१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को पहली बार दृश्यपट (वीडियो) में देखे जाने पर हुई अनुभूति
वर्ष १९९९ में, पहली बार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से मिलने के लिए मेरी बेटी, दामाद और मैं गोवा (भारत) में आने की योजना बना रहे थे । मैं उस समय अमेरिका में निवास कर रही थी । अपनी यात्रा से पूर्व मैं अमेरिका में रहनेवाली एक साधिका श्रीमती शिल्पा कुडतरकर के पास गई । वे भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में साधना कर रही है । जब मैं उनके घर पर थी तब शिल्पा ने मुझे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का एक लघुपट दिखाया । जब मैंने उन्हें लघुपट में देखा, तब मेरा भाव जागृत हो गया और मैं रोने लगी । अगले कुछ घंटों में मुझे भाव के सभी ८ प्रकार अनुभव हुए । उस क्षण मुझे भीतर से समझ में आया कि ईश्वर ने मुझे गुरु (उन्नत आध्यात्मिक मार्गदर्शक) जिनकी मुझे उत्कट इच्छा थी, के निकट लाकर मुझ पर कृपा की है ।
२. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की निरपेक्ष प्रीति
२४ दिसम्बर १९९९ को, ईश्वर की अत्यधिक कृपा से भारत के गोवा स्थित आश्रम में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से मेरी भेंट हुई । यह एक ऐसी अनुभूति है जो एक साधक कभी नहीं भूल सकता । उनके साथ इस पहली भेंट में, उन्होंने मेरे आध्यात्मिक गुणों का सूक्ष्म अवलोकन किया तथा उन्हें प्रतिशत के रूप में व्यक्ति किया गया ।
सूक्ष्म अवलोकन में विभिन्न मापदंड जैसे मुझमें भाव कितना था, मुझे कोई आध्यात्मिक कष्ट तो नहीं था, ईश्वर के प्रति मेरी लगन कितनी थी तथा मुझमें अहं कितना था इत्यादि अंतर्गत थे । मैं उस सूक्ष्म मूल्यांकन को देखकर पूर्णतया चकित थी क्योंकि उसमें दर्शाया गया कि मुझे अभी बहुत लंबा मार्ग तय करना है । यह मेरे लिए एक झटके जैसा था तथा सामान्य होने में मुझे थोडा समय लगा । मुझे लग रहा था कि मुझमें अध्यात्म का विद्यार्थी बनने की कमी थी तथा मैं सोच रही थी कि क्या मैं ऐसे गुरु के योग्य भी हूं ।
किंतु उसी रात, जब मैं भोजन कर रही थी तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी वहां आए । वे बहुत शांति से मेरे पास आकर बैठे । उनके आने का मुझे तब तक भान नहीं हुआ जब तक वे मेरे पास मेज पर बैठ नहीं गए । मैंने उनकी आंखों में जो झलक देखी उसे मैं कभी नहीं भूल पाऊंगी तथा अपने पूरे जीवन में उसे संजोए रखूंगी । उस मुख पर उत्साह, अपार प्रीति एवं करुणा सब भाव एक साथ समाहित थे । उस क्षण, ईश्वर ने मुझे प्रीति क्या होती है इसकी एक झलक दिखाई तथा वह ऐसा अनुभव था जिसे मैंने पहले कभी किसी व्यक्ति में नहीं देखा था । मैं यह नहीं भूल सकती थी कि कुछ ही घंटे पहले मुझे लग रहा था कि मुझमें शिष्य बनने की कमी है, किंतु गुरु अपने शिष्य के विषय में ऐसा नहीं सोचते । वे तो प्रेम एवं अपने शिष्य को उसकी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में अगले चरण में कैसे ले जाया जाए इस हेतु प्रोत्साहन देने के दीपस्तंभ समान होते हैं ।