१. भाव के प्रकार
भाव के दो प्रकार होते हैं, प्रकट और अप्रकट ।
- जब भाव कुछ लक्षणों द्वारा प्रकट होता है, तब उसे प्रकट भाव कहा जाता है । आगे के अनुच्छेदों में हम विभिन्न प्रकार के प्रकट भावों का वर्णन किस्तारपूर्वक करेंगे ।
- अप्रकट भाव का अर्थ है भाव का होना; परंतु किसी दूसरे के समक्ष उसका प्रदर्शन न होना ।
इन दोनों में से, अप्रकट भाव का होना उच्चतर स्थिति है; क्योंकि प्रकट भाव में जो शक्ति व्यय होती है, वह इसमें संग्रहित हो जाती है। इस आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग साधना में प्रगति हेतु हो सकता है । इसका उपयोग गुरु और र्इश्वर की सेवा तथा अध्यात्मप्रसार हेतु करना भी संभव हो सकता है ।
२. भाव के लक्षण
जब कोई व्यक्ति भाव अनुभव करता है तो वह ८ प्रकार से प्रकट होता है । भाव के ८ प्रकार हैं :
१. स्तंभित होना
२. पसीना आना
३. रोमांचित होना
४. गला रुंधना
५. कंपन होना
६. पीला पडना
७. आंखों से अश्रु बहना
८. मूर्च्छित हो जाना
भाव के ये लक्षण सहजता से अचानक ही किसी सांसारिक कारण के अभाव में प्रकट होते हैं । इन भावों को अनुभव करते समय व्यक्ति के वर्तन में परिवर्तन आ जाता है और उसे देह बोध नहीं रहता, चित्त किसी धार्मिक प्रेरणा पर स्थिर होकर विचार रहित हो जाता है । यह तभी होता है जब अकस्मात सात्विकता बढती है ।
उदाहरणार्थ, अधिकांश साधक आरती अथवा भजन गाते समय, गुरु अथवा देवता का स्मरण करते समय अथवा अपने जीवन की विभिन्न अनुभूतियों का स्मरण करते समय भावाश्रु का अनुभव करते हैं । भाव के ८ प्रकारों में से भावाश्रु एक प्रकार है । आठों प्रकार के भाव जब सहज ही एक साथ प्रदर्शित होते हैं, तो उन्हें अष्टसात्विक भाव जागृत हुए, ऐसा कहते हैं ।
इन भावों के प्रदर्शन का अनुभव सामान्यत: क्षणिक होता है परंतु कुछ अवसरों पर ये अधिक समय तक बने रहते हैं । विलक्षण अनुभूति ले रहे उच्च स्तर के साधक अथवा भक्तिमार्गी संत ही अधिक समयतक भावावस्था में रह पाते हैं ।
भाव अनुभव करने का तात्पर्य यह नहीं है कि उसे अनुभव करनेवाले का आध्यात्मिक स्तर अनिवार्य रूप से ऊंचा ही हो । साथ ही शारीरिक अथवा भावनात्मक स्थितियों और आध्यात्मिक भाव में भ्रमित नहीं होना चाहिए । कृपया हमारा लेख देखें – भावना और भाव में क्या अंतर है ?