शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति हेतु प्रतिदिन किए जानेवाले साधना के आठ चरण (अष्टांग मार्ग)
संक्षिप्त सारांश :
अष्टांगयोग मार्ग एक ऐसा साधना मार्ग है जो वर्तमान समय के लिए सबसे उपयुक्त है । शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति अनुभव करने और अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए इसका आचरण करें ।
१. शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति हेतु साधना
यदि आप आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैं और प्रत्येक दिन को आनंद से जीना चाहते हैं , तो यह लेख आपके लिए है ।
सर्वप्रथम हम यह कह सकते हैं कि आध्यात्मिक उन्नति करने में सामान्य से अधिक रुचि होना वास्तव में आज के युग में एक आशीर्वाद ही है । इसका कारण यह है कि आज के युग के अधिकांश लोगों के लिए, जीवन में किसी आध्यात्मिक उद्देश्यों की तुलना में सामान्यतया भौतिक उद्देश्य प्राथमिक होते हैं । विडंबना यह है कि लोग भौतिक संसार में सुख के पीछे भागते हैं, किंतु वास्तव में सत चित आनंद (स्थायी सुख) तो केवल उन लोग को ही अनुभव हो सकता है जो अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को पूर्ण करते हुए आध्यात्मिक उन्नति करते हैं ।
यद्यपि आध्यात्मिक उन्नति करना और वह भी शीघ्र गति से ,कहना तो आसान है; परन्तु कर पाना कठिन है ।
ऐसी कई चुनौतियां हैं, जिनका सामना आध्यात्मिक उन्नति करनेवाले एक साधक को करना पड़ सकता है, इन्हें अपनी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में पार करने हेतु पहले इन्हे समझना आवश्यक होता है । इस लेख में, हम आप के साथ वे सारे सटीक उपाय साझा करेंगे, जिन्हे आचरण में लाने से आपके लिए शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति करना सुनिश्चित हो जाएगा ।
२. साधना के हमारे प्रतिदिन के प्रयासों में संभावित चुनौतियां
ऐसी अनेक चुनोतियां है जिनका सामना एक साधक को करना पड सकता है । ऐसी कुछ प्रमुख चुनौतियां, जो आध्यात्मिक उन्नति करने के इच्छुक एक साधक के जीवन में आती हैं, उनको नीचे सूचीबद्ध किया गया है ।
१. अनुचित मार्गदर्शन : प्रथम तो यह कि हम एक सूचनात्मक युग में जी रहे हैं जहां अध्यात्म पर मार्गदर्शन के स्त्रोतों का भंडार है । इतनी अधिक मात्रा में जानकारी होने से साधक भ्रमित हो जाता है कि क्या करना है और किसका अनुसरण करना है । दुर्भाग्यवश, अधिकतर ऐसे मार्गदर्शन का स्त्रोत वास्तविक संत अथवा आध्यात्मिक मार्गदर्शक नहीं होते । (अर्थात ७० % अथवा उससे अधिक आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति ।) अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर निकले साधक, अच्छे शब्दों और धार्मिक (संत समान) आचरण से भ्रमित हो सकते हैं, जिसका कोई वास्तविक आध्यात्मिक महत्त्व नहीं होता । सारांश यह है कि यदि कोई अध्यात्म के वैश्विक सिद्धांतों के अनुसार साधना नहीं करता है, तो आध्यात्मिक उन्नति किए बिना ही और किसी आध्यात्मिक लाभ को प्राप्त किए बिना ही उनके अनेक वर्ष व्यर्थ हो सकते हैं ।
२. मेरा अगला चरण क्या हो ? : उन्नति होने के लिए, आपको अगले चरण में जाना आवश्यक है । दुर्भाग्य से, कई साधक दशकों तक एक ही स्तर की साधना करते रहते हैं, जिसमें धार्मिक स्थल पर जाना, तीर्थयात्रा पर जाना आदि सम्मिलित हो सकते हैं । एक पुरानी कहावत है – “यदि आप सदैव वही करते हैं, जो आपने सदैव किया है, तो आपको सदैव वही मिलेगा जो आपको सदैव मिला है”। यह अध्यात्म पर भी उसी प्रकार लागू होता है जैसा कि किसी अन्य क्षेत्र के लिए होता है । समान स्तर के अभ्यास समान परिणाम ही देते हैं और कुछ भी प्रगति नहीं हो पाती । कई साधक यह नहीं जानते कि आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए, व्यक्ति को साधना के उच्च और उच्च स्तरों के लिए प्रतिबद्ध होना आवश्यक है । वे महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं पूछते कि-साधना में मेरा अगला चरण क्या होना चाहिए? ’और इसलिए वे कभी भी अगले चरण का आचरण नहीं कर पाते । फलस्वरूप प्रगति नहीं होती ।
३. मनानुसार साधना करने से संभावित हानि : जब हमें कोई कानूनी समस्या होती है, तो हम एक वकील के पास जाते हैं … कोई चिकित्सीय समस्या होने पर डॉक्टर के पास … तो टीवी की समस्या होने पर किसी टीवी मैकेनिक के पास जाते है । किंतु, जब सबसे जटिल और सर्वव्यापी विज्ञान, अर्थात अध्यात्मशास्त्र को समझने के लिए मार्गदर्शन खोजने की बात आती है, तो प्रायः लोगों को लगता है कि उन्हें अपने मार्ग पर चलने के लिए किसी के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है । कृपया ध्यान दें , यह वह शास्त्र है, जिसका यदि उचित ढंग से आचरण किया जाए, तो यह आपको जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त करने की क्षमता रखता है । उन्हें लगता है कि आध्यात्मिक पुस्तकें/ग्रंथ पढने अथवा स्वयं को भानेवाली कुछ कृतियां करने से वे प्रगति कर लेंगे । यह हमारा अनुभव है कि ऐसा कदाचित ही कभी होता है । आध्यात्मिक मार्गदर्शक , जो एक वास्तविक मार्गदर्शक होता है, उसके बिना आध्यात्मिक प्रगति करना अत्यधिक कठिन है ।
४. साधना में गति बढाना अपने हाथ में होना : चलिए, मान लें कि साधक, अपने सौभाग्य से, वास्तव में एक सच्चे आध्यात्मिक मार्गदर्शक से उचित मार्गदर्शन प्राप्त करने में सक्षम हो भी गया हो और साधना में उसका अगला चरण क्या होगा, यह भी उसे समझ आ गया हो। तब भी, साधक की उन्नति उस मार्गदर्शन को वास्तव में आत्मसात करने तथा उस साधना मार्ग पर टिके रहने की उसकी क्षमता पर निर्भर करेगी । अध्यात्म में, यह कहा जाता है कि बहुत से आरंभवीर होते हैं; लेकिन लंबे समय तक इसमें बहुत कम लोग टिके रहते हैं । इसलिए, अंतिम चरण तक पहुंचनेवाले बहुत कम लोग होते हैं । अंततः यह स्मरण में रखा जाना चाहिए कि अध्यात्म जीवन जीने की एक कला है, जिसका आजीवन नियमित आचरण करने की आवश्यकता होती है ।
अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो जीवन में कितनी भी अधिक बाधाएं आ जाएं, किन्तु, यदि कोई साधक आध्यात्मिक उन्नति करने के प्रति गंभीर तथा वास्तविक रूप से इच्छुक है, तो भगवान हमेशा उस साधक की मदद करने के लिए आते हैं और उसे सही मार्ग पर स्थापित करते हैं । यह वाक्य परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी के शब्दों में लिखा गया है:
“जब हम भगवान की ओर एक कदम बढाते हैं, तो वे हमारी ओर दस कदम बढाते हैं ।” – परात्पर गुरु डॉ. आाठवले
३. साधना का अष्टांगयोग मार्ग
उपरोक्त सभी चुनौतियों के उत्तर के रूप में, परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी ने गुरुकृपायोग बताया है । उन्होंने अपने गुरु – संत भक्तराज महाराज (सर्वोच्च स्तर के संत) के आशीर्वाद से ऐसा किया । परात्पर गुरु, सर्वोच्च स्तर के एक संत होते हैं, अर्थात, जिनका आध्यात्मिक स्तर ९० % अथवा उससे अधिक होता है । गुरुकृपायोग साधना मार्ग में ८ अंग हैं, जो इस मार्ग की नींव हैं । यह मार्ग वर्तमान समय में साधकों को शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव करने के लिए एक अद्वितीय अवसर प्रदान करने हेतु सभी साधनामार्गों को समाहित करनेवाला एक सरल मार्ग है ।
गुरुकृपायोग साधना मार्ग के ८ अंग इस प्रकार हैं :
१. स्वभावदोष निर्मूलन हेतु प्रयत्न करना
२. अहम् निर्मूलन हेतु प्रयत्न करना
३. नाम जप
४. सत्संग
५. सत्सेवा
६. भाव
७. त्याग
८. प्रीति
हम इन पहलुओं का आचरण किसी भी क्रम में आरम्भ कर सकते हैं । अंततः , शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति के लिए सभी पहलुओं का आचरण करना आवश्यक है, इस प्रकार एक साधक को पूर्ण आध्यात्मिक उन्नति अनुभव करने का एक साधन मिलता है । ये पहलू साधक को उन सभी चुनौतियों को दूर करने में मदद करते हैं जो आध्यात्मिक उन्नति में बाधा डालती हैं । साधक को पहले कौन सा पहलू अपनाना चाहिए, यह उसके मूल स्वभाव पर निर्भर करता है । यदि किसी में स्वभावदोष अधिक हैं , तो स्वभावदोष निर्मूलन (पीडीआर) प्रक्रिया एक अच्छा प्रारंभिक बिंदु होगी । यदि कोई बहुत भक्तिमय/धार्मिक है, तो नामजप एक अच्छा प्रारंभिक बिंदु होगा । यदि कोई व्यक्ति अधिक क्रियाशील है, तो वह अपने पहले चरण के रूप में सत्सेवा को चुन सकता है ।
४. स्वभाव दोष निर्मूलन प्रक्रिया
साधक के सामने आनेवाली चुनौतिया
स्वभाव दोष (अथवा अवांछनीय लक्षण) में क्रोध, लालच, आलस्य, असुरक्षा, भावुकता आदि जैसे लक्षण सम्मिलित हैं, जो हमारे जीवन में दुख के कारण हैं । ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वभावदोष न केवल हमारी क्षमता को कम करते हैं अपितु साथ में हमारे और दूसरों के जीवन में तनाव और दुख का एक निरंतर स्रोत बनते हैं । प्रत्येक व्यक्ति में स्वभाव दोषों कि तीव्रता अलग-अलग होती है – किसी में कम, किसी में अधिक । साधकों के लिए, ऐसे दोष हमें उस सुख (आनंद की तो बात ही छोडें) का अनुभव करने से वंचित रखते है; जो हमारी साधना से हमें प्राप्त हो सकता है । इसके अतिरिक्त, जब वे स्वभावदोष किसी परिस्थिति की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आते हैं, तब उनके के कारण हम अस्थिर हो जाते हैं ।
सूक्ष्म-जगत की अनिष्ट शक्तियों के लिए अत्यधिक स्वाभाव दोष वाले व्यक्ति में प्रवेश करना आसान होता है । वे ऐसी प्रतिक्रियाओं को और उकसाती हैं, जो उस व्यक्ति में सुप्त हो सकती है, जिसके कारण उस व्यक्ति पर और अन्य लोगों पर भी नकारात्मक प्रभाव पडता है । उदाहरण के लिए, यदि हममें क्रोध का स्वभावदोष है और हम अपने बोलने के तरीके से दूसरों को आहत करते हैं, तो हमें पाप लगता है । आध्यात्मिक स्तर पर, साधना के माध्यम से उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग उस पाप को कम करने में चला जाता है । फलस्वरूप, आध्यात्मिक मार्ग पर बने रहने की साधक की क्षमता कम हो जाती है । व्यक्ति चाहे किसी भी आध्यात्मिक मार्ग से साधना करता हो , यदि उसमें कई स्वभाव दोष हैं, तो आध्यात्मिक प्रगति करना असंभव नहीं; तो कठिन अवश्य हो जाता है ।
स्वभाव दोष निर्मूलन प्रक्रिया किस प्रकार सहायता करती है :
हम स्वयं के बारे में जो बातें नहीं जानते, उन्हें ठीक नहीं कर सकते । स्वभाव दोष निर्मूलन प्रक्रिया इसे ठीक करने में मदद करती है। परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी द्वारा प्रेरित, यह न केवल एक साधक को उपरोक्त चुनौतियों से उबरने में मदद करती है, अपितु आध्यात्मिक प्रगति के लिए एक मजबूत आधार भी बनाती है । यह तीन चरणों में आगे बताए अनुसार करती है।
१. तथ्य संग्रह / अवलोकन : सर्वप्रथम, यह प्रक्रिया स्वयं के दोष समझने के लिए स्पष्ट कार्यप्रणाली बताती है | ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश लोग, दूसरों के प्रति आलोचनात्मक और दोष निकालने वाले होते हैं, परन्तु वे अपने स्वयं के दोषों से अनभिज्ञ होते हैं । स्वभाव दोष निर्मूलन प्रक्रिया का उपयोग करके, हमसे हुई चूकों (गलतियों) और उससे उत्पन्न परिस्थितियों के बारे में तथ्य एकत्र किया जाता है ।अपने बारे में इस तरह के आंकडों को संग्रहितकरने से व्यक्ति को पता चलता है कि वह कहां कम पडता है तथा इसके साथ ही यह उसे अपने गुणों और चारित्रिक क्षमताओं का मूल्यांकन बताता है । संक्षेप में, यह प्रक्रिया हमें अपने वास्तविक स्वभाव का दर्पण दिखाती है और बताती है कि हम वास्तव में कौन हैं ।
२. विश्लेषण : लिखी गई प्रत्येक चूक अथवा दोष से हमें स्वयं के बारे में बेहतर दृष्टिकोण प्राप्त होता है ।इससे हमें यह विश्लेषण करने में मदद मिलती है कि मन में प्रतिक्रिया आने का वास्तविक कारण क्या है जो हमें चूक करने हेतु उकसाता है । हमें अपनी चूकों एवं दोषों के बारे में स्पष्टता प्राप्त होती है । उदाहरण के लिए, हमें समझ आता है कि कौन सी गलतियां हम दोहराते हैं और कौन सी चूकें न केवल हमें; अपितु लोगों के एक बडे समूह को प्रभावित करती हैं । यह विश्लेषण हमें स्वयं के बारे में अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रदान करता है, जिससे हमें स्पष्टरूप से समझ आता है कि हमें चूक करने हेतु कौन अथवा क्या उत्तेजित करता है |
