१. भूमिका

आध्यात्मिक शोध से हमने सीखा है कि हमारा जन्म दो कारणों से होता है :

१. प्रारब्ध भोग भोगना और

२. आध्यात्मिक उन्नति करना ।

प्रारब्ध एक ऐसी प्रक्रिया है, जिस पर प्रायः हमारा नियंत्रण नहीं रहता;किंतु हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए गंभीरता से प्रयत्न कर सकते हैं । ऐसे प्रयत्न करने में, आध्यात्मिक उन्नति को अपने जीवन का उद्देश्य बनाने में और स्वयं में कुछ विशिष्ट गुण अपनाने से हमें सहायता मिलती है । इस लेख में हमने साधक किसे कहें, आध्यात्मिक यात्रा में सहायता के लिए साधक में कौन-से गुण होने चाहिए और वह उन गुणों का विकास कैसे कर सकता है, का विवेचन किया है ।

२. साधक किसे कहें ?

साधक वह है,

१. जो अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रतिदिन सत्यनिष्ठा से गंभीर प्रयास करता है ।

२. जिसमें आध्यात्मिक उन्नति की तीव्र लगन हो और

३. जो प्रतिदिन साधना की गुणवत्ता और मात्रा, दोनों बढाने का प्रयास करता है ।

यह आवश्यक है कि, आध्यात्मिक उन्नति हेतु साधक के प्रयत्न साधना के ६ मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार हो ।

३. साधक और सामान्य व्यक्ति में अंतर

सच्चा साधक बनने के लिए आध्यात्मिक अंर्तमुखता अथवा र्इश्वर पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है । आध्यात्मिक अंर्तमुखता से शनैः-शनैः पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि का अस्तित्व घटता जाता है । जबकि दूसरी ओर सामान्य व्यक्ति अपनी पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि का अस्तित्व बढाने के लिए श्रम करते हैं । नीचे दी गई सारणी साधक और सामान्य व्यक्ति के मध्य का अंतर प्रदर्शित करती है :

सामान्य व्यक्ति साधक
मुख्य उद्देश्य भौतिक उन्नति करना मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति करना
शरीर, मन, और बुद्धि के विकास हेतु प्रयास शरीर, मन, और बुद्धि का लय करने हेतु प्रयास
बाह्य यात्रा आंतरिक यात्रा
स्वभाव दोषों को बढाता है; जैसे – आसक्ति, घमंड, क्रोध इत्यादि। दैवी गुणों को बढाता है; जैसे – प्रीति, अंतर्मुखता, ईश्वर के प्रति भाव इत्यादि।
स्वयं को कर्त्ता मानता है । ईश्वर को कर्त्ता मानता है ।

४. साधक के चार गुण

साधक में चार गुण होने चाहिए । ये गुण उसकी साधना में निम्नांकित प्रकार से

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इसके अतिरिक्त, एक आदर्श साधक में निम्नानुसार कुछ अन्य विशेषताएं भी होनी चाहिए –

  • जन्म-मृत्यु चक्र से मुक्त होने की तीव्र इच्छा,
  • स्वयं में परिवर्तन लाने की तडप एवं इसके लिए अपने स्वभाव दोषों को दूर करना तथा दैवी गुण बढाना,
  • प्रत्येक घटना को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न करना,
  • सेवा करते समय र्इश्वर अथवा गुरु का निरंतर स्मरण करना,
  • अपने प्रत्येक कार्य का कर्त्तापन र्इश्वर को अर्पित करने का प्रयास करना,
  • प्रत्येक कार्य परिपूर्ण करने का प्रयास करना,
  • प्रत्येक कार्य साधना के रूप में करने का प्रयास करना और अन्यों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करना तथा
  • र्इश्वरनिर्मित प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम अनुभव करना ।

जैसै-जैसे साधक आध्यात्मिक उन्नति करते जाता है, वैसे-वैसे वह अधिक आदर्श गुणों को अपनाता जाता है । ये गुण एक शिष्य के प्रत्येक कार्य में झलकते हैं ।

५. साधकत्व कैसे विकसित करें

जब हम निश्‍चय कर लेते हैं कि हमें अच्छा मनुष्य और अच्छा साधक बनने के लिए स्वयं में परिवर्तन लाना है, तब हमारे सभी प्रयत्न क्रमशः सरल होने लगते हैं । आध्यात्मिक उन्नति में दृढ इच्छाशक्ति का महत्त्व ८० %होता है ।

आगे कुछ ठोस उपाय बताए गए हैं, जिन्हें दैनिक जीवन में, कार्यस्थल, घर इत्यादि स्थानों पर आचरण में लाने से साधकत्व विकसित होता है ।

  • वर्तमान में की जा रही साधना की गुणवत्ता और मात्रा दोनों नियमित रूप से बढाना – उदाहरणार्थ, यदि हम अपने दैनिक कार्य करते हुए अभी प्रतिदिन २ घंटे नामजप करते हैं, तो अगले महीने से प्रतिदिन ३ घंटे नामजप करने का प्रयास कर सकते हैं, उसके अगले महीने प्रतिदिन ४ घंटे नामजप इत्यादि ।
  • दूसरों के गुणों का निरीक्षण तथा अनुकरण करना –जैसे-सुव्यवस्थितता, समयपालन । उदाहरणार्थ, जब आप देखते हैं कि आप के मित्र आप से सदैव निर्धारित समय पर मिलते हैं, तब स्वयं से प्रश्‍न करें कि क्या मैं भी बैठकों में निर्धारित समय पर पहुंचता हूं ?क्या मैं अपने मित्रों की भांति समय के पालन का प्रयास कर सकता हूं ।
  • प्रत्येक घटना से सीखने की मनःस्थिति में रहना –उदाहरणार्थ, यदि आपका कोई सहकर्मी आप पर क्रोध करने लगे, तो आप क्रोधित न होकर शांत रहने का प्रयास करें; दूसरों की सहायता करना सीखें, घटना की ओर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करें । इससे आप में निरपेक्ष प्रेम इस दैवी गुण का विकास होगा ।

उपर्युक्त बिंदुओं पर तत्परता से प्रयत्न करने पर स्वयं में साधकत्व विकसित होता है । यह समझ लीजिए कि साधक होना कोई पद-प्रतिष्ठा नहीं है; यह एक प्रवृत्ति है जिसे दैनिक जीवन में आचरण में लाया जाता है ।

६. निष्कर्ष

यदि कोई अपने में साधक के गुणों को आत्मसात करे, तो उसकी आध्यात्मिक उन्नति तीव्र होगी । इन गुणों के विकास से आध्यात्मिक यात्रा निर्बाधरूप से चलती रहती है और आनंद भी अधिक मिलता है ।

हम कभी कठोर साधना करनेवाले ऐसे लोगों से भी मिले होंगे, जिन्होंने साधना के किसी मार्ग का निष्ठापूर्वक आचरण किया होगा । कभी-कभी उनकी साधना की कालावधि २० अथवा ३० वर्ष होती है; किंतु उनकी, उन्हें अपेक्षित आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती । हमारे संबंध में ऐसा न हो, इसके लिए अपने में साधक के गुण लाने के अतिरिक्त हमारा सुझाव है कि साधना, अध्यात्म के ६ मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप की जानी चाहिए ।

साधको, श्रद्धापूर्वक आगे बढते रहें, आप की मुक्ति आप ही के हाथों में है । – प.पू. डॉ. आठवले