१. परिभाषाएं
संस्कृत में इच्छा शब्द का अर्थ है अभिलाषा । इसके अनुसार :
- स्वेच्छा : स्व का अर्थ है ‘मैं’ अथवा ‘मेरा’ । स्वेच्छा से व्यवहार करना अर्थात सबकुछ अपनी इच्छानुसार करना
- परेच्छा : पर का अर्थ है अन्यों का । परेच्छा से व्यवहार अर्थात सबकुछ अन्यों की इच्छानुसार करना ।
- ईश्वरेच्छा : ईश्वरेच्छा से व्यवहार करना अर्थात सबकुछ ईश्वर की इच्छानुसार करना ।
२. साधना में स्वेच्छा-परेच्छा और ईश्वरेच्छा की अवधारणा और प्रगति
लगभग हम सभी स्वयं को अपने शरीर (पंचज्ञानेंद्रिय) मन और बुद्धि के रूप में पहचानते हैं (हम सभी का तादात्म्य अपने शरीर मन और बुद्धि से होता है) । यह हमारा अहं भी कहलाता है; परंतु अध्यात्म हमें बताता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मा है अथवा हममें से प्रत्येक में ईश्वर विद्यमान हैं । आत्मा का स्वभाव निरंतर आनंद है अर्थात सुख की सर्वोच्च स्थिति जो किसी उद्दीपक (stimulus) पर निर्भर नहीं है । साधना का मुख्य उद्देश्य है :
- पंच ज्ञानेंद्रिय मन, बुद्धि के साथ अपना तादात्म्य कम करते हुए अंततः समाप्त करना
- अपने भीतर विद्यमान आत्मा (ईश्वरीय तत्व) को अनुभव कराना और उससे तादात्म्य कराना
ऐसा करने का एक मार्ग है साधना द्वारा स्वेच्छा से परेच्छा और अंततः ईश्वरेच्छा की ओर जाना ।
जब हम सब कुछ अपनी इच्छा अनुसार करते है तो यह हमारी पंचज्ञानेंद्रिय मन और बुद्धि के अनुसार होता है । जैसे जैसे हम इन इच्छाओं के अनुसार चलते हैं हम पंचज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि पर अपनी निर्भरता बढाते हैं ।
इससे अपने अंदर विद्यमान आत्मा को अनुभव करना और समझना असंभव हो जाता है । इस प्रकार की स्वेच्छा उस पशु की भांति है जो अन्यों का विचार नही करता ।
ऐसा कथन है कि किसी वस्तु की ओर ध्यान न देकर हम अपने ऊपर उसका प्रभाव कम करते हैं । यही सिद्धांत हम अपनी साधना के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं । जब हम अन्यों की इच्छा को सुनते और मानते हैं तो अपनेआप अपनी इच्छाओं की अनदेखी करने लगते हैं और उन्हें कम महत्त्व देते हैं । जैसे जैसे हम अन्यों की इच्छा अनुसार करते हैं हमारा अहं कम होने लगता है (अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय मन और बुद्धि का लय)।
आईए, एक व्यक्ति के परेच्छा से आचरण करने का उदाहरण लेते हैं ।
परेच्छा को स्वेच्छा समझना ही इसका पूर्ण रूप से पालन करना है । साधना के लिए नियमित और निरंतर बढते हुए अभ्यास को परेच्छा से जोड देने पर व्यक्ति का तादात्म्य अपने पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि से कम होने लगता है । ऐसी स्थिति में व्यक्ति को जीवन में सगुण गुरु की प्राप्ति होती है । एक गुरु का विश्व मन और विश्व बुद्धि से संबंध होता है अतः वह ईश्वरेच्छा अनुसार कार्य करता है । उन्हे सुनकर और उनकी इच्छा के अनुसार करना अर्थात ईश्वरेच्छा अनुसार करना । जब व्यक्ति का अहं कम होता है (अर्थात संत का स्तर) तो वह सीधे विश्व मन और विश्व बुद्धि से जुड जाता है और प्रत्यक्ष रूप से ईश्वरेच्छा अनुसार कर सकता है । ईश्वरेच्छा अनुसार व्यवहार हमें स्वयं ईश्वर होने की अनुभूति देता है ।
३. इस विषय पर अधिकांशतः पूछे जानेवाले प्रश्न :
१. परेच्छा का पालन किस सीमा तक करना चाहिए ? यदि कोई हमें अयोग्य कार्य करने को कहता है तब भी क्या हमें परेच्छा से करना चाहिए अथवा अपनी सामान्य बुद्धि का उपयोग करते हुए उसे मना करना चाहिए ?
उत्तर : हमे यह ध्यान रखना चाहिए कि जब भी परेच्छा से चलने पर हमारी साधना में बाधा आती है तब ऐसा करना अयोग्य है । यदि यह पचास प्रतिशत योग्य और पचास प्रतिशत अयोग्य है तब भी परेच्छा से कर सकते हैं । यह पूर्णतः आध्यात्मिक दृष्टिकोण से है जहां अन्य व्यक्ति की बात सुनकर उनकी इच्छा से करने का उद्देश्य है अपना अहं क्षीण करना । यह सांसारिक दृष्टिकोण से नहीं है । आगे दिया उदाहरण इसे विस्तार से बताता है ।
२. क्या हम केवल घर और परिवार में परेच्छा से करें अथवा संपर्क में आनेवाले किसी भी व्यक्ति के लिए ऐसा करें ।
उत्तर : बिना साधना में बाधा पडे जहां भी ऐसा करना संभव हो ।
उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति हमें प्रतिदिन अपने साथ चलचित्र देखने जाने के लिए कहता है तो हमें ऐसा नहीं करना चाहिए । ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे पास प्रतिदिन चलचित्र देखने जाने का समय नहीं है हमें अपनी सांसारिक कर्तव्य पूर्ण करने के साथ साथ साधना भी करनी है । परंतु यदि हमारा मित्र हमें प्रत्येक सप्ताह चलचित्र देखने के लिए कहता है तो यद्यपि हम इसे समय व्यर्थ करना मानते है परंतु परेच्छा के दृष्टिकोण से ऐसा कर सकते हैं ।
३. यदि हम परेच्छा का पालन विरोध और क्रोध के साथ करते हैं ?
हमें परेच्छा के आध्यात्मिक लाभ को समझना चाहिए । कभी कभी बुद्धि के स्तर पर यह समझ लेने के उपरांत भी कि हमें परेच्छा से करना है, व्यक्ति के मन में इसके प्रति विरोध और प्रतिक्रिया होती है । विरोध और प्रतिक्रिया के निवारण के लिए हम स्वयंसूचना दे सकते हैं ।