३. स्वसूचनाएं : एक बार उस मूल स्वभाव दोष जिसके कारण चूकें हो रही है, का विश्लेषण कर लेने पर, इसे ठीक करने का तरीका अत्यधिक सरल होता है । यह एक जांची और परखी हुई प्रक्रिया है- जिसे स्वसूचनाओं के उपयोग से किया जाता है | ये स्वसूचनाएं ऐसे सकारात्मक वाक्य होते हैं, जो मन को परिस्थितियों पर उचित प्रतिक्रिया देने का प्रशिक्षण देते हैं । स्वसूचनाओं को दिन में कई बार दोहराया जाना आवश्यक होता है । स्वसूचनाओं की ७ पद्धतियां हैं । केवल सकारात्मक वाक्य देने के विपरीत, उन्हें व्यक्ति एवं चूक से सम्बन्धित प्रसंग के आधार पर बनाया जाता है । इस प्रकार, ऐसा करने से, हम अपने दोषों का निर्मूलन करके एक खुशहाल, अधिक सार्थक और अधिक आनंदपूर्ण जीवन जीने की शुरुआत कर सकते हैं – जैसा कि यह होना चाहिए था ।
स्मरण रखें : स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया हमारे दोषों की तीव्रता को कम करती है । कम दोषों वाला मन व्यक्ति को शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति करने में सहायता करता है, चाहे वह किसी भी साधना मार्ग से साधना करता हो। गुरुकृपायोग साधना मार्ग में, स्वयं के दोषों को दूर करने को अत्यधिक महत्व दिया गया है । अपने स्वभावदोषोंको दूर करने पर, हमारे पास साधना पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए अत्यधिक ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है । यही कारण है कि इस प्रकार की साधना वस्तुतः उन साधकों के लिए एक महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है, जो शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति करना चाहते हैं।
इस प्रक्रिया को विस्तार से समझने के लिए स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया पर लेख देखें।
५. अहं निर्मूलन प्रक्रिया
साधक के सामने आनेवाली चुनौतियां
अहं हमारी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में सबसे बडी बाधा है । ऐसा इसलिए, क्योंकि आध्यात्मिक शब्दों में, हमारा अहं वह है जो हमें अपने भीतर के परमात्मा अथवा ईश्वर का अनुभव करने से अलग करता है । अहं का होना अर्थात अपने जीवन को इस संकुचित सोच के साथ जीना कि हमारा अस्तित्व हमारी पंच इंद्रियों, मन और बुद्धि तक सीमित है । व्यावहारिक रूप में, इसका अर्थ है स्वयं में इस प्रकार के विचार होना जैसे- मेरा नाम, मेरा शरीर, मेरा रूप, मेरी शिक्षा, मेरा पद, मेरा परिवार, मेरी उपलब्धियां आदि ।ऐसा लगना कि मेरे ये विचार ही मेरे अस्तित्व के लिए आवश्यक कारक हैं । हम जीवन के इस सीमित दृष्टिकोण से परे नहीं सोच पाते । हम सभी मुख्य रूप से कम-अधिक मात्रा में इस प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण के साथ पहचाने जाते है । इसके विपरीत, आध्यात्मिक प्रगति का अर्थ है अपने सीमित अस्तित्त्व की सोच अर्थात अपनी ५ इंद्रियां, मन और बुद्धि से परे जाना और उस आत्मा अथवा ईश्वरीय तत्त्व का अनुभव करना जो हम सभी के भीतर विद्यमान है ।
अहं के कारण हम अपने भीतर विद्यमान ईश्वरीय तत्त्व अनुभव नहीं कर पाते । सभी स्वभावदोष अहं से ही उत्पन्न होते हैं, अहं प्रकृति में अत्यधिक सूक्ष्म होता है । अहं का प्रकटीकरण कई तरीकों से होता है। अहं के ज्ञात व अज्ञात प्रकटीकरण के उदहारण हैं – अभिमान होना, स्वयं को श्रेष्ठ समझना, हीन भावना होना, शिक्षण मनोदृष्टि, स्वयं को ही सही मानना, आधिकारिक रूप से बोलना, प्रायः जोर से बोलना, अपेक्षाएं रखना, प्रशंसा की अपेक्षा रहना, कर्तापन, अपने रूप के बारे में सोचना, स्वार्थ, निरंतर स्वयं के बारे में एवं अपने परिवार के बारे में बात करना, स्वयं की इच्छा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, ऐसा सोचना आदि ।
इससे आपको व्यक्ति के अहं के कई पहलुओं के बारे में भान हुआ होगा ।
व्यक्ति चाहे किसी भी मार्ग से साधना करें, यदि उसमें अहं अधिक है, तो उसकी आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो सकती ।
यह आचरण कैसे सहायता करता है
आध्यात्मिक प्रगति करने के लिए, हमारे अहं को कम करना आवश्यक है । इसका कोई विकल्प नहीं है । यद्यपि, हमारा अहं हमारे भीतर इतना गहरा होता है कि साधना करने पर भी उसे समाप्त करना आसान नहीं होता । इसलिए, यह सोचने के बजाय कि साधना करने से अहं अपने आप समाप्त हो जाएगा, उस व्यक्ति को अहं कम करने के लिए सचेत प्रयास करने चाहिए । अहं को घटाने के लिए व्यावहारिक स्तर पर किए जा सकने वाले कुछ प्रयास आगे दिए गए हैं:
- प्रार्थना : जब हम विनम्रता से ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो हम अपनी विवशता व्यक्त करते हैं । यह अहं को कम करने में मदद करता है । प्रार्थना के कुछ उदाहरण जो हम अहं को कम करने के लिए कर सकते हैं, वे इस प्रकार हैं:
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- हे ईश्वर, मुझे उन पहलुओं से अवगत कराइए जो मेरे अहं को बढावा देते हैं ।
- हे ईश्वर, मुझे ऐसे व्यक्तियों की संगति में रखिए और मेरे जीवन में ऐसी प्रसंग निर्माण कीजिए जो मेरे अहं को कम करने में मदद करे ।
- हे ईश्वर, दूसरों द्वारा बताई गई मेरी प्रतिक्रिया और चूकों को स्वीकार करने में मेरी मदद कीजिए ।
- दूसरों का विचार करने की गुणवत्ता विकसित करने से अहं को कम करने में मदद मिलती है। हमें दूसरों के बारे में विचार करने का व्यावहारिक स्तर पर प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब हमारे परिवार के किसी सदस्य के पास काम का बोझ बढ जाए, तो हम उनके कपडों को इस्त्री करने का प्रस्ताव दे सकते हैं अथवा उनके काम में हांथ बटा सकते हैं ।
- शारीरिक श्रम वाले कार्य जैसे बर्तन साफ करना, घर की सफाई करना आदि अहं को तेजी से कम करने में मदद करता है। अधिक आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए यह प्रार्थना कर सकते हैं कि हे ईश्वर मुझसे प्रत्येक कार्य सत्सेवा (ईश्वर की सेवा) के रूप में हो ।
- ब्रह्मांड की विशालता और तुलना में हम कितने छोटे हैं, इसका स्मरण करना । वैकल्पिक रूप से, समय की विस्तीर्णता का विचार करना और उसकी तुलना में हमारा जीवन कितना अल्प है । ऐसे विचार अहं कम करने में सहायक होते हैं।
