भगवद गीता के संस्कृत में लिखित मूलग्रंथ का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करने का प्रभाव


इस श्रृंखला के सभी लेखों को देखने के लिए यहां क्लिक करें ।

१. प्रयोग की पृष्ठभूमि तथा उद्देश्य

जब भगवद गीता जैसे धार्मिक ग्रंथ का (उसकी मूल भाषा संस्कृत से) अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जाता है तो क्या ग्रंथ से प्रक्षेपित स्पंदनों में भी कोई अंतर होता है, इसका परीक्षण करना ।

२. प्रयोग कैसे किया गया

  • भगवद गीता का अनुवाद ५० से अधिक भाषाओं में किया जा चुका है । इन ५० भाषाओं में से, हमने भगवद गीता के संस्कृत में लिखे मूलपद के साथ अंग्रेजी, हिंदी तथा मराठी में अनुवादित उसी पद पर प्रयोग करने के लिए उनका चयन किया । अनुवादित पद का चयन करते समय, वे प्रतिष्ठित स्रोत से ही लिए जाएं इसका ध्यान रखा गया जिससे यह सुनिश्चित रहे कि इनके वास्तविक छंदबद्ध रूप के साथ, उसके सही अर्थ को सुरक्षित रखा गया हो । हमने अंग्रेजी भाषा का चयन इसलिए किया क्योंकि यह विश्व भर में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली भाषा है तथा हिंदी भाषा का इसलिए क्योंकि यह भारत की राष्ट्रीय भाषा है । हमने मराठी भाषा का भी चयन किया क्योंकि यह प्रादेशिक भाषा का एक उदाहरण है तथा स्वरविज्ञान एवं लिपि में संस्कृत भाषा के निकटवर्ती है ।
नियंत्रण समूह वह समूह है, जिसका उपयोग शोधकर्ता बेंचमार्क के रूप में अन्य परीक्षित पदार्थों की गुणवत्ता मापने के लिए करते हैं
  • हमने इस प्रयोग के लिए पीआइपी तकनीक का उपयोग किया ।
  • हमने ५ पृष्ठ तैयार किए तथा उन्हें सहारे के लिए लकडी के श्वेत तख्ते पर लगाया गया । पहला पृष्ठ रिक्त छोडा गया तथा उसका उपयोग मूल पाठ्यांक (बेसलाइन रीडिंग) प्राप्त करने के लिए किया गया (उसी समान जिस प्रकार नियंत्रण समूह का प्रयोग किया जाता है)। अन्य पृष्ठों में संस्कृत में लिखित मूलग्रंथ के पृष्ठ के साथ संस्कृत ग्रंथ के क्रमशः अंग्रजी, हिंदी तथा मराठी भाषा में अनुवादित संस्करणों के पृष्ठ थे ।
  • पीआईपी के प्रयोग हेतु दिए गए परिचालन निर्देशों के अनुसार प्रयोग को एक विशेष श्वेत कक्ष में संचालित किया गया । प्रयोग के समय विद्युत को प्रमाण के अनुसार रखा गया तथा किसी भी प्रकार का विद्युतीय विपर्यय (लाइटिंग फ्लक्चुएशन) नहीं था । इस विनियमित वातावरण से प्रयोग में बाह्य से होने वाले प्रभाव भी न्यून हो गए । केवल एक अनुभवी संचालक (ऑपरेटर) ही कक्ष में रहा तथा सभी परीक्षण उसी संचालक द्वारा संचालित किए गए । परिणामों का विश्लेषण प्रयोग पूर्ण होने के उपरांत किया गया । यह इस उपकरण की मानक संचालन प्रक्रिया है ।
  • सभी पीआईपी रंगों का पूर्ण विवरण पीआईपी तकनीक की कलर गाइड में उपलब्ध है
  • प्रयोग के समय कैमरे की सेटिंग्स में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया ।

