्वारा रचित हों ।
- एक अन्य लेख ‘अध्यात्म विषयक ग्रंथों पर लेखक का प्रभाव’ में हमने विभिन्न आध्यात्मिक स्तर के लेखकों द्वारा रचित ग्रंथों के लाभ की तुलना की है ।
इस लेख में हम माया तथा अध्यात्म विषयक ग्रंथ में अंतर तथा उनके पाठक , ग्रंथ के लेखक तथा वातावरण पर पडनेवाले प्रभाव की चर्चा करेंगे ।
२. जीवन के मूल उद्देश्य के संबंध में
अध्यात्म विषयक ग्रंथों की रचना लोगों को जीवन के मूल उद्देश्यों की दिशा में अग्रसर होने में सहायता के लिए की जाती है । वे हमें पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि से परे जो हमारा मूलस्वरूप है, उसे पहचानने में सहायता करते हैं । वे हमारा मार्गदर्शन कर अनुभूति प्रदान करवाते हैं कि हमारा मूल स्वभाव हमारे भीतर विद्यमान आत्मा अथवा ईश्वरीय तत्त्व है । यदि पाठक ग्रंथ से प्राप्त मार्गदर्शन के अनुसार साधना करते हैं तो उसे आध्यात्मिक उन्नति की अनुभूति होती है । लेखक को भी आध्यात्मिक उन्नति की अनुभूति होती हैं क्योंकि वे मानवता की आध्यात्मिक उन्नति में सहायता हेतु एक माध्यम बन जाते हैं ।
इसके विपरीत माया संबंधी ग्रंथ, लेखक एवं पाठक दोनों का ध्यान माया के प्रति आकर्षित करते हैं । जिसके फलस्वरूप लेखक एवं पाठक दोनों माया में फंसते चले जाते हैं तथा पंचज्ञानेंद्रियों, मन एवं बुद्धि के प्रति उनकी आसक्ति बढ जाती है । यह उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप स्वयं में विद्यमान आत्मा (ईश्वरीय तत्त्व) की अनुभूति तथा ज्ञान से दूर ले जाता है । यदि ऐसे ही संस्कार निर्माण होते रहे तो वह व्यक्ति अपने वास्तविक उद्देश्य को पूरा करने जिसके लिए वह जन्मा है अर्थात ईश्वर प्राप्ति तथा जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर आने के विपरीत, वह अनेकों जन्म माया द्वारा निर्मित स्वप्नों जैसे आजीविका, परिवार आदि को पूर्ण करने के प्रयास में व्यतीत कर देता है ।
३. सुखानुभूति तथा आनंद
माया से संबंधित ग्रंथों की रचना पंचज्ञानेंद्रियों, मन एवं बुद्धि से अनुभव किए जाने के लिए की जाती है । इससे अनुभव की जानेवाली अधिकतम भावना वह होती है जाे मन तथा बुद्धि हमें प्रदान करना चाहते हैं । माया से संबंधित ग्रंथ का अध्ययन कर उसका अनुकरण करने से जिस अधिकाधिक सकारात्मक भावना की अनुभूति हम प्राप्त कर सकते हैं, उसे सुख कहा जाता है । सुख मन द्वारा व्यक्त की गई एक भावनात्मक प्रतिक्रिया है जो सदैव उद्दीपन पर निर्भर रहती है । दुर्भाग्य से जिन वस्तुओं (उद्दीपन) को हम अपने सुख का आधार मानते है वे निरंतर बदलती रहती हैं, फलस्वरूप हमें माया से प्राप्त होनेवाला सुख अधिक काल तक नहीं रहता ।
दूसरी ओर यदि हम आध्यात्मिक ग्रंथों के मार्गदर्शन में साधना करते हैं तो अंतत: हम स्वयं में विद्यमान आत्मा (ईश्वरीय तत्त्व) को अनुभव करने में सक्षम हो जाते है । फलस्वरूप हम आनंद का अनुभव करते है जो कि आत्मा का गुण है । आनंद सुख से भी परे श्रेष्ठतम सकारात्मक अनुभूति है जो किसी उद्दीपन पर आश्रित नहीं है । प्रारंभिक अवस्था में हमें मात्र उसके स्फुरण प्राप्त होते हैं किंतु जैसे-जैसे हमारा आध्यात्मिक विकास होता जाता है, हमें उसकी अनुभूति सदा प्राप्त होती रहती है ।
४. ज्ञान का स्रोत
जब कोर्इ संत थवा गुरु किसी आध्यात्मिक ग्रंथ की रचना करते हैं, तो उसके लिए आवश्यक ज्ञान वे अपनी छठवीं इंद्रिय के माध्यम से वैश्विक मन एवं बुद्धि से प्राप्त करते हैं । फलस्वरूप उन्हें किसी संदर्भ की आवश्यकता नहीं पडती । दूसरी ओर जब कोर्इ व्यक्ति माया से संबंधित ग्रंथ लिखते हैं तब उन्हें ग्रंथ की निर्मिति के समय अनेक संदर्भ लेने पडते हैं ।