- ऐसा दृष्टिकोण अथवा भाव रखना कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुसार अथवा ईश्वर के कारण हो रहा है । उदाहरण के लिए, सांसारिक जीवन में, हममें यह भाव होना चाहिए कि ‘ईश्वर ने मुझे सिखाया है’ यह सोचने के बजाय कि ‘मैं बुद्धिमान हूं और हार्वर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक हूं’ । यह सोचें कि ‘ईश्वर ने मेरा विवाह कराया’ यह सोचने के बजाय कि ‘मैंने विवाह किया’ आदि।
- कृतज्ञता व्यक्त करना: कृतज्ञता व्यक्त करने से, गुरु अथवा ईश्वर के प्रति कर्तापन (मैंने किया, यह भाव) अर्पण किया जाता है, और इससे अहं को कम करने में मदद मिलती है । अधिक जानकारी के लिए, ‘आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कृतज्ञता का महत्व’ पर हमारे लेख को देखें।
अधिक जानकारी के लिए कृपया अहं निर्मूलन पर हमारे लेख को देखें।
६. भगवान के नाम का जप (नामजप)
एक साधक के सामने आनेवाली चुनौतियां
सबसे आम चुनौतियों में से एक चुनौती जिसका सामना साधक को करना पडता है वह है समय का आभाव । हम प्रायः साधकों को यह कहते सुनते हैं कि वे उनकी साधना में नियमित होने का समय नहीं निकाल पाते हैं । यह वर्तमान युग के दैनंदिन जीवन के तनाव और थकान को देखने से समझ आता हैं – कि साधना करने के लिए समय निकालना कठिन है । और मान लें कि एक साधक को साधना करने का समय मिल भी गया जैसे कि ध्यान करने के लिए; तब भी, इसे पूरे दिन लगातार नहीं किया जा सकता ।
भगवान के नाम का जप कैसे सहायता करता है
यही कारण है कि ऋषियों ने बताया है कि वर्तमान युग में, भगवान के नाम का जाप करना सबसे उत्तम साधना है क्योंकि यह मन ही मन में दिन भर किया जा सकता है। यह एक ऐसी साधना है जिसे करना आसान है और इसमें समय अथवा स्थान का कोई बंधन नहीं है । चूंकि इसे लगातार किया जा सकता है, इसलिए इससे साधना में निरंतरता लाने में सहायता होती है ।
और यही नहीं, आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए, आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता होती है । ईश्वर के नाम में अद्भुत सकारात्मक दैवी शक्ति होती है । ईश्वर के नाम का जाप करने से, व्यक्ति ईश्वरीय शक्ति को ग्रहण करता है । ईश्वर के नाम का जप (नामजप) जितना अधिक एकाग्रता अथवा स्थिरचित्तता से होगा, उतना ही अधिक लाभ व्यक्ति को इस साधना से प्राप्त होगा । जब इसे भाव के साथ किया जाता है, तो लाभ में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है ।
जप का एक और लाभ यह है कि यह अवचेतन मन में स्थित स्वभावदोषों के नकारात्मक संस्कारों को मिटाने में सहायता करता है । व्यक्ति के अवचेतन मन में लाखों संस्कार होते हैं और मनोवैज्ञानिक साधनों के माध्यम से अवांछनीय दोषों को दूर करने में कई वर्ष अथवा जीवनकाल भी लग सकते हैं । यदि ईश्वर के नाम का जप (नामजप) किया जाए तो यह प्रक्रिया तेज हो जाती है । ऐसा इसलिए है क्योंकि नियमित रूप से जप करने से व्यक्ति के अवचेतन मन में एक ‘ भक्ति केंद्र ’ स्थापित हो जाता है जो अवचेतन मन में स्थित दूसरे संस्कारों पर प्रबल होने लगता है । इस प्रकार, अन्य नकारात्मक संस्कारों की शक्ति अपनेआप (स्वतः) ही न्यून होने लगती है फलस्वरूप व्यक्ति पर उनका प्रभाव भी न्यून हो जाता है ।
नामजप से प्राप्त आध्यात्मिक शक्ति से आध्यात्मिक प्रगति होने में सहायता प्राप्त होती है । SSRF आपको आपके जन्म के धर्म/पंथ के अनुसार भगवान के नाम का अथवा || ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || (वर्ष २०२५ तक आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक सबसे अनुकूल नामजप) का जप करने का परामर्श देता है । इसके साथ ही, ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का जाप करने का भी परामर्श देता है । यह एक सुरक्षात्मक जप है, जो मृतपूर्वजों की अतृप्त आत्माओं (सूक्ष्म देहों) के कारण होने वाले आध्यात्मिक कष्ट से रक्षण होने में सहायता करता है।
भगवान के किस नाम का जप करना चाहिए, इस संदर्भ में अधिक जानकारी के लिए हमारे लेख ‘अपनी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) आरंभ करें‘ देखें । आप नामजपके बारे में अधिक जानकारी के लिए नामजप पर हमारे अनुभाग/लेख भी पढ सकते हैं।
७. सत्संग
साधक के सामने आनेवाली चुनौतियां
साधक को अपनी आध्यात्मिक यात्रा में, कई बार आध्यात्मिक सहायता की आवश्यकता पडती है । इसके अंतर्गत निम्नलिखित परिस्थितियां हो सकती हैं । –
- अध्यात्म सम्बंधित प्रश्न पूछना
- अध्यात्म अथवा स्वयं की साधना से सम्बन्धित शंका-समाधान करना
- साधना करने की इच्छा न होना, साधना के लक्ष्य से ध्यान हटना अथवा नकारात्मक विचार अथवा बाधाओं को कैसे दूर करें इसकी जानकारी न होने इत्यादि पर किसी अन्य साधक की सहायता लेना
- आध्यात्मिक उपाय हेतु मदद लेना
दूसरे मार्गदर्शक साधकों और सह-साधकों की मदद के बिना, साधक अपनी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) में बार बार निर्माण होने वाली उन बाधाओं से कभी कभी व्याकुल हो सकते हैं । इसके परिणामस्वरूप वे साधना करना छोड सकते हैं और अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों से विमुख हो सकते हैं ।
सत्संग से कैसे सहायता होती है
सत्संग एक संस्कृत शब्द है जहां ‘सत् ‘ का अर्थ है परम सत्य अर्थात ईश्वर और ‘संग’ का अर्थ है ‘के साथ रहना ‘। अतः, इसका अर्थ होता है ईश्वर/सत के संग में रहना । सत्संग में रहने का अर्थ है, ऐसे सह-साधकों व संतों की संगती में रहना जहां अध्यात्म के सैद्धांतिक और प्रायोगिक पहलुओं पर चर्चा होती हो । सत्संग एक ऐसा वातावरण होता है जो साधकों की आध्यात्मिक उन्नति होने और उनकी साधना में सहायता मिलने हेतु अनुकूल होता है ।
सत्संग में सम्मिलित होनेवाले अनेक साधकों से व्याप्त सामूहिक आध्यात्मिक शक्ति से साधक को अपनी साधना में दृढ रहने की प्रेरणा मिलती है । मंदिर (पूजा स्थलों पर) जाना, संतों द्वारा लिखित ग्रंथ पढना, संतों का मार्गदर्शन प्राप्त कर रहे सह-साधकों की संगती में रहना, यह उच्च कोटि के सत्संगों के उदाहरण हैं ।
