सौरभ जोशी – एक वरदान

SSRF द्वारा प्रकाशित प्रकरण अध्ययनों का मूल उद्देश्य है, उन शारीरिक अथवा मानसिक समस्याओं के विषय में पाठकों का दिशादर्शन करना, जिनका मूल कारण आध्यात्मिक हो सकता है । यह ध्यान में आया है कि, यदि समस्या का मूल कारण आध्यात्मिक है तो सामान्यतः आध्यात्मिक उपचारों का समावेश करने से सर्वोत्तम परिणाम मिलते हैं । SSRF शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं के लिए इन आध्यात्मिक उपचारों के साथ ही अन्य परंपरागत उपचारों को चालू रखने का परामर्श देता है । पाठकों के लिए सुझाव है कि वे स्वविवेक से किसी भी आध्यात्मिक उपचार पद्धति का पालन करें ।

१. सौरभ के प्रारंभिक वर्ष

सौरभ का जन्म ११ अप्रैल १९९६ पर समय से दो महीने पहले हुआ था । २१ दिनों तक उसे ऊष्मानियंत्रक (इन्क्युबेटर) में रखा गया तथा उसके जीवित रहने की संभावना न होने के कारण, प्रारंभ में चिकित्सकों ने उसके माता-पिता को जन्म की घोषणा न करने का परामर्श दिया । सौरभ जीवित रहा तथापि वह गंभीर रूप से विकलांग था तथा अपने पूरे बचपन निरंतर रोगग्रस्त रहा ।

लगभग उसी समय, सौरभ के माता-पिता ने एस.एस.आर.एफ. के मार्गदर्शन में साधना आरंभ की थी ।

सौरभ जन्म से दृष्टिहीन था और उसे रक्तसंचार संबंधी समस्याएं थी जो उसके मस्तिष्क को होनेवाले रक्तप्रवाह को प्रतिबंधित करती थी । फलस्वरूप, चिकित्सक यह निर्धारित करने में असमर्थ थे कि वह चलना, बोलना कब आरंभ करेगा अथवा मानसिक रूप से विकसित भी हो पाएगा अथवा नहीं । उसे आंतों की (intestinal) समस्या थी और इसके उपचार हेतु शल्यचिकित्सा (सर्जरी) करवाने के उपरांत, उसे मिरगी के दौरे पडने लगे । लगभग ४-५ महीनों के उपरांत उसके मिरगी के दौरे बंद हो गए परंतु इसके उपरांत मूर्च्छित होने की समस्या आरंभ हो गर्इ । परिणामस्वरूप, सौरभ लंबी अवधि के लिए मूर्च्छित रहता था । सौरभ के प्रारंभिक वर्ष, चिकित्सकों की जांच और विभिन्न चिकित्सकीय परीक्षण हेतु अस्पताल में व्यतीत हुए । किसी भी माता-पिता के लिए, अपने बच्चे को हो रही समस्याओं से इस प्रकार पीडित रहना, एक बहुत बुरे स्वप्न के समान है । श्रीमती जोशी ने हमें बताया, उस समय वह सोचती थी कि, ‘संसार की अत्यंत बुरी माता को भी इतनी सारी समस्याओं से ग्रस्त संतान ना मिले ।’

२. क्या इच्छामृत्यु समाधान था ?

भविष्य के लिए बिना किसी आशा के अनेक वर्षों तक, अपने बच्चे की इस प्रकार देखभाल करने का उन पर भी प्रभाव हुआ । सौरभ के माता-पिता व्याकुल थे और अपने बेटे के बारे में क्या करना है, ये सोच सोचकर थक गए थे । क्या उसे जीवित रहने देना उचित था ? उसकी विकलांगता इतनी गंभीर थी कि कुछ शुभचिंतकों ने इच्छामृत्यु का सुझाव तक दे दिया ।

गुरुपूर्णिमा : इस दिन साधक र्इश्वर के मार्गदर्शन करनेवाले गुरुतत्त्व के प्रति श्रद्धा अर्पित कर उत्सव मनाते हैं ।

