1. अध्यात्म के अध्ययन का महत्त्व
हमें साधना क्यों करनी चाहिए, यह समझने के लिए अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन करना आवश्यक है । जब हमारी बुद्धि साधना का महत्त्व समझ लेती है, तब हम नियमित साधना करने के समर्पित प्रयास कर सकते हैं । अध्यात्म के सिद्धांतों को समझ लेने से अपने जीवनसंबंधी तथा साधनासंबंधी अधिक अच्छे निर्णय लेने की क्षमता हममें विकसित होती है ।
2. हमें किसका अध्ययन करना चाहिए ?
- जिस पुस्तक का हम अध्ययन करते हैं, आदर्श रूप से वह हमें आगे की साधना की स्पष्ट दिशा देनेवाली होनी चाहिए । पुस्तक में दिया मार्गदर्शन अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए ।
- आध्यात्मिक प्रगति के लिए जब हम आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, तब हमें संत अथवा गुरु द्वारा रचित साहित्य को प्राथमिकता देनी चाहिए । इसका कारण यह है कि उनमें चैतन्य होता है । (कृपया SSRF द्वारा परिभाषित गुरु अथवा संत का संदर्भ लें ।) उच्च आध्यात्मिक स्तर के संतों द्वारा रचित साहित्य में १०० प्रतिशत चैतन्य होता है । जबकि कनिष्ठ आध्यात्मिक स्तर के लेखकों के आध्यात्मिक लेखों में ०-२ प्रतिशत ही चैतन्य होता है । इस प्रकार कनिष्ठ आध्यात्मिक स्तर के लेखकों द्वारा रचित आध्यात्मिक पुस्तक के अध्ययन से हमें अधिक से अधिक बौद्धिक स्तर पर कुछ जानकारी मिल सकती है; परंतु जब हम संतों द्वारा रचित आध्यात्मिक ग्रंथ पढते हैं, तब पढते समय भी हमें उनसे चैतन्य मिलता है, और साधना करने का उद्देश्य भी चैतन्य की प्राप्ति करना होता है ।
- धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें अपनी समझ को मात्र एक संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं रखना चाहिए । हमें अध्यात्म को अध्यात्मशास्त्र से जोडने का प्रयास करना चाहिए ।
- धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते समय हमें ध्यान में रखना चाहिए कि इस लेखन का भावार्थ भी होता है । उसका भावार्थ समझ कर, उसे अपने जीवन में उतारना आवश्यक है । अन्यथा अनेक धार्मिक ग्रंथों को पढकर भी आध्यात्मिक प्रगति के संदर्भ में अल्प लाभ होता है । इसका कारण यह है कि धार्मिक ग्रंथों के भावार्थ को समझने के लिए आध्यात्मिक स्तर उच्च होना आवश्यक है । हो सकता है तक हमारा आध्यात्मिक स्तर इतना अधिक न हो कि हम ग्रंथ में दिए ज्ञान का भावार्थ समझकर उसे आचरण में उतार पाएं ।
3. हमें किस प्रकार अध्ययन करना चाहिए ?
