विषय सूची
१. कर्मयोग की प्रस्तावना
कर्ममार्ग अथवा कर्मयोग सुनकर सामाजिक कार्यकर्ता, दान दाता एवं स्वयंसेवी लोगों की छवि मन में उभरती है । वास्तव में अधिकांशतः ऐसे सामाजिक अथवा स्वयंसेवी लोगों द्वारा किया जानेवाला दान-पुण्य भावनात्मक स्तर पर अथवा प्रचार एवं प्रसिद्धि के लिए किया जाता है । इसलिए यह वास्तविक कर्मयोग नहीं होता ।
कुछ लोगों को लगता है कि अपने दैनिक क्रियाकलाप अथवा अपना कार्य भलीभांति और प्रामाणिकता (ईमानदारी) से करना कर्मयोग है; परंतु यह भी सत्य नहीं है; क्योंकि इससे उनकी आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती ।
तो वास्तव में कर्म का मार्ग अथवा कर्मयोग क्या है ?
२. कुछ मूलभूत सिद्धांत
कर्मयोग के विषय में विस्तृत रूप से समझने के पूर्व, आइए पहले कुछ मूलभूत सिद्धांत समझ लें ।
२.१ कर्म फल न्याय
अध्यात्मशास्त्र के अनुसार, प्रत्येक कर्म अथवा कृत्य का फल होता है । कर्म अच्छा है अथवा बुरा इसके आधार पर यह फल क्रमशः पुण्य अथवा पाप के रूप में मिलता है । साथ ही उस व्यक्ति एवं उस कर्म में उसका साथ देनेवाले व्यक्तियों के लेन-देन के हिसाब में जमा होता है ।
- अच्छे अथवा बुरे कर्म की तीव्रता के अनुसार पुण्य से सुख तथा पाप से दुख मिलता है ।
- कोई भी अपने कर्म के फल से बच नहीं सकता ।
- यदि इसी जन्म में हमने अपने कर्मों का फल नहीं भोगा (और यही अधिकांशतः होता है) तो हमें पुनः जन्म लेकर उन्हें भोगना पडता है । ऐसे प्रकरणों में जब तक पृथ्वी (भूलोक) पर परिस्थितियां अनुकूल नहीं होती, तब तक हमें प्रतीक्षा करनी पडती है । इसका अर्थ है, जिन लोगों के साथ हमारा लेन-देन का हिसाब है, जब तक वे पृथ्वी पर नहीं आते और पृथ्वी का काल भी हमारे भावी जीवन के अनुकूल नहीं होता, तक हमें प्रतीक्षा करनी पडती है । उदाहरण के लिए यदि हमें अपने पाप कर्म का फल भोगने हेतु बहुत यातना झेलनी हो, तो हमें जन्म लेने के लिए तब तक प्रतीक्षा करनी पडेगी, जब तक कि पृथ्वी पर यातनाओं का काल नहीं आता ।
- कोई भी अपने पाप कर्मों का फल नहीं भोगना चाहता, यह समझा जा सकता है; तथापि कोई अपने पुण्य कर्मों का फल क्यों नहीं भोगना चाहेगा ? इसके अनेक कारणों में से एक कारण यह है कि वर्तमान अथवा भावी जीवन में अपने पुण्य कर्मों का फल भोगते-भोगते हम आगे कुछ और कर्म करेंगे, जो पुनः पाप अथवा पुण्य बनेंगे । इससे लोगों के साथ अधूरे लेन-देन के हिसाब के कारण हम जीवन-मृत्यु के अंतहीन चक्र में फंस जाएंगे । पृथ्वी पर आज के काल में जब धर्म का ह्रास हुआ है, पापों की गठरी के साथ हमारा जन्म होने की तथा पूरे जीवनकाल में पापार्जन करने की संभावना ही अधिक रहती है । इस कारण आध्यात्मिक रूप से औसत व्यक्ति के जीवन में सुख से अधिक दुख है । इस कारण हम ऐसी स्थिति में फंसे हैं जहां दुख अनंत है और सुख का काल तथा तीव्रता तुलनात्मक रूप से न्यून है ।
२.२ क्रिया अथवा कृत्य
जिन कर्मों से पुण्य अथवा पापार्जन नहीं होता, वे क्रिया कहलाते हैं । सामान्यतः ये हमारे उद्देश्य रहित तथा अनैच्छिक कर्म होते हैं जैसे पलकें झपकाना, छींकना, इत्यादि ।
२.३ कर्म
कर्म का शाब्दिक अर्थ है उद्देश्यपूर्ण कृत्य अथवा कार्य । यहां ध्यान रखने की बात यह है कि कृत्य अथवा कार्य केवल शारीरिक क्रियाओं जैसे चलना, बोलना, हंसना आदि तक सीमित नहीं है अपितु इसमें पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय, मन और बुद्धि की सभी क्रियाएं सम्मिलित हैं । तथापि आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में कर्म का तात्पर्य वे कृत्य हैं, जिनसे पुण्य अथवा पापार्जन होता हो । ऐसे कृत्य जो बिना उद्देश्य के किए गए हों, जैसे सडक पर चलते समय अनायास किसी से टकरा जाना, यदि सामनेवाले को कुछ हानि हुई हो तब भी पापार्जन होता है; तथापि ८० प्रतिशत पापार्जन उद्देश्य पर निर्भर करता है ।