एक बार लगभग १९९८ की गुरुपूर्णिमा के समय (एक वार्षिक उत्सव जब गुरुतत्व अत्यधिक सर्वाधिक सक्रिय होता है), सौरभ पुनः बेहोश हो गए । उसके माता-पिता उन्हें अस्पताल ले गए; किंतु चिकित्सकों ने कहा कि कुछ भी नहीं किया जा सकता है तथा उन्हें देखने अथवा जांचने के लिए कोई तैयारी नहीं दिखाई । उनकी मां ने बहुत तडप से प्रार्थना की और उनकी प्रार्थना पूरी हुई । चिकित्सकों ने अपना मन बदला और सौरभ को अस्पताल में भर्ती कर लिया । सौरभ बेहोश थे और उनके ठीक होने के कोई भी लक्षण नहीं दिख रहे थे, तब अगले दो सप्ताह श्रीमती जोशी अनेक रातें बिना सोए उनकी देखभाल करती रहीं । इस कारण वे गुरुपूर्णिमा की तैयारी में अन्य साधकों के साथ सहभागी नहीं हो पाईं ।

इन सब का प्रभाव सौरभ की माता पर पडा और निराशा की स्थिति में, उनके मन में सौरभ को मिर्गी के लिए आवश्यकता से अधिक मात्रा में दवाई देने का प्रबल विचार आया । इस विचार के उपरांत तत्काल उन्हें परम पूज्य डॉ. आठवलेजी का दृष्टांत हुआ और उन्होंने उनसे कहा, “ तुम्हें इस प्रकार का विचार भी कैसे आ सकता है ? यह उच्च आध्यात्मिक स्तर का जन्मा विशेष बालक है और इसप्रकार के सूक्ष्म शरीर तो केवल अपने प्रारब्ध को पूरा करने के लिए जन्म लेते हैं ।” दृष्टांत समाप्त होने के पश्चात चमत्कारिक घटना घटी । बिगडने के स्थान पर, सौरभ अपनी मूर्च्छित अवस्था से बाहर आए और बडी प्रसन्नता से भोजन किया । सौरभ के उपचार हेतु उत्तरदायी तथा उसकी मूर्च्छित अवस्था के मूल कारण से अनभिज्ञ चिकित्सक भी उसके आकस्मिक स्वास्थ्य-लाभ से और भी विस्मय में पड गए थे ।

३. सौरभ की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का परिचय

तत्पश्चात शीघ्र ही सौरभ के माता-पिता ने परम पूज्य डॉ. आठवलेजी से भेंट की । उन्होंने कहा की ईश्वर उनकी देखभाल कर रहे थे और इसीलिए उन्होंने अधिक मात्रा में औषधी देने के मूर्खतापूर्ण कृत्य को रोका था ।

इस घटना के पहले भी, सौरभ के लिए एक और संत से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली । वे सौरभ को पू. गगनगिरी महाराज के पास ले गए थे । उस समय वे मौन थे और उनकी आंखे भी बंद थीं । जब वे सौरभ को उनके चरणों में रखने के लिए निकट पहुंचे, उन्होंने आंखें खोलीं और उन्हें ऐसा न करने का संकेत दिया । उन्होंने अपना हाथ सौरभ के सिर पर रखा और कहा, “ ओम चैतन्य ।” तब उन्होंने जोशी दंपति की ओर देखा और उन्हें बताया कि वे अपने की बेटे की चिंता ना करे । तत्पश्चात वे अपनी पूर्व ध्यानमग्न अवस्था तथा मौन धारणा में चले गए ।

इस नवीन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जोशी दंपति के जीवन में परिवर्तन आया । सौरभ के बचपन से दिखनेवाले अच्छे गुणों की ओर उन्होंने ध्यान देना आरंभ किया । गंभीर रूप से विकलांग होते हुए भी सौरभ सदैव मुस्कुराते रहते और रोगग्रस्त होने पर भी वे मूलत: एक प्रसन्न बालक थे । उसका मुख हमेशा प्रकाशमान रहता था और अन्य साधकों को वे चैतन्य से भरे अनुभव होते । उनके सान्निध्य में अनेक लोग अपने दुख भूल जाते थे । उनके आसपास एक अबोधता का प्रवाह है और उनका आचरण एक शांत चिंतक के समान है । संपूर्ण बचपन वे कदाचित ही कभी रोए अथवा किसी वस्तु के लिए हठ किया । श्रीमती जोशी बताती हैं कि, जो वस्तु उन्हें भाती, वे उन्हें खिलातीं थी और उसकी संतुष्टी से पहले ही यदि वह समाप्त हो जाती, तब भी वे और खाने के लिए कभी नहीं रोते । किसी बालक के लिए जो इतनी सारी विकलांगताओं से ग्रस्त हो, सौरभ का धैर्य शिखर है । ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे सदैव वर्तमान में रहते हैं ।