- हमें अपना अध्ययन आध्यात्मिक ग्रंथों की भूमिका पढकर प्रारंभ करना चाहिए । इससे सारांश में लेखक अथवा संकलनकर्ता के ग्रंथ प्रस्तुत करने के उद्देश्य को समझने में सुविधा होगी और लेखक अथवा संकलनकर्ता द्वारा बताए गए आध्यात्मिक सिद्धांतों के संदर्भ को समझने में सहायता होगी ।
- प्रत्येक चरण में हमें स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए कि हमें ग्रंथ की प्रत्येक पंक्ति का अर्थ समझ में आया है या नहीं । यदि नहीं, तो हमें अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा हम जिस सत्संग में जाते हैं, उसके संचालक से उस सूत्र को समझ लेना चाहिए ।
- एक बार ग्रंथ के किसी अनुभाग का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर, हमें अपने शब्दों में उसे किसी अन्य को बताना चाहिए । किसी सिद्धांत को अन्य को बताना तथा उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करना, समझने की उचित पद्धति है कि हमने उस सिद्धांत को कितने अच्छे ढंग से समझा है ।
- हमें यह जांचना चाहिए कि हम जो अध्ययन कर रहे हैं, उसे हमने अनुभव किया है अथवा नहीं और यदि नहीं, तो क्यों नहीं ? क्योंकि पवित्र ग्रंथ पढते समय यदि हमें सत्य की अनुभूति नहीं होती है, तो इसका अर्थ है कि हमें और अधिक साधना करनी है ।
- जो भी हम समझ पाए हैं, उसे क्रियान्वित करने हेतु हमें विशिष्ट योजना बनानी चाहिए और समय-समय पर उस पर पुनः-पुनः ध्यान (रिव्यू) देना चाहिए कि अपेक्षित प्रगति के लक्षणों का अनुभव हमें हो रहा है अथवा नहीं ।
- हमें एक ही ग्रंथ को बार-बार पढना चाहिए । इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक स्तर बढने से ग्रंथ को समझने की क्षमता और उसे अपने आचरण में लाने की क्षमता भी बढती जाती है ।
3.1 हमें कब तक अध्ययन करना चाहिए ?
प्रारंभिक अवस्था के साधकों के लिए : इस अवस्था में, हमें केवल पढना है, इसलिए पढना चाहिए जिससे अध्यात्म तथा साधना में थोडा विश्वास उत्पन्न हो । इसके साथ ही हमें ग्रंथ भी वैसे पढने चाहिए जिसमें शब्दार्थ और भावार्थ में कम से कम अंतर हो ।
साधना आरंभ करने से अनुभूतियां होनी आरंभ हो जाती हैं, जो साधक को साधना पथ पर आगे बढने के लिए प्रोत्साहित करती हैं । उदाहरण के लिए, यदि हमें अगरबत्ती के न जलते हुए भी उसकी सुगंध की अनुभूति होती है, तब हमें कोई आश्चर्य नहीं होता और न ही हम इसपर अत्यधिक विचार करते हैं; क्योंकि हमने पहले ही इस विषय में पढा होता है कि यह एक अनुभूति है ।
माध्यमिक अवस्था के साधकों के लिए : इस अवस्था में, अध्ययन आवश्यक नहीं है क्योंकि अध्यात्म में हमारा विश्वास हो गया है । यद्यपि अभी तक हमें उच्च स्तर की अनुभूति नहीं हुई है । श्री.शंकराचार्यजी ने कहा है, शब्दों का जाल, घना जंगल है, इससे मन भटकता है और शंकाएं उत्पन्न होती हैं । इसका अर्थ यह है कि अत्यधिक अध्ययन से शंकाएं उत्पन्न हो सकती है । प्राय: हम देखते हैं कि लोग सैद्धांतिक वाद-विवाद में तथा आध्यात्मिक शब्दों के जाल में उलझे रहते हैं । उन्होंने कभी भी उच्च आध्यात्मिक स्तर के भाव की अथवा आनंद की अनुभूति नहीं ली है । इस प्रकार की समस्या का सामना करनेवाले लोगों के लिए अध्यात्म के छः सिद्धांतों के अनुसार साधना पर ध्यान केंद्रित करना सर्वोत्तम है ।
4. सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
अध्ययन तथा साधना, यदि हमने इन दोनों को एक साथ नहीं किया तो ढेर सारा अध्ययन कर, ज्ञान प्राप्त करने से अहं बढ सकता है, जिससे आध्यात्मिक प्रगति के लिए संकट उत्पन्न होगा । साधना के अतिरिक्त अन्य कोई पर्याय नहीं है । इसलिए हमारा संपूर्ण अध्ययन, उच्च आध्यात्मिक स्तर की साधना को जीवन में उतारने में लगाना चाहिए ।