उपरोक्त विषय को समझने के लिए, पहले हम निम्नलिखित लेख को समझ लेते हैं :
- पाप और पुण्य क्या है ?
१. परिचय- पाप क्या है ?
प्रतिदिन के कर्म करते समय हमसे कई प्रकार के पाप कर्म होते हैं । उदा. झाडू लगाते समय कीडे-मकौडों की हत्या, दूसरों से कठोर बोलना इत्यादि । पाप के विषय को अच्छे से समझने के लिए हम कुछ प्रकार के पाप और उसके परिणाम किसे भुगतने पडते हैं यह देखेंगे ।
२. पाप के प्रकार
२.१ पाप से कौन प्रभावित होता है, इस आधार पर उसका वर्गीकरण
इस आधार पर कि पाप से कौन प्रभावित होते हैं, ऐसे पाप होते हैं जो अपना और दूसरों का अहित करते हैं, जैसा कि निम्न सारणी में दिखाया है ।
केवल अपना ही अहित करना
कौन प्रभावित होता है, इस आधार पर पाप के प्रकार |
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केवल अपना ही अहित करना |
साधना हेतु नित्य प्रयास न करना |
केवल अपना ही अहित करना |
अपनी कर्मेंद्रियों एवं ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण न रखना, अर्थात विभिन्न |
दूसरे का अहित करना |
अज्ञानवश अहित होना, उदा. पथपर चलते समय अथवा पानी |
दूसरे का अहित करना |
स्वेच्छा से दूसरों का अनिष्ट करना |
२.२ काया, वाचा एवं मन के अनुसार पाप के प्रकार
व्यक्ति पहले मन में पापकर्म का निश्चय करता है, तत्पश्चात उस पाप का उच्चारण करता है अथवा देह से उसका आचरण करता है । इस प्रकार से मनुष्य तीन प्रकार से पापकर्म करता है, जैसा कि निम्न सारणी में दिखाया है ।
काया, वाचा एवं मन के अनुसार पाप के प्रकार |
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कायिक पाप |
शरीर से किया गया पाप, उदा. चोरी करना, किसी की हत्या करना, व्यभिचार । |
वाचिक पाप |
बोलने के कारण किया गया पाप, उदा. अपशब्द बोलना, निंदा करना, असत्य बोलना, असंबद्ध बोलना । |
मानसिक पाप |
मन से किए पाप, उदा. दूसरों के धन की अभिलाषा, दूसरों का अनिष्ट सोचना (यहां पर हमारे विचारों से निर्माण होने वाले नकारात्मक स्पंदनों के कारण जो दूसरों को कष्ट होता है, उसके कारण पाप लगता है । यह कुदृष्टि (नजर) लगने की प्रक्रिया समान है ।) |
कुदृष्टि से संबंधित अधिक जानकारी के लिए कृपया कुदृष्टि (नजर) यह लेख पढें ।
३. क्या हम केवल विचारों से पाप कर सकते हैं ?
कर्मयोग के अनुसार, पुण्यमय कर्म का केवल विचार मन में आने से भी पुण्य लगता है, परंतु केवल पापमय विचार से पाप नहीं लगता । उदा. किसी बैंक को लूटने का केवल विचार करने से पाप नहीं लगता, जबकि प्रत्यक्ष में बैंक को लूटने से पाप लगेगा । यहां पर मानसिक पाप के पहले उदाहरण समान, केवल विचार करने से पाप नहीं लगता क्योंकि उससे किसी को हानि नहीं पहुंचती ।
जबकि साधक के मन में आए अनिष्ट विचारों से उसे पाप लगता है । इसमें, क्योंकि साधक का ध्येय स्वयं में ईश्वरीय गुणों का विकास करना होता है तथा ईश्वर उसके लिए साधक को आवश्यक ज्ञान और शक्ति प्रदान करते हैं, अनिष्ट विचारों से ईश्वर की शक्ति का अपव्यय होता है । इसके लिए एक अपवाद है, अनिष्ट शक्तियों के तीव्र कष्ट से पीडित साधकों का अपने विचारों पर नियंत्रण नहीं रहता ।
४. किसे पाप का परिणाम भोगना पडता है ?
