भौतिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु दैवी सहायता की अनुपलब्धता : लगभग सभी प्रकरणों में पितरों तथा वंशजों के लिए ‘सहायता’ का तात्पर्य मात्र सांसारिक सहायता तक सीमित है । जब सहायता सांसारिक आवश्यकताओं को पूरा करने तक ही सीमित होती है, तो पूर्वज अपनी इच्छा पूर्ति के लिए दैवी कृपा प्राप्त नहीं कर सकते । परिणामस्वरूप उन्हें अपनी अत्यल्प आध्यात्मिक शक्ति पर निर्भर होना पडता है । यदि सहायता का उद्देश्य वंशजों को आध्यात्मिक सहयोग देना हो तो पितरों को देवताओं की कृपा एवं सहयोग अधिक सरलता से उपलब्ध होता है ।
स्वयं की शक्ति का प्रयोग अपनी सुरक्षा हेतु आवश्यक : २०-३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के पितरों की आध्यात्मिक शक्ति अल्प होती है, जिसके कारण उनकी अपने वंशजों की सहायता करने की मात्रा एवं गुणवत्ता सीमित होती है । सत्य तो यह है कि निम्न आध्यात्मिक स्तर के पितर अधिकतर आत्म रक्षा की मुद्रा में होते हैं, ऐसे में वे स्वार्थ से परे कुछ सोच ही नहीं पाते । निम्न लोक जैसे भुवर्लोक एवं पाताल लोक के कष्टदायी वातावरण तथा उच्च स्तर के भूत-प्रेत के आक्रमणों के कारण वे अत्यंत पीडा में होते हैं । इसलिए अपने वंशजों की सहायता करने की अपेक्षा उन्हें अपने लिए सहायता की आवश्यकता होती है ।
वे अपने वंशजों को यह सब बताना चाहते हैं और इसलिए वे उनके जीवन में समस्याएं उत्पन्न करते हैं । उनकी सहायता करने की योग्यता की तुलना में उनके द्वारा दिए जाने वाले कष्ट ही अधिक होते हैं ।
उच्च स्तरीय अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव : जब पृथ्वी के लोगों को पीडित करने की बात आती है, तो उच्च स्तरीय अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, राक्षस आदि) कम से कम शक्ति खर्च कर मानवजाति तक पहुंचने के लिए पितरों को माध्यम के रूप में उपयोग करती हैं और इसके लिए वे पितरों को काली शक्ति उपलब्ध कराती हैं ।
२०-३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के अर्थात निम्न स्तर के पितर आत्म-केंद्रित होते हैं जिस कारण निम्न स्तर के लोकों में उनका पूरा ध्यान अपनी पीडा घटाने में ही रहता है । इसी कारण वे अपने वंशजों की सहायता करने के बहुत ही अल्प प्रयास करते हैं ।
वंशजों को पीडा देना उनसे संपर्क साधने की एक प्रक्रिया है : जब हम पृथ्वी पर होते हैं, तो विविध प्रकार की समस्याएं हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं । हमारी समस्त ऊर्जा भिन्न-भिन्न पहलुओं में जैसे नौकरी, रिश्ते-नाते, घर के काम, मनोरंजन इत्यादि में ही खर्च हो जाती है; परंतु मृत्युपरांत हमारा ध्यान आकर्षित करने हेतु कुछ भी शेष नहीं रहता । सूक्ष्म आयाम में हमारे पूर्वज अपने पाप-पुण्य के आधार पर केवल प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता अनुभव करते हैं । निम्न स्तर के पूर्वज अपेक्षाकृत अधिक पाप करते हैं, परिणामस्वरूप अधिक कष्ट उठाते हैं । अन्य किसी प्रकार की व्यस्तता न होने के कारण इस पीडा को दूर करने अथवा किसी सांसारिक कामना को पूरा करने में उनका पूरा ध्यान केंद्रित हो जाता है । वे अपने पृथ्वी-वासी वंशजों से संपर्क करते हैं कि वे उनके लिए कुछ करें । देहधारी न होने के कारण, उन्हें निद्रा की आवश्यकता नहीं होती इसलिए वे आश्चनर्यजनक एकाग्रता के साथ यह कार्य करते हैं । यह एकाग्रता अपने वंशजों को प्रभावित करने की उनकी क्षमता बढाती है ।