३. प्रयोग से प्राप्त अवलोकन

) रिक्त श्वेत पृष्ठ का मूल पाठ्यांक

सर्वप्रथम, बिना लिखावट के पृष्ठ का मूल पाठ्यांक प्राप्त करने के लिए हमने लकडी के तख्ते पर रिक्त श्वेत पृष्ठ को लगाया । पीआइपी द्वारा उत्पन्न चित्र आगे दर्शाया गया है । जैसा कि नीचे दर्शाया गया है, प्रत्येक रंग का एक अर्थ है । वस्तु तथा मेज पर लगे रंग को नहीं लिया गया क्योंकि पीआइपी उपकरण प्रमुख रूप से वस्तु अथवा व्यक्ति के चारों ओर के ऊर्जा क्षेत्र का माप लेता है ।

) अंग्रेजी में अनुवादित पद से उत्सर्जित स्पंदन

नीचे दिए गए चित्र में, हमने रिक्त पृष्ठ को हटा कर तथा उसके स्थान पर भगवद गीता के संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवादित छंद के पृष्ठ को रखा । (यह मानक संचालन प्रक्रिया है कि प्रत्येक लिखावट में परिवर्तन करने के मध्य, पाठ्यांक का अगला नमूना लेने से पहले हमने वातावरण को स्थिर होने दिया । इससे यह सुनिश्चित होने में सहायक होता है कि किसी भी वस्तु के कारण पाठ्यांकों में किसी प्रकार का अधिव्यापन (ओवरलैप) न हो ।)

जैसा कि आप देख सकते हैं, रेतीला भूरा रंग जो नकारात्मकता दर्शाता है, यहां उसमें वृद्धि हुई है । रेतीले भूरे रंग का विस्तार पीले क्षेत्र तक हो गया है तथा पीले की मात्रा न्यून हो गई है एवं फलस्वरूप चैतन्य, जो वातावरण में सकारात्मक स्पंदन के रूप में विद्यमान है वह भी न्यून हुआ है ।

इ) हिंदी में अनुवादित पद से उत्सर्जित स्पंदन

नीचे दिए गए चित्र में, मूल संस्कृत पद का हिंदी में अनुवादित संस्करण रखा गया । (भाषांतर का संदर्भ – गीतार्थ बोधिनी, प्रकाशक – रावजी श्रीधर गोंधलेकर, पुणे, ३ सितंबर १८८१, पृष्ठ २)

जैसा की आप देख सकते है, रेतीला भूरा रंग जो नकारात्मकता दर्शाता है, यहां न्यून हुआ है । पीला रंग जो चैतन्य का प्रतीक है, उसमें वृद्धि हुई है । अब हम हिंदी में लिखित पद के चारों ओर व्याप्त ऊर्जा क्षेत्र में चांदी समान रंग भी उभरा हुआ देख सकते हैं, जो कि आध्यात्मिक शुद्धता का प्रतीक है ।

) मराठी में अनुवादित छंद से उत्सर्जित स्पंदन

नीचे दिए गए चित्र में, अब हमने भगवद गीता के संस्कृत से मराठी में अनुवादित छंद के पृष्ठ को रखा । (भाषांतर का संदर्भ –  श्री वमन पंडित, गीतार्थ बोधिनी ग्रंथ में उल्लेखानुसार, प्रकाशक – रावजी श्रीधर गोंधलेकर, पुणे, ३ सितंबर १८८१, पृष्ठ २)

जैसा कि आप देख सकते हैं कि रेतीला भूरा रंग जो वातावरण में नकारात्मकता का दर्शाता है, यहां और अधिक घटा है । पीला क्षेत्र जो चैतन्य को दर्शाता है, वह कुछ-कुछ उसी समान स्थिर बना हुआ है । यद्यपि श्वेत रंग जो आध्यत्मिक शुद्धता को दर्शाता है, उसमें उल्लेखनीय ढंग से वृद्धि हुई है ।

टिप्पणी : चित्र के शीर्ष पर पीला हरा रंग (सूक्ष्म स्तर पर उपचार) प्रकट होना आरंभ हो गया ।

ई) संस्कृत में लिखित मूल पद से उत्सर्जित स्पंदन

अंत में हमने संस्कृत में लिखित मूलपद को रखा । यहां हम शीर्ष पर पीले हरे रंग के साथ चांदी समान रंग में और अधिक वृद्धि को देख सकते है । पीला हरा रंग उच्च स्तर की उपचारी क्षमता दर्शाता है जो अधिक सूक्ष्म है ।

टिप्पणियों का सारांश 

विभिन्न अवलोकनों को संक्षेप में प्रस्तुत करने हेतु, हमने मूल पाठ्यांक से अनुवादित भाषा में प्रत्येक परिवर्तन के साथ सकारात्मक तथा नकारात्मक रंगों को एकत्र करके एक सारणी उपलब्ध करवाई है । नीचे दी गई सारणी में, हमने सकारात्मक स्पंदनों को पीले से तथा नकारात्मक स्पंदनों को गहरे भूरे रंग से दर्शाया है । दोनों रंग पीआइपी चित्र में कुल स्पंदनों के एक प्रतिशत के रूप में व्यक्त हुए हैं ।

मूल पाठ्यांक तथा लैटिन लिपि की तुलना में देवनागरी लिपि की भाषाओं में अनुवादित पदों में उच्च अनुपात में सकारात्मक स्पंदन थे ।

उपर्युक्त सारणी से, हिंदी, मराठी तथा संस्कृत भाषा में सकारात्मक स्पंदनों का अनुपात एक समान था । किंतु क्या देवनागरी लिपि की प्रत्येक भाषा में सकारात्मक स्पंदनों में कोई अंतर देखा गया ?

इसके लिए हम नीचे दिए गए रंगों के अनुपात में हुए विस्तृत परिवर्तन को देखेंगे ।

उपर्युक्त सारणी के अनुसार उच्च सकारात्मक स्तर पर सकारात्मक स्पंदनों में अति सूक्ष्म अंतर था । आगे दी गई सारणी में, हमने मात्र पीले हरे (जो सूक्ष्म स्तर पर उपचार होने को दर्शाता है) तथा चांदी समान (जो आध्यात्मिक शुद्धता को दर्शाता है) रंग पर ध्यान दिया तथा हमने देखा कि देवनागरी लिपि की प्रत्येक भाषा के साथ इन दोनों रंगों में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए । संस्कृत में सर्वाधिक सकारात्मक स्पंदनों के साथ सर्वाधिक अनुपात में रंग देखे गए

४. विश्लेषण तथा निष्कर्ष

  • यह प्रयोग दर्शाता है कि अन्य सभी बातों के समान रहते हुए भी, जब एक पवित्र ग्रंथ से लिए गए एक ही पद को विभिन्न भाषाओं में अनुवादित किया जाता है, तो जहां भले ही हमने उसके अर्थ का पूरा सार पता लगाने का प्रयत्न किया है, किंतु लिखावट से उत्सर्जित होने वाले स्पंदन भाषा तथा लिपि के आधार पर परिवर्तित होंगे ।
    नियम : जब किसी विषय को अन्य भाषाओं में अनुवादित किया जाता है, तो उसे जिस भाषा में अनुवादित किया जा रहा है उसके आधार पर सकारात्मकता अथवा नकारात्मकता में परिवर्तन होगा ।
  • स्पंदनों में परिवर्तन होने से पाठक पर उसका प्रभाव पडता है । स्पंदन जितने अधिक सकारात्मक होंगे, उसका भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्तर पर उतना ही अधिक सकारात्मक प्रभाव पडेगा । इसके विपरीत यदि किसी ग्रंथ में अधिक नकारात्मक स्पंदन विद्यमान है तो उससे नकारात्मक प्रभाव पडने की संभावना बढेगी ।
  • इस प्रयोग के आधार पर, हमने देखा कि लिपि की सकारात्मकता तथा भाषाओं की सूक्ष्मताओं के आधार पर भाषाओं को आगे श्रेणी दी गई है । हमने इन्हें अधिक सकारात्मक से अधिक नकारात्मक की ओर अवरोही (बढते हुए) क्रम में व्यवस्थित किया है ।

    १. संस्कृत

    २. मराठी

    ३. हिंदी

    ४. अंग्रेजी