उनके जीवन के ऊपर उल्लेखित शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलू, सौरभ की आध्यात्मिक प्रकृति को ही प्रतिबिंबित करते हैं । सात्त्विक वातावरण में वे अत्यधिक प्रसन्न रहते हैं और वे सात्त्विक वातावरण जैसे मंदिर में, संतों की संगत में अथवा परम पूज्य भक्तराज महाराज द्वारा गाए हुए भजन में, होनेवाले आध्यात्मिक दृष्टि से पवित्र स्पंदनों को ग्रहण कर सकते हैं ।

४. स्वास्थ्य में निरंतर बाधाएं

समय के साथ-साथ, शारीरिक विकलांगता सौरभ को निरंतर घेरने लगीं । प्रत्येक समय जब भी वे बीमार होते, उन्हें स्वस्थ होने में न्यूनतम एक माह लगता । निरंतर लेटे रहने से और अपने पैरों को हिला न पाने की असमर्थता के कारण उनकी पीठ और कमर (groin)में पीडादायक घाव होते । जांघ का एक पुराना अस्थिभंग उन्हें सीधी स्थिति में सोने नहीं देता । सन २००५ से वे एक ही करवट में सो रहे हैं, इस कारण उनकी रीढ की हड्डी और कमर मुड गए हैं । उनके जांघ की हड्डी (फीमर) के पेल्विक रिजन में सरक जाने के कारण उनके दोनों पैरों की लंबाई में अंतर है । उनकी गर्दन लंबी है तथा वह उसे नियंत्रित करने में असमर्थ है और उनके अंग दुर्बलता और संक्रमण के लिए उन्मुख हो रहे हैं ।

५. सौरभ के विषय में संतों से अधिक मार्गदर्शन

सौरभ के कारण उनके माता-पिता को अनेक अनुभूतियां हुर्इ हैं । उनके ८ वें जन्मदिन पर, वे उन्हें तीन संतों के आर्शीवाद हेतु ले गए । दिनभर में उन्होंने परम पूज्य योगीराज डॉ. राज अहमद शाह पटेलबाबा, परम पूज्य तुलसीदास महाराज तथा परम पूज्य परुळेकर महाराज इनसे अलग-अलग भेंट की । यद्यपि तीनों संत सौरभ से अलग-अलग मिले तथा अन्य संत भी सौरभ से मिले हैं, यह तीनों संतों कों पता नहीं था, वे तीनों सौरभ को देखकर अति प्रसन्न हुए । उन तीनों ने मराठी में समान वाक्य बोले, साधू संत येती घरा, तोची दिवाळी दसरा ।” इसका अर्थ है, “जिस दिन संत घर आते हैं वही दिन त्यौहार का दिन होता है ।” वे तीनों नही चाहते थे कि सौरभ को उनके पैरों पर रखा जाए, उन्होंने अपने हाथों से सौरभ को आशीर्वाद दिए । उन्होंने उनके माता-पिता से उनकी चिंता न करने के लिए कहा । इससे जोशी दाम्पत्य ने प्रथम अनुभव किया कि यद्यपि संत भिन्न रूप में दिखते हैं और विभिन्न स्थानों से आएं, परंतु वे सब भगवान के एक ही विचार से प्रेरित हुए हैं ।

सौरभ जोशी – एक वरदान

 

अगले दिन पूज्य रघुवीर महाराज उनके घर आए और पिछले दिन की कहानी सुनने के पश्चात उन्होंने भी कहा कि सौरभ को देखने पर उन्हें भी उसी प्रकार के आनंद की अनुभूति कर रहे है ।

पूज्य पटेलबाबा ने कहा, “यह बालक कैवल्यावस्था में है । यह उस आध्यात्मिक अवस्था में है जिस तक पहुंचने में ७५ वर्ष लगते है, पर उसने यह अत्यंत अल्प समय में प्राप्त की है । उसमें किसी भी प्रकार का स्वभावदोष, कोई शारीरिक अथवा मानसिक चेतना, आसक्ति अथवा अहं नहीं है । वह किसी भी प्रकार का आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान नहीं करता परंतु वह खरा विद्वान है । उसका आध्यात्मिक बोध उसे निवृत्ति की ओर ले जाएगी । आप वास्तव में एक संत की सेवा कर रहे हैं । उसे कभी डांटना नहीं और एक सेवा के रूप में उसकी देखभाल करें ।”

६. सौरभ पर आध्यात्मिक शोध

SSRF द्वारा किए गए आध्यात्मिक शोध के माध्यम से, सौरभ के आध्यात्मिक जीवन की अधिक जानकारी सामने आर्इ है । कभी-कभी उच्च आध्यात्मिक स्तर के सूक्ष्म-शरीर, वृक्ष, विकलांगता के साथ जन्म अथवा विक्षिप्त के समान व्यवहार करनेवाले, आदि के रूप में जन्म लेते हैं । जिससे उन्हें कोई विक्षुब्ध (तंग) न करे और वे निरंतर साधना करते रहें । एक समय, परम पूज्य आठवलेजी ने कहा था कि सौरभ ने पूर्व जन्म में ध्यान मार्ग की साधना की है । परिणामस्वरूप, इस जन्म में वह ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के साथ जन्मा है । पूर्व जन्म की किसी चूक के कारण सौरभ पुनर्जन्म लेने के लिए विवश था । जन्म के साथ ही वह उच्च आध्यात्मिक स्तर का होने के कारण उसके साधना का आधार दृढ है । जिस क्षण से उसका जन्म हुआ है, उसके अंतर में विद्यमान आत्मा अवचेतन मन के स्तर पर ईश्वर का नामजप कर रही है । स्वयं की अंतर्गत साधना के कारण सौरभ ने १२ वर्ष की आयु में ६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है ।

संदर्भ हेतु अभ्यास क्रमणिका (ट्यूटोरियल) देखें – नामजप कैसे कार्य करता है ?

७. कुछ और आध्यात्मिक अनुभव

एक दिन काम से घर लौटने के उपरांत श्री. जोशी सौरभ के साथ खेल रहे थे । उन्हें अत्यंत सुंदर सुगंध आने लगी और उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा कि क्या उन्होंने अगरबत्ती जलार्इ है अथवा इत्र का छिडकाव किया है । जब पत्नी ने उत्तर में ना कहा तब श्री. जोशी की दृष्टि सौरभ की ओर गर्इ । वास्तव में सुगंध बालक के हृदय क्षेत्र से उत्सर्जित हो रही थी । श्री. जोशी बताते हैं, “मैने अत्यधिक चैतन्य तथा आनंद का अनुभव किया और लगा कि मैं केवल शांत रहकर उस सुगंध को आत्मसात करूं ।”

घर के तनाव के क्षणों में भी उनका शांत प्रभाव पडता है । जब भी तनावपूर्ण स्पंदन होते हैं, वह हंसने, बातें करने और विभिन्न प्रकार की मुद्राएं करने लगते हैं । इससे घर की तनाव की स्थिति स्वयं ही सुधर जाती है ।

८. संतपद

२ सितंबर २०१३ को सौरभ संत घोषित हुए । सौरभ को देह भान भी नहीं है और अपनी आवश्यकताओं के लिए वे संपूर्णतः दूसरों पर निर्भर हैं । वे करवट भी नहीं ले सकते । जन्म से एक ही स्थिति में सोने के कारण वे असहनीय वेदना से ग्रस्त हैं और उसे व्यक्त नहीं कर सकते । तथापि वे सदैव आनंद की अवस्था में होते हैं ।