४.१ पाप में भागीदार
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तथा कायिक-वाचिक-मानसिक कैसे भी हो, पाप का समर्थन अथवा उसे बढावा देने वाले व्यक्ति को उसके अनुरूप पाप का परिणाम भोगना पडता है । वह पाप के भागीदार बन जाते हैं । वर्तमान समय में कानून में भी ऐसी व्यवस्था की गई है । हत्या करने वाले के साथ-साथ, हत्या में सहयोग करने वाला भी दोषी होता है ।
पापी मनुष्य के साथ संभाषण, उसका स्पर्श, सान्निध्य, उसके साथ भोजन, उसके साथ एकासन, शयन तथा उसके साथ यात्रा करने से एक व्यक्ति का पाप दूसरे व्यक्ति में संक्रमित होता है ।
जैसे कि सत्संग परम सत्य की संगति है, कुसंग असत्य की संगति है । कुसंग में रहने से बुरे संस्कार हममें निर्माण होते हैं अथवा बढते हैं तथा उससे हमारी आध्यात्मिक अधोगति होती है । इसलिए जो हमें प्रिय होते हैं उन्हें हम बुरी संगति से दूर रहने के लिए कहते हैं ।
४.२ पापसंक्रमण
पवित्र ग्रंथ मत्स्यपुराण में कहा गया है कि पाप सांसर्गिक अथवा अनुवांशिक रोग के समान फैलता है । कोई पाप तुरंत फलित होता ही है ऐसा नहीं है, पापी पर धीरे-धीरे पाप का परिणाम होता है और उसका समूल नाश करता है । यदि व्यक्ति स्वयं अपने पापों को नहीं भोगता तो उसके पुत्र एवं पौत्रों को भोगना पडता है । इस प्रकार पाप तीन पीढियों तक अपना परिणाम दिखाता है । अत: परिवार के अन्य सदस्य तथा अपनी संतति के प्रति हम उत्तरदायी होते हैं ।
पाप के और भी कई उदाहरण हैं जहां पापों की भागीदारी होती है, उदा. पति-पत्नी, कंपनी संचालक तथा वहां के कर्मचारी इत्यादि ।
४.३ समष्टि पाप
प्रारब्ध पर विजय पाने की तथा अपने साथ ही संपूर्ण सृष्टि को सुखी करने की क्षमता ईश्वर ने केवल मुनष्य को ही दी है । ऐसा होते हुए भी, वह अपनी क्षमता का उपयोग स्वार्थ साधने, निष्पाप जीवों पर अत्याचार करने, अन्यों पर अधिकार जमाने इत्यादि के लिए करने लगता है तब अधर्माचरण के कारण समाज समष्टि प्रारब्ध से दूषित होता है ।
इसका प्रभाव संपूर्ण सृष्टि पर होकर संपूर्ण सृष्टि का संतुलन बिगडता है । परिणामस्वरूप, मनुष्य पर अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप, युद्ध जैसी आपदाएं आती हैं । यद्यपि यह आपदाएं दृश्य स्वरूप में होती हैं, तथापि उनके मूलभूत कारण अदृश्य स्वरूप के होते हैं । जब पृथ्वी पर इस प्रकार के समष्टि प्रारब्ध का प्रकोप होता है, तब दुर्जनों के साथ सज्जनों को भी इसके परिणाम भोगने पडते हैं ।
६. सारांश में – पाप के प्रकार
पाप का फल हमारे साथ अन्यों को भी हानि पहुंचाता है, इसलिए यह आवश्यक है कि हम पाप करने से बचें । दूसरों के स्वभाव और कृति को समझना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि दूसरों के पाप देखकर आंख मूंद लेने से हम भी उनके पाप में भागीदार बनते हैं ।
एक कहावत है कि बुरा समय बहुत कुछ सिखा जाता है । हमें यह दृष्टिकोण रखना चाहिए कि हमारा प्रारब्ध हमारे पापों का ही परिणाम है । प्रारब्ध को भोगना साधना ही है ऐसा दृष्टिकोण रखने से हमारी तीव्र आध्यात्मिक प्रगति हो सकती है ।
साधना से हम प्रारब्ध पर विजय प्राप्त कर सकते हैं अथवा उसे सहन करने की शक्ति हमें मिलती है ।