विषय सूची
१. परिचय
परम पूज्य जयंत आठवलेजी (सर्वोच्च स्तर के एक संत तथा SSRF के प्रेरणास्रोत) के शब्दों में :
वर्तमान समय में, जब हम बीमार पडते हैं, हम ऐसे चिकित्सक के पास जाते हैं जो आधुनिक (एलोपैथिक) औषधि विज्ञान का ज्ञाता हो । वर्तमान समय में एलोपैथी ने स्वयं को पारंपरिक औषधि विज्ञान के रूप में स्थापित किया है और इस कारण अन्य वैकल्पिक चिकित्सा के संदर्भ में हमारे मन में विचार भी नहीं आते । यद्यपि वैकल्पिक चिकित्सा भी हैं, जो अनेक रोगों तथा बीमारियों से बचाती है तथा ठीक करती है । वैसी ही एक पद्धति है आयुर्वेद, जो भारत में सहस्रों वर्षों पहले विकसित हुआ । इस लेख में हम आयुर्वेद के सिद्धांत, यह कैसे विकसित हुआ, एलोपैथी से इसकी तुलना देखेंगे । साथ ही यह भी देखेंगे कि आनेवाले समय के लिए आयुर्वेद का अध्ययन क्यों महत्वपूर्ण है ।
२. परिभाषा
आयुर्वेद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है । आयुः जिसका अर्थ है जीवन तथा वेद अर्थात ज्ञान । इसलिए आयुर्वेद का अर्थ है, स्वस्थ जीवन जीने का ज्ञान । एलोपैथी औषधि केवल रोग का उपचार करती है; किंतु आयुर्वेद समग्र जीवनपद्धति है, जो रोग तथा रोगी दोनों का पूर्ण उपचार करती है ।
३. आयुर्वेदिक उपचार का इतिहास
आयुर्वेदिक उपचार चिकित्सा की एक ऐसी पद्धति है, जिसका विकास भारत में हुआ तथा एक विशेष र्इकार्इ के रूप में यह प्राचीन काल से वर्तमान समय तक अस्तित्व में है । आयुर्वेद का वास्तविक इतिहास प्राचीन पवित्र ग्रंथ वेदों के समय से आरंभ होता है । इस विषय के विद्वानों ने तर्क के साथ बताया है कि आयुर्वेद का सिद्धांत तथा इसका सार संसार के निर्माता, भगवान ब्रह्मा ने स्वयं (प्रकट किया) था । औषधियों का संदर्भ वेदों सहित प्राचीन ग्रथों में भी पाया गया है । अग्निवेश ने जो संहिता लिखी वह, शास्त्रीय थी और आज भी है । चरक द्वारा यह विश्व को उपलब्ध करवाया गया जिसे चरक संहिता के नाम से जाना जाता है । ऐसा माना जाता है कि चरक छठी शताब्दी ईसा पूर्व में थे । उनका कार्य चिकित्सीय जानकारी, चिकित्सीय पहलुओं जैसे रोग निदान, रोग लक्षण विज्ञान, स्वास्थ्य तथा रोग में चिकित्सीय देखभाल तथा उपचार के साथ एक संपूर्ण संग्रह पुस्तिका है । चरक संहिता के समान ही एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है सुश्रुत संहिता । इसका कार्य शल्यचिकित्सा तथा विशिष्ट अंगों जैसे आंख, कान, इत्यादि से संबंधित है ।
दैवी पौधे जो लंबी आयु तथा सुस्वास्थ्य प्रदान करते हैं, अब उनकी पुनः खोज की जा रही है । अनेक प्रचलित वैद्यों (आयुर्वेदिक चिकित्सा के चिकित्सक) के परिवार, जो आयुर्वेद के किसी शाखा में पारंगत हैं, उन्होंने भारत तथा अन्य देशों में पुनः कार्य करना प्रारंभ कर दिया है । आज प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता के पुर्नजागरण की विरासत आयुर्वेद को मिली है, जो आधुनिक विश्व को प्राचीन सभ्यता की खरी भेंट है ।
४. आयुर्वेदिक उपचार के सिद्धांत
आयुर्वेद का लक्ष्य प्रसन्न, स्वस्थ तथा शांतिपूर्ण समाज बनाना है ।
आयुर्वेद के अनुसार हमारा वातावरण पांच मुख्य प्राथमिक तत्वों से बना है – आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी । ऐसे ही मनुष्य भी इन पांच प्राथमिक तत्वों से बना है । जब भी वातावरण में इन तत्वों में असंतुलन होता है, उसका प्रभाव हम पर पडता है । जो भोजन हम ग्रहण करते हैं तथा उसके आसपास का मौसम इन तत्वों के प्रभाव के दो उदाहरण हैं ।
पांचों प्राथमिक तत्व मनुष्य के शरीर में तीन आधारभूत द्रव्यों जिन्हें दोष (वात, पित्त तथा कफ) कहा जाता है, के रूप में प्रकट होते हैं । ये तीनों दोष शरीर के ऊत्तकों के निर्माण, रख-रखाव तथा उनके नष्ट होने का संचालन करते हैं । प्रत्येक मनुष्य तीन दोषों के अद्वितीय संयोजन के साथ जन्म लेता है, जो उसकी मूलभूत संरचना अर्थात प्रकृति निश्चित करते हैं ।
