HIN_principle-oriented

१. प्रस्तावना

तत्त्वनिष्ठ होने का अर्थ है आध्यात्मिक रूप से प्रगत लोगों द्वारा बताए गए आध्यात्मिक सिद्धांतों (र्इश्वरीय सिद्धांतों) का अनुसरण करना ।

२. स्थूल रूप में अटके न रहना

अध्यात्म में, मोक्ष के मार्ग हेतु पथप्रदर्शन करना तथा चिरकालीन आनंद प्राप्ति में गुरु का महत्त्व अनन्य है । यह स्वभाविक है कि गुरु के मार्गदर्शन में साधना करते समय साधक गुरु के स्थूल रूप में अटक सकता है क्योंकि गुरु ही सतत साधक का र्इश्वर प्राप्ति हेतु मार्गदर्शन तथा उसके आध्यात्मिक तथा सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । यदि गुरु के प्रति आसक्ति प्रायः रहने लगी तो इससे आध्यात्मिक गतिहीनता आ सकती है । इसीलिए कहा जाता है कि साधक को तत्त्वनिष्ठ होना चाहिए ना कि व्यक्तिनिष्ठ । परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी  सदैव कहते हैं ‘मेरे स्थूल देह में न अटके रहिए’ । दूसरे शब्दों में परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी हमसे अपेक्षा रखते हैं कि हम उनके स्थूल देह में अटके बिना अध्यात्मप्रसार का कार्य करते रहें । इस प्रकार वे हमें सगुण से निर्गुण की ओर ले जा रहे हैं ।

३. तत्त्वनिष्ठ होने के लाभ

३.१ आध्यात्मिक गतिहीनता से बचना

यदि साधक व्यक्तिनिष्ठ हो तो वह आध्यात्मिक रूप से गतिहीन हो सकता है । यदि साधक तत्त्वनिष्ठ हो तो ऐसा नहीं होगा । जो स्थूल देह में अटक जाते हैं, वे सीमित समय के लिए कार्य कर सकते हैं जबकि निर्गुण स्तर पर कार्य करनेवाले सूक्ष्म स्तर पर भी कार्य करने में सक्षम होते हैं । उदाहरण के लिए, यदि किसी की रूचि बागवानी करने में हो, तब उसके द्वारा सींचे जाने तथा देखभाल किए जानेवाले बगीचे का क्षेत्र उसकी शारीरिक क्षमता तक ही सीमित होगा । पृथ्वी की प्रकृति के विस्तार की तुलना में हम जिस बगीचे की देखभाल करते हैं उसका विस्तार अत्यल्प है । प्रकृति की पूर्ण वनस्पतियों की देखभाल सूर्य, वर्षा इत्यादि द्वारा की जाती है । इसी प्रकार साधना करते समय हमें ध्यान देना चाहिए कि स्वयं को किसी व्यक्ति अथवा गुरु के स्थूल रूप में ना अटकाएं और ना ही सीमित रखें । व्यक्ति को गुरु के मार्गदर्शन का अनुसरण करना चाहिए; किंतु उनमें अटक कर नहीं रह जाना चाहिेए । हमें केवल र्इश्वर से जुडे रहना चाहिए जो नित्य हैं । केवल तभी हम जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर र्इश्वर से एकरूप हो सकते हैं ।

३.२ तत्त्वनिष्ठता के कारण व्यापकता की स्थिति प्राप्त करना

एक साधक का दृष्टिकोण सीमित हो सकता है तथा वह गुरु अथवा संत के स्थूल रूप में अटक सकता है । ऐसे प्रकरण में, गुरुतत्त्व द्वारा अन्यों के माध्यम से दिए जानेवाले ज्ञान से वह स्वयं को वंचित रखता है । यदि साधक तत्त्वनिष्ठ हो तो उसमें व्यापकता (र्इश्वर का एक गुण) आती है तथा उसकी वृत्ति ऐसी हो जाती है कि संपूर्ण ब्रह्मांड उसे अपना घर एवं पूरा विश्व उसे अपना परिवार लगने लगता है । इससे उसमें अन्यों से यहां तक की निर्जीव वस्तुओं से भी सीखने की प्रवृत्ति निर्मित होती है ।

३.३ स्थान तथा काल के बंधन से अप्रभावित रहना

व्यक्ति स्थान तथा काल के बंधन से बंधा होता है; इसलिए उस पर ‘उत्त्पत्ति, स्थिति तथा लय’ का मूलभूत नियम लागू होता है । आध्यात्मिक सिद्धांत स्थल तथा काल से बंधे नहीं होते, इसलिए वे इस नियम के परे होते हैं ।

उत्त्पत्ति, स्थिति तथा लय के मूलभूत नियम का अर्थ है जिसका निर्माण हुआ है, वह कुछ समय तक पोषित होता है और तत्पश्चात नष्ट हो जाता है ।

३.४ परिपूर्णता की ओर जाना

प्रत्येक व्यक्ति का अपना अनोखा मूलभूत स्वभाव होता है । प्रत्येक के स्वभाव में त्रुटियां तथा दोष होते हैं I। ‘तत्त्व’ निर्गुण होने के कारण इसका कोर्इ अपना स्वभाव नहीं होता, इसलिए इसमें कोर्इ दोष नहीं होता ।

४. सगुण से निर्गुण तत्त्व की ओर जाने का महत्त्व

निर्गुण सर्वव्यापी, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान र्इश्वर हैं ।