१ से १०० के पैमाने पर देखें, तो साधना के प्रकार के महत्त्व के सम्बन्ध में नामजप का महत्व सिर्फ ५% है और सत्संग अथवा संतों की संगती में रहने का महत्त्व ३०% है । आध्यात्मिक शोध (उन्नत छठी इंद्रिय के प्रयोग) के माध्यम से प्राप्त ये प्रतिशत सत्संग के महत्व को उजागर करते हैं ।
सत्संग में रहने के अनेक लाभों में से कुछ लाभ नीचे बताए गए हैं ।
- सत्संग में रहने से साधक को साधना में प्रयासरत रहने हेतु दृढ विश्वास और दृढ इच्छा शक्ति प्राप्त होती है। साधना के प्रति साधकों का उत्साह बढता है
- सत्संगों में विद्यमान चैतन्य से भी साधक को अपनी साधना के लिए आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होने में सहायता होती है।
- सत्संग में सम्मिलित होनेवाले साधकों के बीच निकटता की भावना निर्माण होती है और अन्यों के प्रति अधिक प्रीति विकसित करना सरल हो जाता है ।
- हम सत्संग में आनेवाले अन्य साधकों द्वारा किए गए साधना के प्रयासों से सीख सकते हैं।
- सत्संग में सहभागी होते समय, व्यक्ति को उस अनुभूति की तुलना में जिसे उन्होंने पहले अनुभव किया हो, उससे अधिक उच्च स्तर की अनुभूति हो सकती है । इससे अध्यात्म में व्यक्ति की श्रद्धा बढने में सहायता होती है ।
वर्तमान समय में, स्वयं साधना करना बहुत कठिन होता है । हमें हमारी आध्यात्मिक यात्राओं (साधना) में आगे जाने में सहायता प्राप्त होने हेतु अन्य साधकों एवं आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोगों के सहयोग कि आवश्यकता पडती है इसीलिए SSRF नियमित साप्ताहिक ऑनलाइन सत्संग आयोजित करती है जो नि:शुल्क होते हैं और उन्हें अत्यधिक महत्व देती है । सत्संग में भाग लेने के लिए यहां क्लिक करें।
साधना के इस पहलू के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप सत्संग पर हमारे लेख भी देख सकते हैं।
८. सत्सेवा
साधक के समक्ष आनेवाली चुनौतियां
जब साधक अपने जीवन में अध्यात्म की खोज करते हैं, तब उनमें अपने खाली समय में सत्सेवा हेतु कुछ करने की इच्छा रहती है । कभी कभी सही मार्गदर्शन के अभाव के कारण, वे कुछ समाज सेवा अथवा दान का कार्य करते हैं, जो कि अध्यात्म प्रसार की सेवा के समकक्ष नहीं हो सकता । समाज सेवा अथवा दान कार्य जैसी कृतियों से व्यक्ति में अहं बढने की संभावना होती है । इसका कारण यह है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के मन में सदैव ऐसे विचार रहते हैं कि – ‘देखो मैंने कितना किया है’, ‘मैं समाज के लिए इतना अच्छा काम/कार्य कर रहा हूं’, ‘मैं इतना अच्छा इंसान हूं’ इत्यादि, जो आध्यात्मिक दृष्टि से (अध्यात्म के अनुसार) कर्तापन होने के समान है । सामाजिक मुद्दों जैसे निर्धनता, निर्बल/घटिया स्वास्थ्य, व्यवस्था आदि से निपटने के कारण उनकी भावनात्मक वृति बढ सकती है, जिससे उनका अहं भी बढता है। यदि उचित दृष्टिकोण के साथ यह न किया जाए, तो जिन लोगों की मदद हम कर रहे हैं, उनके साथ एक नया लेन-देन का खाता (कर्म-खाता) निर्माण होने की संभावना रहती है। अधिक जानकारी के लिए, कृपया हमारे लेख, क्या समाज सेवा को साधना कहा जा सकता है, को देखें ।
सत्सेवा से कैसे सहायता होती है
सत्सेवा का अर्थ है ईश्वर, जो परम सत्य है, उसकी सेवा करना अर्थात अध्यात्म प्रसार के माध्यम से ईश्वर के कार्य में योगदान देना (जो सार्वभौमिक/वैश्विक अध्यात्म के सिद्धांतों के अनुरूप हो) । सत्सेवा की शुरुआत करना साधना में एक बडी छलांग माना जाता है क्योंकि यह हमें आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने के कई अवसर प्रदान करता है । १ से १०० के पैमाने पर , साधना के इस प्रकार के महत्त्व के संदर्भ में, ईश्वर का नामजप करने का महत्व केवल ५% है और सत्संग अथवा संतों की संगती मैं रहने का महत्त्व ३०% है जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है । साधना के इन दोनों प्रकारों की तुलना में सत्सेवा का महत्व १००% है ।
ईश्वर के अध्यात्मप्रसार के कार्य में जब हम सहभाग लेते हैं तब ईश्वर हमसे प्रसन्न होते हैं । इसका कारण यह है कि उन्हें लगता है कि हम स्वार्थी नहीं है तथा केवल अपनी ही आध्यात्मिक उन्नति के बारे में नहीं सोचते, अपितु, अन्य लोगों की आध्यात्मिक प्रगति कैसे हो सकती है, इसके बारे में भी सोचते हैं । ऐसा करने से हमें ईश्वर के ‘व्यापकता’ इस गुण को अपने भीतर निर्माण करने में सहायता होती है । यह उसी समान है कि किस प्रकार ईश्वर सभी प्राणियों की आध्यात्मिक प्रगति का ध्यान रखते हैं । अतः, ईश्वर के इस गुण को आत्मसात करने से, सत्सेवा के फलस्वरूप शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति होती है ।
सत्सेवा, साधना के अन्य सभी चरणों को अपने में समाहित करती है ।
- सत्सेवा करते समय, हम अपनी चूको का निरीक्षण करते हैं और अन्य साधक भी हमें बताते हैं । जिससे हमें आध्यात्मिक रूप से अंतर्मुख बनने में मदद मिलती है और इस प्रकार स्वभाव दोष निर्मूलन प्रक्रिया होती है ।
- आगे साधक कृतज्ञता की भावना के साथ अपनी सत्सेवा आरंभ करते हैं क्योंकि उन्हें इस बात कि अनुभूति होती है कि ईश्वर जीवन में उनके लिए कितना कुछ कर रहे हैं । इसलिए सत्सेवा से भाव जागृत होता है ।
- सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि सत्सेवा हमें समष्टि साधना के विचार से जोडती है अर्थता समाज की आध्यात्मिक उन्नति होने में सहायता करना । वर्तमान युग में, समष्टि साधना का महत्व ७०% है, जबकि व्यष्टि साधना अर्थात व्यक्तिगत साधना का महत्व केवल ३०% है ।
- ईश्वर के कार्य के प्रति अपना समय देने और प्रयास करने से, हमारे तन, मन और बुद्धि का त्याग होता है ।
- इसके साथ ही जब हम दूसरों के साथ सत्सेवा करते हैं, तब हमें उनसे सीखने का अवसर मिलता है और ‘दूसरों का विचार करना’ ऐसी वृत्ति निर्माण होती है । इस प्रकार धीरे-धीरे हममें प्रीति निर्माण होती है ।
परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी की कृपा और मार्गदर्शन के कारण, SSRF ने साधकों के लिए उनके समय, रुचि और क्षमता के अनुसार सत्सेवा कर पाने हेतु एक मंच कि स्थापना की है । विश्व के विभिन्न भागों से अध्यात्म प्रसार करने हेतु विविध प्रकार की सत्सेवाओं के लिए कई साधक अपना समय और कौशल प्रदान करने के लिए इस मंच से जुडे हैं । कुछ सत्सेवाओं के अंतर्गत पुस्तकों/ग्रंथों अथवा लेखों का अनुवाद करना, सत्संग व आध्यात्मिक कार्यशालाओं के आयोजन और संचालन में मदद करना, SSRF के सोशल मीडिया पृष्ठों से संबंधित सेवा, लेख और ब्लॉग लिखना, SSRF वेबसाइट/जालस्थल के रखरखाव और विकास में सहभागी होना इत्यादि सम्मिलित हैं । हम अपने पाठकों से यह अनुरोध करते हैं कि, यदि आप सत्सेवा आरंभ करने में रुचि रखते है तो हमारी लाइवचैट सुविधा पर हमसे संपर्क करें ।
सत्सेवा के बारे में अधिक जानकारी के लिए, कृपया इस विषय पर हमारा लेख देखें ।
९. भावजागृति
एक साधक के सामने आनेवाली चुनौतियां
किसी गतिविधि अथवा कार्य को बिना किसी उत्साह के करने की कल्पना करें । पूर्ण गतिविधि नीरस प्रतीत होगी और व्यक्ति में उत्साह की कमी रहेगी । साधना के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है । प्रायः, जब साधक साधना प्रारम्भ करते हैं, तो वे साधना के उतार चढाव से गुजरते तो हैं, लेकिन हो सकता है कि उन्हें ईश्वर की अनुभूति न होती हो । ऐसा इसलिए है क्योंकि वे नहीं जानते कि भाव को कैसे जागृत करना है । यद्धपि , जब वे भाव अनुभव करने लगते हैं, तब इसके फलस्वरूप उनके जीवन और साधना में दैवी मिठास (ईश्वरीय अस्तित्त्व) अनुभव होती है ।
भाव कैसे सहायता करता है और इसे जागृत कैसे किया जाता है
एक कहावत है: जहां भाव है, वहां भगवान है ।
यह कथन, भाव जागृत करने के प्रयासों का जो अत्यधिक महत्त्व है, उसके बारे में हमें इंगित करता है। अतः, भाव क्या है ? इस सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक अनुभूति को समझाने में शब्द न्यून पड जाते हैं । भाव भगवान के साथ एकरूप होने की अनुभूति है । किन्तु इसमें कैसा अनुभव होता है ?
साधारणत:, हम सभी को अपने अस्तित्व का बहुत अधिक भान रहता है । यद्यपि, जब हम भाव जागृत करने के लिए प्रयास करते हैं, तो हमें भगवान के अस्तित्त्व को अनुभव करने का अवसर प्राप्त होता है। यह एक सर्वश्रेष्ठ अनुभूति है जहां हम अनुभव करते है कि हम ईश्वर के साथ जुडे हैं। इस अवस्था में, कोई आवश्यकताएं, इच्छाएं शेष नहीं रह जाती, केवल आनंद , प्रेम, कृतज्ञता की अनुभूतियां रहती हैं और भगवान के साथ एक होने की अनुभूति रहती है । प्रायः यह अश्रु आना, कम्पन अनुभव होना इत्यादि जैसी कुछ शारीरिक अभिव्यक्तियों के साथ होता है | यह उन सभी गतिविधियों को अर्थ देता है जो हम साधना के अंग के रूप में करते हैं और हमारे जीवन में ईश्वर के अस्तित्त्व की अनुभूति लाता है । हमें अनुभव होता है कि ईश्वर अथवा गुरु हमारे बाजू में ही हमारे साथ चल रहे हैं । उसी क्षण, तनाव दूर हो जाता है । भाव जितना अधिक होगा, उतना ही अधिक ईश्वर से निकटता की अनुभूति होगी ।
कभी-कभी हमारा आध्यात्मिक भावनाएं अनायास ही जागृत हो जाती हैं जब हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हैं अथवा यह स्मरण करते हैं कि ईश्वर ने हमारे लिए कितना कुछ किया है । यद्यपि, अपने भाव को बढाने के लिए तथा इसे अपने जीवन में स्थिर बनाने के लिए मन और बुद्धि के स्तर पर निरन्तर प्रयास करना महत्वपूर्ण है ।
भाव को बढाने के कुछ सरल उपाय आगे दिए गए हैं ।
- हम सम्पूर्ण दिनभर की गतिविधियों को करते समय यह भाव रख सकते हैं कि हम इसके माध्यम से भगवान की सेवा कर रहे हैं । उदाहरण के लिए, जब हम घर की सफाई करते हैं, हम यह मनःस्थिति और भाव रख सकते हैं कि हम भगवान के घर की सफाई कर रहे हैं । जब हम भोजन बनाते हैं, हम यह भाव रख सकते हैं कि हम भगवान के लिए भोजन बना रहे हैं । हम कार्यालय इत्यादि में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते समय यह भाव रख सकते हैं कि हम ईश्वर की सेवा कर रहे हैं ।
- हम उन सभी कठिन समयों को कृतज्ञता स्वरुप में स्मरण कर सकते हैं जहां हमने भगवान की सहायता अनुभव की है और जहां उनकी कृपा के कारण स्थिति का समाधान हुआ था । हम उन सभी अनुभूतियों का भी स्मरण कर सकते हैं जो हमारी साधना के दौरान हमारे विश्वास को दृढ करती थीं । भाव निर्माण करने में कृतज्ञता की भावना होना, यह एक महत्वपूर्ण घटक है ।
स्मरण रखने की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हम निरन्तर भाव की स्थिति में भले ही नहीं रह सकते । यद्यपि, स्मरण रखें कि यह वह लक्ष्य है, जिसे हम प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं । भाव की स्थिति में निरंतर रहना एक उच्च आध्यात्मिक स्तर पर संभव है । अतः, यदि आप प्रारम्भ में भाव का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं, तो निराश न हों । भाव जागृत करने के लिए निरंतर प्रयास करना अधिक महत्वपूर्ण है। जब हम गम्भीरता से प्रयास करते हैं, तो भगवान हमें भाव और उनके दैवीय अस्तित्त्व को अनुभव करने का उपहार देते हैं । एक व्यक्ति भाव का अनुभव करने हेतु क्या प्रयास कर सकता है,
इसकी अधिक जानकारी हेतु, कृपया भाव पर हमारे लेख देखें।
१०. त्याग
एक साधक के सामने आनेवाली चुनौतियां
अनेक साधक यह नहीं जानते कि उनको अपनी साधना में आगे कैसे जाना है । इसमें मुख्य योगदान देनेवाले कारकों में से एक यह है कि वे अपनी नियमित दिनचर्या के साथ जुडी अपनी आरामदायक स्थिति के आदी हो गए हैं । वे इसके बाहर नहीं जाना चाहते। अतः, वे अपनी साधना में अगला कदम नहीं उठाते ।
इसके साथ, लोगों में विभिन्न आसक्तियां होती होती हैं – वे शारीरिक अथवा भावनात्मक हो सकती है। उनमें यह गलत धारणा होती है कि जिन वस्तुओं के प्रति उन्हें लगाव है, वे उन्हें स्थाई सुख देगी । लेकिन सत्य से आगे कुछ भी नहीं हो सकता । जैसा कि आप जानते हैं, हम एक ऐसे संसार में रहते हैं जो कि प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है और वे सभी चीजें/वस्तुएं जिनके प्रति हमें आसक्ति हैं, उनमें परिवर्तन होने से हमें अत्यधिक दुख पहुंच सकता है । अपनी आसक्तियों का त्याग करना और अपनी आरामदायक स्थिति से बाहर आ जाना, यह करने की अपेक्षा कहने में आसान हैं ।
तो, इसका क्या समाधान है?