(यहां यह उल्लेखनीय है कि यहां प्रयुक्त कर्म शब्द प्रारब्ध के अर्थ में प्रयुक्त किए जानेवाले कर्म अथवा करम से भिन्न है ।)
२.४ अकर्म – कर्म
- यह आध्यात्मिक प्रगति का उच्चतम शिखर अथवा कर्मयोग के माध्यम से साध्य होनेवाला उच्चतम स्तर है ।
- यह केवल ८० प्रतिशत से अधिक स्तर के आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत लोगों के संदर्भ में होता है । कर्म का अकर्म-कर्म बनने की प्रक्रिया ८० प्रतिशत स्तर पर आरंभ होती है और १०० प्रतिशत स्तर पर पूर्ण होती है ।
- तब स्वैच्छिक/उद्देश्यपूर्ण कर्म जैसे दूसरों की सहायता करना भी क्रिया बन जाता है ।
- ईश्वर से एकरूपता की अवस्था में इन उन्नतों द्वारा किए जानेवाले कर्म अकर्म-कर्म के उदाहरण हैं । इस अवस्था में वे अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं (तात्पर्य उस अवस्था से है जब सभी देह जैसे स्थूलदेह, मनोदेह, कारणदेह एवं महाकारणदेह भी समझ के परे होते हैं) उनके कर्मों के फल उन्हें नहीं मिलते । साथ ही ये उन्नत ईश्वर से इतने एकरूप हो चुके होते हैं कि उनसे जो भी कर्म होते हैं, वे ईश्वर की इच्छा से होते हैं । इसलिए उनके सभी कर्म अकर्म-कर्म होते हैं ।
- इस अवस्था अथवा स्तर को पाना इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसके उपरांत व्यक्ति अपने कर्म फल के बंधन से मुक्त हो जाता है ।
- चूंकि इस प्रगत आध्यात्मिक स्तर पर व्यक्ति का अपनी पंचज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि से तादात्म्य (identify) नहीं रहता, न केवल वे पुण्य – पाप से मुक्त हो जाते हैं, अपितु अपने पूरे प्रारब्ध एवं संचित (संगृहित लेन-देन का हिसाब) से भी मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार वे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं ।
३. कर्मयोग की परिभाषा
वह साधनामार्ग जो बताता है कि
- हम कर्म और कृत्य क्यों करते हैं ?
- हमारे कर्म अथवा कार्य हमें बंधन में क्यों बांध देते हैं ?
- फल में फंसे बिना कर्म कैसे करें ?
- कौन से कर्म माया से अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करते हैं ?फल में फंसे बिना कर्म कैसे करें ?
- जीवन-मुक्त होने के उपरांत भी कर्म करते रहने का क्या महत्त्व है ?
४. कर्मयोग की कुछ अन्य परिभाषाएं
- कर्म इस प्रकार करना कि उसका फल आध्यात्मिक उन्नति, मुक्ति अथवा ईश्वर-प्राप्ति हो ।
- अपने सभी कर्म, यहां तक कि सांसारिक कर्म भी इस प्रकार करना कि मन में कोई नया संस्कार उत्पन्न न हो, जिससे हम इन संस्कारों के बंधन से मुक्त हो जाएं ।
- बिना किसी आसक्ति के धर्म मार्ग से कर्म फल की अपेक्षा रखे बिना कर्म करना ।
- सभी कर्म इस भाव से करना कि मैं नहीं; ईश्वर अथवा ब्रह्मांड को चलानेवाली पराशक्ति यह सर्व कर रही है, अर्थात बिना कर्तापन लिए कर्म करना । सरल शब्दों में कर्तापन का अर्थ है ईश्वर नहीं मैं कर्म कर रहा हूं ।
(किसी के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि कर्तापन छोड देने से लापरवाही अथवा प्रयासों में न्यूनता हो सकती है; परंतु हमें यहां यह समझना होगा कि कर्मयोग के अनुसार हमें प्रयास ऐसे करना है जैसे सब कुछ हमारे हाथ में है; परंतु फल के संदर्भ में यही सोचो कि उस पर हमारा वश नहीं है ।)
५. अन्य योगमार्गों के साधकों को लाभ
अन्य साधना मार्गों जैसे ध्यानयोग अथवा भक्तियोग से साधना करनेवाले साधक यदि अपनी नियमित साधना के साथ कर्मयोग का आचरण करें, तो उन्हें भी अपनी साधना में इसका लाभ होगा ।