साधना करने के लाभ
जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति
अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मुक्ति की परिभाषा है, प्रारब्ध में अर्थपूर्ण न्यूनता (बहुत कम होना) के कारण जन्म लेने की बाध्यता न होना ।
मनुष्य का जन्म दो कारणों से बार-बार होता है । पहला ६५ प्रतिशत महत्त्व रखनेवाला कारण है प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुःख भोगना और दूसरा ३५ प्रतिशत महत्त्व रखनेवाला कारण है आध्यात्मिक उन्नति कर आनंदप्राप्ति करना ।
मान लीजिए औसत संचित खाता (अर्थात लेन-देन के नियम से उत्पन्न किसी के कुल संचित पुण्य अथवा पाप)१०० ईकाई है, तो उनमें से एक जन्म में, ६ ईकाई प्रारब्ध के रूप में भोगनी होती है । इसका तात्पर्य यह निकलता है कि मनुष्य १६-१७ जन्मों में मुक्त हो सकता है; परंतु ऐसा नहीं होता, क्योंकि इस ६ ईकाई प्रारब्ध को भोगते हुए सामान्य व्यक्ति साधना नहीं करता । साथ ही क्रियमाण कर्मों से संचित खाता १० ईकाई से और बढ जाता है । अंततः मृत्यु के समय यह संचित खाता १०४ ईकाई का हो जाता है और एक बार पुनः जीवन और मृत्यु के चक्र में फंस जाता है ।
बहुधा हम सभी अपना जीवन ऐसे जीना चाहते हैं, जिससे हमारे अगले कुछ जन्म बहुत सुखमय हो । परंतु जीवन का उद्देश्य आगामी सुखमय जन्म पाना नहीं, अपितु जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना है । हमारा जन्म हुआ इसका अर्थ ही यह है कि हमने अभी तक वह पाठ ही नहीं सीखा, जो सीखना चाहिए था । जिस प्रकार परीक्षा में असफल होने पर हमें पुनः उसी कक्षा में बैठना पडता है; ठीक उसी प्रकार हम पुनः पुनः जन्म लेते हैं । इस नीरस कभी समाप्त न होनेवाले चक्र से हम तभी मुक्त हो सकते हैं, जब हम आध्यात्मिक उन्नति कर र्इश्वर प्राप्ति के प्रयास करेंगे । यही सर्वोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य है जो कोई भी व्यक्ति पाना चाहेगा ।
इस साधना के माध्यम से, जब व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत (समष्टि) अथवा ७० प्रतिशत (व्यष्टि) तक पहुंच सकता है, तो उसे आगे की उन्नति के लिए पुनः जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती ।