भाव क्या होता है ? इस लेख में हमने भाव के विषय में जानकारी दी है । इस लेख में हम यह देखेंगे कि साधारण भावनाएं और भाव, इनमें क्या अंतर है ।
१. भावनाएं क्या होती हैं ?
हममें से सभी ने स्वयं में और दूसरों में भावनाओं को अनुभव किया है । भावनाएं भौतिक जीवन से संबंधित संवेदनाएं होती हैं । वे मूलत: हमारे बाह्य मन की वृत्तियां होती हैं । इन भावनाओं के कारण हम सुख अथवा दु:ख अनुभव करते हैं और उनका संबंध हमारे ‘छोटे मैं’ से होता है । इसलिए भावनाओं के उभरने पर हम अपने पांच इंद्रिय, मन और बुद्धि से एकरूप हो जाते हैं । अधिक भावनाप्रधान हो जाने पर हम भौतिक अस्तित्व में फंस जाते हैं और उस समय हमें अपने अस्तित्व का अधिक बोध होने लगता है । इसलिए भावनाप्रधानता हमें ईश्वर से अधिक दूर ले जाती है ।
२. भाव क्या होता है ?
दूसरी ओर भाव वह स्थिति है जिसमें हम ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में रहते हैं । यह स्थिति हमारे चित्त से संबंधित होती है । जब भाव जागृत हो जाता है उस समय हम अपने भौतिक अस्तित्व के परिचय से ऊपर उठते हैं । इस स्थिति में हम अपने ‘छोटे मैं’ से हटकर ‘बडे मैं’ से तादात्म्य पाते हैं । भाव हमें आनंद की अनुभूति देता है । सर्वोच्च सुख को आनंद कहते हैं जो सुख और दु:ख से परे है ।
३. भाव और भावना में अंतर कैसे करें ?
कभी कभी आध्यात्मिक वातावरण में किसी अधिक भावनाप्रधान व्यक्ति की भावना को भाव समझ लिया जाता है । उदाहरण के लिए जब ऐसा व्यक्ति किसी मंदिर में किसी भावना के आवेश में हो, अथवा अपने गुरु की उपस्थिति में जिनसे वह मानसिक स्तर पर जुडा हो । किसी व्यक्ति में भाव है अथवा भावना, यह केवल जागृत छठवीं इंद्रिय के माध्यम से ही निश्चित किया जा सकता है । किंतु यह भाव है अथवा भावना, इसको इन कसौटियों का आधार लेकर बौद्धिक स्तर पर जांच कर सकते हैं ।
- अहं का न्यून होना अथवा ‘छोटे मैं’ का न्यून होना : भाव जागृत होने पर अहं में लक्षणीय न्यूनता पाई जाती है । इसलिए जहां-जहां हमारे अहं का प्रकटीकरण होता है, उन प्रसंगों के आधार पर वह भाव है अथवा भावना, इसका अभ्यास कर सकते हैं । उदाहरणार्थ, जब भाव जागृत होता है, उस अनुभूति के समय हमारे मन में अहं के कौन से विचार आते हैं, इसका अभ्यास कर सकते हैं । भाव की स्थिति से बाहर आने के पश्चात भी उस स्थिति के विषय में अहं के विचार आ सकते हैं ।
- देह बुद्धिका न्यून होना : भाव जागृति के समय हम जितने ‘बडे मैं’ से तादात्म्य पाते हैं, हमारी देहबुद्धि उतनी अधिक न्यून होती है । इसलिए जब भाव जागृत होता है और आनंदाश्रुओं के रूप में अष्टसात्विक भाव प्रकट होता है, उस समय स्वयं का अस्तित्व अनुभव नहीं होता । यह तत्व उस व्यक्ति के लिए भी लागू होता है जो लज्जाशील प्रकृति का अथवा आत्मकेंद्रित हो और अनेक अपरिचित लोगों के सामने जिसकी भाव जागृति होती है ।
- अपेक्षा रहित प्रेम अनुभव करना : भाव जागृति मूलत: वह स्थिति होती है जहां हम स्वयं में और दूसरों में ईश्वर को अनुभव करते हैं । इस स्थिति में हमें स्वयं के अस्तित्व का भान अल्प होता है । इसलिए इस अवस्था में हम दूसरों के प्रति अपेक्षा रहित प्रेम (प्रीती) अनुभव करते है l
- ठंडे अश्रु : भाव जागृति होने पर ठंडे अश्रू बहते हैं और भावना जागृत होने पर उष्ण अश्रू बहते हैं ।
- रोने का प्रकार : जब भावना जागृत होती है तो व्यक्ति सिसक-सिसक कर रोता है, किंतु भाव जागृत होने पर उसका रोना शांति से होता है ।
- भाव जागृत होने के पश्चात् की स्थिति : भाव जागृति अर्थात ईश्वर से एकरूप होना, इसलिए उस स्थिति से बाहर आने पर व्यक्ति अपने ‘बडे मैं’ ईश्वर से तादात्म्य में रहने के कारण उसकी संकुचित वृत्ति घटने लगती है और वह अधिक स्थिर हो जाता है, आध्यात्मिक प्रगल्भता बढती है और आध्यात्मिक साधना एवं मोक्ष प्राप्ति के ध्येय के विषय में उसकी बुद्धि का निश्चय और भी दृढ हो जाता है ।