माया से संबंधित विषयों पर ग्रंथ लिखनेवाले लेखक को जब प्रसिद्धि प्राप्त करने की अथवा किसी विशिष्ट विषय के प्रति तीव्र उत्कंठा होती है तब प्राय: उन्हें भूवर्लोक अथवा स्वर्गलोक के सूक्ष्म जीव सहायता करते हैं । इस जीवों की भी भूलोक पर कुछ करने की इच्छा होती है । दूसरी ओर संत का लेखन प्रसिद्धि अथवा धन प्राप्ति के लिए नहीं होता अपितु वे समाज की आध्यात्मिक प्रगति के उद्देश्य से लेखन करते हैं । उनके न्यून अहं के कारण र्इश्वर केवल उन्हें ही आध्यात्मिक ग्रंथ लिखने के लिए प्रेरित करते हैं । सकारात्मक शक्तियां महर्लोक तथा उससे उच्च लोकों से आकर लेखक को उसकी छठवीं इंद्रिय के माध्यम से सहायता करते हैं । उनके लेखन की विषय वस्तु सदैव ‘र्इश्वर प्राप्त कैसे करें’ यही होती है ।
५. विषय व्यापकता एवं उसकी सीमाएं
स्थूल विरुद्ध सूक्ष्म :
माया से संबंधित लेखन उसकी स्थूलता से मर्यादित होता है । वह जगत को जैसे हमें दिखता है अर्थात भौतिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्तर पर उसका विवेचन करता है । ज्ञान का परिवहन प्राय: सांसारिक स्तर पर ही होता है तथा लेख आध्यात्मिक अनुभूति प्रदान करने में अक्षम होते हैं ।
अध्यात्मशास्त्र के लेखन के समय जिन लेखक का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अधिक होता है, वे वैश्विक शक्तियों जो कि इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति एवं ज्ञानशक्ति हैं के आधार पर लेखन करते हैं तथा विभिन्न घटनाओं के आध्यात्मिक कारणों का पता लगाने में वे सक्षम होते हैं । कृपया लेख : आध्यात्मिक लेखन में प्रयुक्त वैश्विक शक्तियां देखें ।
प्रासंगिकता एवं काल
माया से संबंधित ग्रंथ निरंतर विकसित, संशोधित एवं उनमें अद्यतन होते रहता है । उदाहरण के लिए, एक समय पर लोग यह सोचते थे कि पृथ्वी समतल है किंतु कालांतर में आधुनिक यंत्रों द्वारा यह सिद्ध कर दिया गया कि वह वास्तव में गोल है । वैसे भी वर्तमान में जो कुछ घटित हो रहा होता है उसके प्रति सांसारिक लोगों में भूतकाल में जो हुआ उसकी अपेक्षा आकर्षण अधिक होता है ।
अध्यात्म विषयक ग्रंथ में वर्णित मूलभूत सिद्धांत कालातीत होते हैं । वे हमारी आध्यत्मिक यात्रा के पथ प्रदर्शक होते हैं चाहे हम किसी भी शताब्दी में रह रहे हों । आध्यात्मिक ग्रंथों के मूल सिद्धांत में किसी प्रकार की पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं होती । पुनर्मुद्रित प्रतियां हो सकती हैं जिनमें कुछ समकालीन सूचनाएं हो सकती हैं; किंतु ज्ञान के मूल सिद्धांतों में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । हमारी आध्यात्मिक यात्रा पूर्ण करने के लिए पद्धति तथा साधन परिवर्तित हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें समाज की आध्यात्मिक क्षमता के अनुसार अनुकूलित किए जाने की आवश्यकता होती है । इसी कारण हम यह कहते हैं कि आध्यात्मिक ग्रंथ कालातीत होते हैं एवं सभी पीढियों के लिए योग्य होते हैं ।
कृपया देखें ‘‘परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी से एक अनौपचारिक वार्तालाप’’ जिसमें वे अब मात्र आध्यात्मिक ग्रंथों की रचना क्यों करते हैं बताते हैं, इससे आपको इस विषय के सिद्धांतों के संबंध में और जानकारी प्राप्ति होगी ।
६. समाज पर प्रभाव
आध्यात्मिक ग्रंथ से प्रक्षेपित होनेवाले चैतन्य का वातावरण पर सात्त्विक पडता है । सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित आगे दिया गया चित्र संतों द्वारा रचित अध्यात्म विषयक ग्रंथों से प्रक्षेपित होनेवाली आध्यात्मिक सकारात्मकता को दर्शाता है ।
इन ग्रंथों का सात्त्विक प्रभाव समाज के लोगों में साधकत्व के बीजों का रोपण करने में सहायता करता है, जिससे कालांतर में वे शिष्यत्त्व प्राप्त करते हैं तथा आगे चलकर संत बनते हैं । संत समाज में दीपस्तंभfi की तरह कार्य करते हैं जो लोगों को धर्माचरण की तरफ मोडते हैं । संतों की उपस्थिति समाज में सत्त्वगुण की वृद्धि करने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।