अध्यात्म के मूलभूत सिद्धांत
आध्यात्मिक स्तर अथवा आध्यात्मिक क्षमता के अनुसार साधना करना
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम साधना के जिस मार्ग का चयन करते हैं वह हमारी आध्यात्मिक क्षमता अथवा आध्यात्मिक स्तर के अनुसार होनी चाहिए । यदि कोई विद्यार्थी जो तीसरी कक्षा में उत्तीर्ण हो गया है, यदि वह तीसरी कक्षा के पाठ्यक्रम का ही निरंतर अध्ययन करते रहे तो वह चौथी कक्षा की परीक्षा देने में सक्षम नहीं हो पाएगा ।
इसलिए साधकों को अपनी साधना करने की क्षमता बढानी चाहिए, जिससे वे साधना के एक ही स्तर पर न अटके रहें ।
स्थूल साधना से सूक्ष्म साधना में साधक के स्तर के अनुसार उन्नति के विविध चरणों को समझते हैं :
१. आरंभिक अवस्था में, हमें यह लगता है कि हम केवल पूजास्थल पर जाकर देवता की प्रतिमा अथवा दैवीय प्रतीकों से प्रार्थना करने से ही र्इश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकते हैं ।
२. इसके अगले चरण में हम र्इश्वर से अपना संबंध मात्र धार्मिक विधियों द्वारा ही नहीं अपितु पूजास्थल में धार्मिक ग्रंथ पढ कर भी अनुभव करते हैं ।
३. इसके अगले चरण में हमें लगता है कि शब्द भी स्थूल ही हैं और मंदिर अथवा पूजास्थल में विद्यमान स्पंदन भी आध्यात्मिक रूप से पोषण करने के लिए उपयुक्त हैं ।
४. इसके उपरांत हमें पूजास्थल में जाने की भी इच्छा नहीं होती, अपितु प्रकृति की सुंदरता, ऊंचे-ऊंचे पर्वत में, शांत झील इत्यादि में भी र्इश्वर को अनुभव कर सकते हैं ।
५. इसके भी उच्च स्तर में, हमें प्रकृति की भी आवश्यकता नहीं होती, हम र्इश्वर को दैनिक जीवन में भी अनुभव कर सकते हैं । हम कितने भी बुरे स्थान में जैसे – किसी गंदी बस्ती में हों अथवा किसी युद्ध क्षेत्र में हों, हम ईश्वरीय अस्तित्व की सुरक्षात्मक चादर को अनुभव कर सकते हैं तथा अपने शांत हृदय से हम वहां उनकी आराधना कर सकते हैं ।