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दोष गतिविधि के सिद्धांत का संचालन करता है । इसलिए इसे एक बल के रूप में नाडी के धडकन, संचारन, श्वसन तथा निष्कासन इत्यादि के सिद्धांतो का निर्धारण करते देखा जाता है ।
- दोष रूपांतरण अथवा चयापचयी(मेटाबॉलिज्म) प्रक्रिया का उत्तरदायी होता है । शरीर अवशोषित कर सके इसके लिए भोजन का रूपांतरण पोषक तत्व में करना पित्त के कार्य का उदाहरण है । पित्त अंगों तथा ऊत्तक तंत्रों की चयापचयी क्रिया तथा कोशिकीय चयापचयी का भी उत्तरदायी होता है ।
- कफ दोष वृद्धि के लिए उत्तरदायी होता है । यह सुरक्षा भी प्रदान करता है, उदाहरण के लिए सेरेब्रल स्पाईनल फ्ल्यूड (मस्तिष्क मेरु द्रव) के रूप में, जो मस्तिष्क तथा मेरुदंड की सुरक्षा करता है । पेट की श्लेषमा झिल्ली (म्युकोसल लाईनिंग) कफ दोष के कार्य का एक अन्य उदाहरण है । यह ऊत्तकों को सुरक्षित रखती है ।
आयुर्वेदीय उपचार के नियम विशेषतः व्यक्ति के स्वास्थ्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए है । जब कोई भी दोष एकत्रित अथवा असंतुलित हो जाता है, तब आयुर्वेद एक विशेष जीवनशैली तथा पौष्टिकता संबंधी मार्गदर्शक सुझाव देता है, जिससे व्यक्ति में बढा हुआ दोष घट सके । साथ ही, असंतुलन तथा रोग को ठीक करने के लिए जडी-बूटीयुक्त औषधियां लेने का सुझाव दिया जाता है ।
५. एलोपैथी से तुलना
आयुर्वेद | एलोपैथी | |
---|---|---|
१. निर्माण | ईश्वर द्वारा निर्मित | मानव- निर्मित |
२. इतिहास | अनंत काल से अस्तित्व में | कुछ सौ वर्षों पहले |
३. उद्देश्य | अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखना, रोगों से बचाए रखना तथा रोगों को ठीक करना |
केवल रोग अथवा रोगों के लक्षणों को ठीक करना |
४. सिद्धांत | अनंत काल से एक समान | परिवर्तन होता रहता है |
५. कारणों की सीमा | वर्तमान तथा पिछले जन्म के कारणों का विचार करना | वर्तमान जन्म के कुछेक कारणों का विचार करना |
६. काल, समय, ऋतु, संरचना को ध्यान में रखकर उपचार बताना | हां | नहीं |
७. औषधि का प्रकार | प्राकृतिक । सहजता से मिलनेवाले पौधों तथा जडी-बुटियों से निर्मित । इसलिए, सस्ता तथा दुष्प्रभाव रहित | कृत्रिम पदार्थों से निर्मित । इसलिए अधिक खर्चीले तथा कुछ औषधियां तीव्र दुष्प्रभाव कर सकती हैं । |
८. औषधि बनाने की विधि | नामजप करते हुए औषधि बनाना | यांत्रिक |
९. उपचार | रोग की जड तक पंहुचता है | सतही स्तर पर |
१०. रोगी द्वारा किए जानेवाले आध्यात्मिक उपचार | रोग की जड तक पंहुचता है | अनुपलब्ध |
११. विस्तार | व्यक्ति के मन, बुद्धि तथा शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर | शरीर एवं कुछ सीमा तक मन |
६. आनेवाले समय में आयुर्वेदिक उपचार की आवश्यकता
विश्व अभी आपात स्थिति में है । अनेक संतों ने अगले कुछ वर्षों में तीसरे विश्वयुद्ध तथा भयंकर प्राकृतिक आपदाओं के आने के संदर्भ में भविष्यवाणी की है । इस युद्ध के कारण, अनेक आधारभूत वस्तुओं का भी अभाव हो जाएगा । कारखाने बंद हो जाएंगे तथा औषधियां अनुपलब्ध होंगी । उस समय में, रोगों से रक्षण तथा ठीक होने के लिए लोगों को वैकल्पिक उपचार पद्धतियों जैसे आयुर्वेद पर आश्रित रहना होगा । इस दृष्टिकोण से, अभी से ही आयुर्वेद के विषय में सीखना आवश्यक है । इस पद्धति का एक लाभ यह भी है कि इसकी औषधि को घर में ही बिना किसी जटिल यंत्रों के, सरलता से उपलब्ध घरेलू पदार्थों जैसे जडी-बूटी तथा पौधों से सरलतापूर्वक बनाया जा सकता है । यदि सामान्य व्यक्ति प्राकृतिक पौधों तथा जडी-बूटियों का प्रयोग करना जानता हो तो अभाव के काल में उसे अधिकाधिक सहायता होगी ।