१. परिचय
सामान्य रूप से साधना के दो प्रकार होते हैं –
१. व्यष्टि साधना : जब हम व्यष्टि साधना की बात करते हैं तब उसका तात्पर्य व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति को गति प्रदान करने के लिए किए जाने वाले प्रयासों से होता है । देवता का नामजप करना, आध्यात्मिक ग्रंथ पढना, व्यष्टि साधना के अंग हैं । यहां पर जो व्यक्ति व्यष्टि साधना करता है उसे ही साधना से लाभ होता है ।
२. समष्टि साधना :समष्टि साधना का अर्थ है संपूर्ण समाज की आध्यात्मिक उन्नति हेतु किए जाने वाले प्रयास । उदा. जब साधक सत्संग के आयोजन के लिए अपना समय देता है तथा उसके लिए प्रयत्न करता है, तब उसे समष्टि साधना कहते हैं ।
२. व्यष्टि साधना तथा समष्टि साधना में अंतर
वर्तमान काल में, हमारी आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से समष्टि साधना का महत्त्व ७०% तथा व्यष्टि साधना का महत्त्व ३०% है । अत: अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिए समाज के अधिक से अधिक व्यक्तियों को साधना करने के लिए प्रेरित करना आवश्यक है । वास्तव में यही सत्सेवा है । इसके लिए साधक को व्यष्टि साधना के आधार पर अपना आध्यात्मिक स्तर बढाना आवश्यक है ।
एक साधक को व्यष्टि तथा समष्टि साधना के मध्य सामंजस्य बनाए रखना आवश्यक है । दीपक के उदाहरण से इस सामंजस्य का महत्त्व और भी स्पष्ट होगा ।
दीपक में जो तेल है वह व्यष्टि साधना का सूचक है तथा उसकी लौ समष्टि साधना की सूचक है । यदि दीपक में तेल की मात्रा अल्प होगी, तो हमें प्रकाश भी अल्प मिलेगा । अत: हमारी व्यष्टि साधना की नींव ठोस होनी चाहिए क्योंकि उसीसे हमें समष्टि साधना हेतु उर्जा प्राप्त होती है । (दीपक के जलने से तेल घटता है, परंतु समष्टि साधना से हमारी व्यष्टि साधना घटती नहीं है, अपितु समष्टि साधना हमारी व्यष्टि साधना को और बढाती है ।)