ब्रह्मांड में छ: स्तर की शक्तियां होती हैं । जैसे-जैसे शक्ति सूक्ष्म होती जाती है, वह और अधिक शक्तिशाली होती जाती है । आर्इए, हम प्रत्येक शक्ति के विषय में समझ लेते हैं ।
१. शारीरिक (स्थूल) : यह ब्रह्मांड की सभी शक्तियों में सबसे निचले स्तर की शक्ति है, क्योंकि यह सर्वाधिक स्थूल है । उदा.
अ. रोग को दूर करने के लिए औषधि – जैसे रोग के कीटाणुओं को मारने के लिए औषधि (एंटिबायोटिक) इत्यादि
आ. मारने के लिए स्थूल अस्त्र
इ. आर्थिक शक्ति
र्इ. राजनीतिक शक्ति
साधारण व्यक्ति का नियंत्रण केवल शारीरिक शक्ति पर होता है ।
यह शक्ति मर्यादित होती है और केवल स्थूल स्तर पर कार्य करती है । उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य को देख नहीं पाता, तो स्थूल अस्त्र उस लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता ।
२. स्थूल और मंत्र : जब हम स्थूल (पंचभौतिक) एवं मंत्र (सूक्ष्म) एक साथ प्रयोग करते हैं तब यह अधिक प्रभावकारी होता है । पूर्वकाल में मंत्र उच्चारण कर बाण को धनुष से छोडा जाता था । ऐसा करने से मंत्र के कारण बाण पर शत्रु का नाम अंकित हो जाता, और बाण अपना लक्ष्य ढूंढ लेता था, फिर चाहे वह पाताल में छिपी हुर्इ अनिेष्ट शक्ति ही क्यों न हो । बाण के साथ सूक्ष्म-शक्ति जोडने से ऐसा होता था । आयुर्वेद में मंत्र का उच्चारण करते हुए औषधि बनाने का यही उद्देश्य है । इसी प्रकार, भूत उतारने में मंत्र के साथ काली उडद, नींबू, सुई आदि वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है । तथापि, कभी-कभी स्थूल एवं सूक्ष्म-मंत्र के एकत्रित होने पर भी कार्य संपन्न नहीं होता । ऐसे में अगले चरण में बताए अनुसार सूक्ष्मतर, अर्थात अधिक शक्तिशाली मंत्र का प्रयोग करना पडता है ।
३. केवल मंत्र (सूक्ष्म) : केवल विशिष्ट मंत्र (अधिक शक्तिशाली) के प्रयोग से, शत्रु का नाश किया जा सकता है । इन मंत्रों का उपयोग विभिन्न कार्यों को साध्य करने के लिए भी होता है, जैसे विवाह, धन प्राप्ति इत्यादि ।
४. संपर्क (contact) : इससे भी उच्च स्तर संपर्क का होता है । आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक उन्नत व्यक्ति (७० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के ऊपर), जिस वस्तु को स्पर्श करता है, उस वस्तु में किसी भी अनिष्ट शक्ति (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) को नष्ट करने का सामर्थ्य आ जाता है । फिर भी यहां पर संपर्क केवल स्पर्शतक ही सीमित नहीं होता । निम्नलिखित किसी भी माध्यम से जब व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से किसी उन्नत पुरुष के संपर्क में आता है, तो उसे विविध प्रकार से लाभ मिलता है । जैसे, जब कोई उन्नत पुरुष –
- हमें स्मरण करते हैं ।
- जो भी कार्य हमने किया उसका परीक्षण करते हैं ।
- उन्हें आपकी परिस्थिति अथवा आपकी समस्या के बारे में अवगत कराया जाता है ।
- जब वे आपसे दूरभाष पर संपर्क करते हैं ।
५. संकल्प: ७० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर होने के उपरांत जब संतत्व की प्राप्ति होती है, तब मनोलय होता है और बुद्धि का भी लय होने लगता है और वह व्यक्ति विश्वमन तथा विश्वबुद्धि अर्थात ईश्वर से जुड जाता है । जैसे-जैसे संत साधना करते हुए ८० प्रतिशत अध्यात्मिक स्तर के आगे जाते हैं, तब उनका मन निर्विचार स्थिति में आ जाता है । ऐसे समय में उस उन्नत पुरुष के मन में ‘अमुक कार्य संपन्न हो’ केवल इतना विचार आते ही, वह कार्य संपन्न हो जाता है । उन्हें और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती । यह संकल्प केवल ईश्वर इच्छा से ही होता है । संदर्भ लेख देखें ‘संकल्प क्रिया की प्रकिया’
६. अस्तित्व : इस उच्चतम स्तर पर, आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत पुरुष को (९०% आध्यात्मिक स्तर के आगे) संकल्प करने की भी आवश्यकता नहीं होती । उनके सान्निध्य और सत्संग मात्र से ही कार्य हो जाता है, जैसे किसी शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति अपने आप ही होती है अथवा किसी को होनेवाले अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) के कष्ट दूर होते हैं । इसे हम सूर्य के उदाहरण से समझ सकते हैं, जिसके उगते ही सभी जाग जाते हैं और फूल खिल उठते हैं, इत्यादि । यह केवल सूर्य के अस्तित्व से होता है । सूर्य किसी को उठने के लिए नहीं कहता और न ही फूलों को खिलने के लिए कहता है । ९० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के आगे के उन्नत संत ही इस प्रकार से विशिष्ट कार्य कर सकते हैं ।