१. मैं जहां भी रहा, वहां ईश्वर द्वारा मेरा ध्यान रखा जाना
वर्ष २०१४ की गर्मियों के उपरांत से मेरी पत्नी और मैं गोवा स्थित आध्यात्मिक शोध केंद्र एवं आश्रम में पूर्णकालीन साधना कर रहे हैं । मार्च २०१६ में, हमें अपने वीसा के काम से कनाडा एवं अमेरिका जाना था । जाने से पूर्व, हमें कुछ समय के लिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ । मैं उनके उस भाव को कभी नहीं भूल पाऊंगा जो उनके मुख पर उस समय थी । वे अत्यंत स्नेह एवं अपनेपन की दृष्टि से हमें देख रहे थे जैसे हम उनके बच्चे ही हों । वास्तव में उनके मुख का भाव इससे भी अधिक कह रही थी ।
हमें लगा था कि भारत से कुछ ही माह बाहर रहने होंगे । किंतु, जब हम कनाडा में थे तब हमें पता चला कि कुछ अप्रत्याशित परिस्थितियों के कारण हमें और अधिक समय तक रुकना पडेगा । प्रारंभ में मुझे यह तनावपूर्ण लगा क्योंकि मैंने आश्रम में रहने के लिए अपना सांसारिक जीवन त्याग दिया था । मेरे पास बहुत कम धन बचा था । मुझे चिंता हुर्इ कि हम अपना खर्चा कैसे चलाएंगे । किंतु शीघ्र ही मेरी यह चिंता दूर हो गई । हम साधकों के घर रुके तथा उन्होंने उसी प्रकार हमारा ध्यान रखा जैसा कि आश्रम में रखते हैं । मेरे माता-पिता ने भी हमारी सहायता की तथा हमारी आवश्यकताओं का ध्यान रखा । उनकी देखभाल के कारण मैं पूर्णकालीन साधना निरंतर कर सका । पश्चात, मैंने अंशकालिक नौकरी (पार्ट टाइम जॉब) खोजना आरंभ किया; किंतु जैसे ही एक नौकरी मिलने लगी तब तक हमारा जो कार्य था वह पूर्ण हो चुका था तथा हम गोवा स्थित आश्रम में पुनः आ सके ।
उस ८ माह की अवधि को स्मरण करने पर, मुझे यह अनुभव हुआ कि साधक जब एक बार पूर्णकालीन साधना करने के लिए निष्ठापूर्वक प्रतिबद्ध हो जाता है, तब गुरुतत्व उसकी सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखता है । जीवन की इस घटना से हमने सीखा कि अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए ईश्वर को कैसे समर्पित होना है तथा हमारे सामने आनेवाली विभिन्न परिस्थितियों को हमें कैसे स्वीकारना है । इस घटना से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति मेरी श्रद्धा और बढ गर्इ । मुझे यह अनुभव हुआ कि विदेश में हमारे कुशल मंगल के लिए उनका संकल्प उसी क्षण से कार्यरत हो गया था जिस समय मैंने उस मुखाकृति को उनके मुख पर देखा था । यह उनका संकल्प ही था जिसने उस ८ माह की कालावधि में मेरी साधना में वृद्धि होने का अवसर प्रदान किया ।
२. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के अपने आतंरिक भाव को उनके द्वारा स्वीकार किए जाने की अनुभूति होना
जनवरी २०१७ में, मैं भारत के गोवा स्थित आध्यात्मिक शोध केंद्र एवं आश्रम में आध्यात्मिक कार्यशाला में भाग ले रहा था । कार्यशाला में एक दिन सुबह, मैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को तथा उन्होंने हमारी साधना को सुगम बनाने हेतु हम साधकों के लिए जो कुछ किया जिस कारण हम अपने जीवन के समय का सदुपयोग कर सके, उसका स्मरण कर रहा था । मुझे अत्यधिक कृतज्ञता तथा भाव की अनुभूति हो रही थी तथा मैं उनके विचारों में मग्न था ।
उसी संध्या, कार्यशाला में भाग लेनेवाले सभी साधकों को परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से भेंट करने का अवसर प्राप्त हुआ । वहां अनेक साधक उपस्थित थे, वे कक्ष में आए, रुके, मुझ देख मुस्कुराए तथा मेरे बारे में पूछा । तथा उन्होंने भेंट होने के उपरांत कक्ष से बाहर जाते समय भी ऐसा ही किया ।
मैंने वह अनुभव किसी को नहीं बताया था तब भी, मुझे यह अनुभव हुआ कि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने सूक्ष्म ज्ञान से मेरे प्रातःकाल के अनुभव को जान लिया तथा उनके रूकने का अर्थ इसे स्वीकार करना था ।