साधना का यह अगला चरण है । यहां व्यक्ति ने साधना के महत्त्व को समझ लिया है । नामसंकीर्तन एवं सत्संग के कृपास्वरूप उसे कई आध्यात्मिक अनुभूतियां भी हुई हैं । उसने अपने जीवन पर साधना का सकारात्मक प्रभाव होते हुए देखा है तथा यह भी अनुभव किया है कि वह किसी भी परिस्थिति में हो, वह पहले की तुलना में अधिक सुखी है । अपनी आध्यात्मिक यात्रा केे इस मोड पर व्यक्ति सत्सेवा करने लगता है ।
इस ज्ञान के प्रसार में सहायता करना, यह सत की सेवा का (सत्सेवा का) सर्वोत्तम माध्यम है । यह अनेक प्रकार से की जा सकती है । यथा, हमने जो सीखा एवं अनुभव किया वह दूसरों को बताना, जिससे वे भी अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन का लाभ उठा सकें । अध्यात्मशास्त्र के प्रति लोगों को जागृत करने के लिए, हमारे कुछ साधक निःशुल्क प्रवचन कर अध्यात्म का प्रसार करते हैं । इससे उन्हें पैसा नहीं मिलता, तो क्या लाभ होता है उन्हें ? उन्हें एक ऐसे आंतरिक आनंद का अनुभव होता है, जो कितने भी धन से अथवा व्यावहारिक यश से नहीं मिल सकता । जो लोग प्रवचन नहीं कर सकते, वे समाचार पत्रों में लेख लिख सकते हैं अथवा अपनी संगणकीय कुशलता से जालस्थल (website) सम्बन्धी कार्य में सहायता कर सकते हैं । इस जालस्थल का विकास करना भी सत्सेवा का एक उदाहरण है ।
कुछ लोग आध्यात्मिक ग्रंथों के मुख पृष्ठों की सुंदर कलात्मक रचना कर सत्सेवा करते हैं, तथा कुछ साधक प्रवचन के लिए जाने वाले अन्य साधकों की रेल यात्रा के व्यय का भार उठाते हैं । एक निष्ठावान साधिका में उपरोक्त कोई क्षमता नहीं थी; किन्तु वह पाककला में (भोजन बनाने में) निपुण थीं । इसलिए दूसरे नगरों में प्रवचन के लिए जाने वाले साधकों के लिए भोजन बनाकर देती थीं । कृपया यह लेख पढें – ‘मैं एस.एस.आर.एफ. की सहायता किस प्रकार से कर सकता हूं ? ‘
स्वयं में जो भी कुशलता है, वह भक्तिभाव से तथा मनपूर्वक ईश्वर को अर्पित करें । हमारा मनोभाव विनम्र सेवा करने का हो; मैं इतना करता हूं ऐसा अहंकार न हो ।