त्याग कैसे सहायता करता है और इसे कैसे करना है:
त्याग की साधना के अंतर्गत ईश्वर की सेवा करने के लिए अथवा अध्यात्मप्रसार के उनके कार्य में सहयोग करने के लिए अपने तन, मन और धन का त्याग करने हेतु ठोस प्रयास करना सम्मलित है।
यद्यपि, जब ‘त्याग’ अथवा ‘समर्पण’ अथवा ‘वस्तुओं का त्याग करना’ का उल्लेख किया जाता है, तो हममें से कुछ लोगों को यह गलत अवधारणा हो सकती है कि इसका अर्थ यह होगा कि अंतत: हमें अपने सांसारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता होगी । कोई ऐसा सोच सकता है, अगर मैं त्याग करता हूं और प्रतिफल में कुछ नहीं मिलता है तब क्या ? ’ इससे हमें इस प्रकार की साधना को अपनाने में भय और संकोच हो सकता है ।
इस मनोवृत्ति को समझना महत्वपूर्ण है । इसे प्रेमपूर्वक करना आवश्यक है, जहां व्यक्ति को कभी यह अनुभव नहीं होता कि वह त्याग कर रहा है। एक सांसारिक उदाहरण जो हमें इस प्रकार के त्याग को समझने में सहायता कर सकता है,वह यह त्याग है जो माता-पिता अपने बच्चों के लिए करते हैं । वे यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनके बच्चों के पास सर्वश्रेष्ठ अवसर रहे, इसके लिए वे कई कठिनाइयों का सामना और त्याग कर सकते हैं । वे कभी इसे अनुभव नहीं करते क्योंकि यह प्रेमपूर्वक किया जाता है। साधना के रूप में त्याग भी उसी समान है । अंतर केवल इतना है कि यहां हमने जो कुछ भी स्वयं सृजनकर्ता से प्राप्त किया है, उसकी सेवा हेतु, बहुत थोडा सा भाग हम वापस दे रहे हैं । किंतु इसमें प्रयास लगता है और व्यक्ति अपनी आरामदायक स्थिति से बाहर जाने और तन, मन अथवा धन का त्याग करने में अभी भी संकोच से भरा हो सकता है ।
इसलिए, व्यक्ति छोटे छोटे त्याग करने के साथ प्रारम्भ कर सकता है। मान लीजिए कि आपको सोशल मीडिया चैनल जैसे की फेसबुक को बिना किसी उद्देश्य के देखने की और आपके पोस्ट को कितने लोगों ने पसंद किया, यह प्रत्येक घंटे में एक बार जांचने की आदत हैं। तब, यदि आप उस समय का उपयोग एकाग्रता के साथ भगवान का नामजप करने की साधना में करें, तो यह मन का एक छोटा सा त्याग हो सकता है। आप देखेंगे कि हर बार जब आप ईश्वर के निकट जाने अथवा उसकी सेवा करने का चयन करते हैं, तो आप लाभान्वित होते हैं – यह लाभ शारीरिक अथवा मानसिक और सदैव आध्यात्मिक रूप से हो सकता है ।
जब हम स्वयं को अर्पण करते हैं – चाहे यह मन, शरीर अथवा धन हो – तब हम प्राप्त करने के लिए हमारे भीतर स्थान निर्माण करते हैं । जब हम अपने आरामदायक स्थिति से बाहर जाने और भगवान की ओर एक कदम बढाने का प्रयास करते हैं, तो हम यह अनुभव करेंगे कि वे (ईश्वर) हमारे लिए बहुत कुछ कर रहे हैं । इसके फलस्वरूप ईश्वर को अनुभव करने के लिए हममें हमारे सांसारिक अस्तित्त्व का अधिकाधिक त्याग करने की श्रद्धा निर्माण होती है।
ऐसे कुछ तरीके जहां हम त्याग कर सकते है, वे इस प्रकार है :
- भगवान की सेवा करने के लिए अपना खाली समय देना
- उनके कार्य में सहयोग देने हेतु अपनी प्रतिभा और कौशल अर्पण करना
- अध्यात्मप्रसार के कार्य में सहायता हेतु दान देना / अर्पण करना
- यद्यपि, हमारे पास कुछ भी न हो, फिर भी हमारे पास एक भौतिक शरीर तो है । हम अध्यात्मविषयक कार्यशाला आरंभ होने से पहले वहां का परिसर स्वच्छ करने में सहायता कर सकते हैं ।
त्याग अपनी क्षमता के अनुसार किए जा सकते हैं । जैसे-जैसे हमारी साधना की गुणवत्ता और मात्रा बढती जाती है, हमारे त्याग की इच्छा स्वतः बढ जाती है । यद्यपि अंततः , हमें सभी चीजों का और हमारे शरीर, मन और सम्पत्ति से सम्बंधित सभी आसक्तियों का त्याग करना होता हैं । जब हम अपने सांसारिक जीवन के तरीकों तथा इससे सम्बंधित सभी आसक्तियों का पूर्ण रूप से त्याग करते हैं, तभी हम पूर्ण रूपसे भगवान को अनुभव कर सकते हैं ।
कृपया अधिक जानने/जानकारी के लिए त्याग पर हमारे अनुभाग/लेख को देखें।
११. प्रीति
एक साधक के सामने आनेवाली चुनौतियां
आज की दुनिया की कडवी सच्चाई यह है कि अधिकांश लोग आत्मकेंद्रित होते हैं । जो लोग वास्तव में दूसरों के बारे में सोचते हैं और बिना किसी स्वार्थ के दूसरों को स्वयं से पहले प्राथमिकता देते हैं , ऐसे लोग दुर्लभ होते हैं ।
इसलिए, यदि हम प्रेम तथा दूसरों का विचार करने की निरंतरता के दो छोर लेते हैं, तो एक पक्ष आत्म-केंद्रितता (अहं) का प्रतिनिधित्व करेगा और तो दूसरा छोर निरपेक्ष प्रेम (प्रीति) को दर्शाएगा । ईश्वर का प्रेम, जो आध्यात्मिक प्रेम अथवा प्रीति है, वह दूसरों के लिए निरपेक्ष प्रेम का प्रतीक है । बहुत उच्च आध्यात्मिक स्तर के संत दूसरों के लिए और पूरी सृष्टि के लिए निस्वार्थ प्रेम के इस स्वरूप को व्यक्त करते हैं ।
भगवान का यही अद्वितीय गुण है जो उन्हें सभी मानव जाति और आध्यात्मिक आयाम में व्याप्त सभी सूक्ष्म जीवों का इतना प्रिय बनाता है ।
यदि साधक ईश्वर से एकरूप होना चाहता है, तो वह इस निरंतर प्रक्रिया पर जहां कहीं भी हो, उसे दूसरों के प्रति निस्वार्थ प्रेम की ओर जाने का प्रयास करना आवश्यक है । इसका कारण यह है कि जैसे तेल और पानी अपने अलग-अलग गुणों के कारण विलीन नहीं हो सकते, उसी तरह एक आत्मकेंद्रित (अहं युक्त) व्यक्ति भगवान जिनका गुण प्रीति है, के साथ विलीन नहीं हो सकता । यद्यपि, एक स्वार्थी और आत्मकेंद्रित (अहं युक्त) जगत से घिरे रहते हुए निःस्वार्थ प्रेम को दर्शाने का प्रयास करना आसान नहीं है । आज की दुनिया में, हम स्वयं को पहले रखने के लिए प्रतिबन्धित होते हैं । हमें कदाचित इस बात का भय हो सकता है कि दूसरे हमारा लाभ उठा सकते हैं क्योंकि वे हमें दब्बू समझ सकते हैं ।
तो आज की दुनिया में कोई कैसे एक उन्मुक्त स्नेहमयी व्यक्ति में परिवर्तित हो जाता है ?
यहीं से प्रीति के बारे में सीखने और अभ्यास करने का चरण आरम्भ होता है।
एक साधक को प्रीति के अभ्यास से किस प्रकार सहायता होती है
यदि कोई ऐसी वस्तु है, जो सभी सीमाओं को पार कर जाती है, तो वह है प्रीति ।
भले ही आपके पास आध्यात्मिक ज्ञान हो, लेकिन यदि आपके पास प्रीति नहीं है, तो लोग आपसे निकटता अनुभव नहीं करेंगे ।
प्रत्येक जीव एवं साथ ही निर्जीव वस्तुओं के प्रति भी हमारे सभी कृत्य, वाणी एवं व्यवहार में प्रेम प्रदर्शित होना चाहिए तथा यह भीतर से प्रकट होना चाहिए । यह झूठ नहीं हो सकता । ईश्वर सम्पूर्ण जगत को अपना समझते हैं, अतः हमें भी अंततः इसी अवस्था तक आना है जहां हमें लगने लगे कि सम्पूर्ण जगत हमारा है । तभी हम ईश्वर से एकरूप हो सकते हैं ।
हम स्वयं को ऐसे व्यक्ति में एक ही दिन में परिवर्तित नहीं कर सकते जिसमें प्रीति हो ।
इसलिए, हमें छोटे-छोटे दैनिक प्रयास करके शुरुआत करने की आवश्यकता है, जिसके कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं।
- दूसरों के लिए काम करना और बाद में दूसरों के लिए काम करने हेतु विशेष प्रयास करना
- स्वेच्छा के स्थान पर परेच्छा के अनुसार कार्य करना, यह इस चरण के अभ्यास में एक महत्वपूर्ण प्रयास है
- धीरे से और विनम्र तथा प्रेमपूर्ण तरीके से बोलना
- दूसरों के प्रति स्वयं की अपेक्षाओं को कम करने हेतु स्वभाव दोष निर्मूलन के प्रयास करना
- दूसरों की आलोचना न करना एवं दोष न निकालना और दूसरों के प्रति अधिक गहरी समझ रखना और सहिष्णु होना
- निस्वार्थ भाव से काम करना
- मूल रूप से प्रत्येक में ईश्वर को देखने के प्रयास करते हुए इस भाव में रहना कि आप दूसरों में विद्यमान ईश्वर की सेवा कर रहे हैं
- दूसरों के और उनकी स्थितियों के प्रति सहानुभूति रखने का अभ्यास करना
- दूसरों की सराहना करना और दूसरों के प्रति कृतज्ञता रखना
- क्षमा करने का अभ्यास करना जहां आप न केवल क्षमा करते हैं, अपितु आप घटना को भी भूल जाते हैं
- अध्यात्म के महत्व को समझने में दूसरों की सहायता करना और उन्हें इसका अभ्यास करने में सहायता करना
सबसे पहले, सह-साधकों और प्रियजनों के साथ इसका अभ्यास किया जा सकता है । चरण-दर-चरण, हम मित्रों, सहकर्मियों, परिचितों, अज्ञात लोगों, जानवरों, निर्जीव वस्तुओं और फिर हमारे शत्रुओं को भी सम्मिलित करने के लिए इस अभ्यास के क्षेत्र को बढा सकते हैं ।
जैसे-जैसे हम इस तरह के प्रयासों को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाते हैं, हम दूसरों के प्रति अधिक प्रीतिमय बन जाते हैं । अपेक्षारहित दूसरों की निस्वार्थ सेवा करने में हमें आनंद की अनुभूति होती है । फलस्वरूप हम इसे अधिक से अधिक करना जारी रखने के लिए प्रोत्साहित होते है । पहले तो हमें दूसरों के बारे में सोचने के लिए अधिक प्रयास करना पडता है, और बाद में ७०% के आध्यात्मिक स्तर के बाद, अर्थात्, जब कोई संतत्व तक पहुंचता है, तो वास्तविक प्रीति विकसित होने लगती है ।
अधिक पढने के लिए कृपया प्रीति पर हमारा लेख देखें ।
१२. निष्कर्ष
अध्यात्मशास्त्र के अनुसार, जीवन का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति करना होता है । यह सभी मानवीय लक्ष्यों और प्रयासों में सबसे श्रेष्ठ है । अध्यात्म में ईश्वर की ओर जाने से हमें ऐसे आनंद, खुशी के एक उत्कृष्ट रूप को अनुभव करने का उपहार मिलता है, जो किसी चीज पर निर्भर नहीं है । इस अवस्था में, परिस्थिति कैसी भी हो, व्यक्ति आनंदित रहता है । उन्नत आध्यात्मिक स्तर के लोगों का प्रभाव ऐसा होता है कि उनके आस-पास की हर चीज सकारात्मक रूप से प्रभावित हो जाती है ।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, एक व्यक्ति का औसत जीवन काल लगभग ७२ वर्ष होता है । इससे हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ५० वयस्क वर्ष (अथवा लगभग १८,२५० दिन) से थोडा अधिक समय का अवसर प्राप्त होता है । इस लेख को पढते समय आप कितने वर्ष के हैं, इस पर निर्भर करते हुए, एक साधक के रूप में, आप अनुभव करेंगे कि इस आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अब एक सीमित समय ही शेष है । अधिक गंभीर बात यह है, कि यदि हम एक निश्चित आध्यात्मिक स्तर तक नहीं पहुंचते हैं, तो कर्म के सिद्धांत (प्रारब्ध) में बंध जाते हैं; फलस्वरूप धरती पर हमारे कर्मों को पूर्ण करने हेतु हमें पुनः जन्म लेना पडता है । कलियुग के वर्तमान युग में पृथ्वी पर पुनर्जन्म होना प्रायः जीवन में सुख की तुलना में कष्टदायक अधिक होता है ।
अब ऐसी कोई एक चीज जो हमें कभी पुनः प्राप्त नहीं हो सकती – वह है समय , और ऐसी कोई एक चीज जो एक ही पल में जा सकती है – वह भी है समय । एक दिन, हम जागेंगे और हमें पता चलेगा कि हम शक्तिहीन बूढे हो गए हैं, और हमें आश्चर्य होगा कि समय कहां चला गया । इसलिए एक साधक के लिए, जो आध्यात्मिक उन्नति करना चाहता है, उसे प्रत्येक दिन का सदुपयोग करने की आवश्यकता है, क्योंकि उच्च आध्यात्मिक स्तर तक आध्यात्मिक उन्नति करने में जीवन भर लग सकता है । हमारी प्रार्थना है कि साधक इस ज्ञान का उपयोग करें और अष्टांग साधना मार्ग जो ‘गुरुकृपायोग’ है उसे अपनाएं और शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होने हेतु लाभ उठाएं ।