१. प्रस्तावना
साधना में एक मूलभूत सिद्धांत यह है कि पृथ्वी पर जितने व्यक्ति हैं, उतने ही ईश्वर प्राप्ति के मार्ग हैं I हमने साधना के प्रथम मूलभूत सिद्धांत पर आधारित अनुवर्ग (ट्यूटोरियल) में इस सिद्धांत के विषय में चर्चा की थी I चूंकि प्रत्येक व्यक्ति भिन्न होता है, इसलिए SSRF इस बात पर बल देता है कि प्रत्येक व्यक्ति के मूल स्वभाव के अनुसार उनका मार्ग तथा उनकी साधना भिन्न होंगी I यद्यपि, हमसे हमारे ‘प्रश्न पूछें’ की लॉग इन सुविधा पर प्रायः यह प्रश्न पूछा जाता है कि “साधना को प्रत्येक साधक के अनुरूप ढालना कैसे संभव है?” इसके अतिरिक्त SSRF साधना में ८ सामान्य चरण तथा कुछ सामान्य आध्यात्मिक उपाय जैसे नमक मिश्रित जल का उपचार तथा बक्से से उपचार के सुझाव देता है I अतः प्रत्येक साधक के लिए पूर्ण रूप से योग्य साधना कैसे हो सकती है ?
२. आध्यात्मिक कष्ट को कम करने हेतु आध्यात्मिक उपाय
अनिष्ट शक्तियों के कारण आध्यात्मिक कष्ट के संबंध में, आध्यत्मिक उपचार सामान्य तथा अनिष्ट शक्ति के कष्ट के प्रकार के अनुसार भिन्न होता है I जिस प्रकार क्षय रोग (टीबी) के लिए जो औषधि है वह क्षय रोग से ग्रस्त सभी रोगियों पर कार्य करती है, ठीक उसी प्रकार विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक कष्टों के लिए योग्य आध्यात्मिक उपचार होते हैं I उदाहरण, यदि अनिष्ट शक्ति कष्ट देने के लिए आकाशतत्त्व का प्रयोग कर रही है तो आध्यात्मिक उपचार की पद्धतियों के रूप में बक्से के उपचार संबंधित उपाय का सुझाव दिया जाएगा I और यदि कोई व्यक्ति मृत पूर्वजों के कारण होने वाले कष्ट से ग्रसित है तो उसे श्री गुरुदेव दत्त के नामजप का सुझाव दिया जाएगा I
३. हम पूर्ण रूप से योग्य साधना कैसे करें ?
यद्यपि, जब बात साधना की हो, तो SSRF इस बात पर बल देता है कि यह व्यक्ति की मूल प्रवृति के अनुसार पूर्ण रूप से योग्य होनी चाहिए जो कि सभी की भिन्न होती है I
आगे के लेख को पढने से पूर्व कुछ पृष्ठभूमि का ज्ञान जिसके विषय में आपको भान होना आवश्यक है, वह यह है कि प्रत्येक व्यक्ति आगे दिए अनुसार भिन्न होता है :
१. शारीरिक स्तर पर
२. मानसिक स्तर पर – इसमें सम्मिलित है :
- व्यक्ति के स्वभावदोष तथा अहं
- व्यक्ति के गुण
- व्यक्ति की रुचि तथा अरूचि, इत्यादि
- जीवन की परिस्थितियों के कारण आने वाली बाधाएं
३. आध्यत्मिक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति आगे दिए अनुसार भिन्न होता है
- त्रिगुणों का अनुपात
- पंचतत्व का अनुपात
- अनेक जन्मों के संचित कर्म
- वर्तमान जीवन में उसके द्वारा भोगे जानेवाले प्रारब्ध कर्म जिसके साथ वह जन्म लेता है
- क्रियमाण कर्म जो वह अपने जीवन में आगे करेगा I
अतः उपर्युक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए SSRF किस प्रकार पूर्ण रूप से योग्य साधना बताता है ? आइए देखें साधना के ८ चरण तथा देखें कि वे किस प्रकार अत्यधिक वैयक्तिक तथा अनुकूलित हो सकते हैं I
१. स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया : स्वभाव दोष निर्मूलन की प्रणाली प्रयोग में लाई हुई तथा परखी हुई प्रणाली है I प्रत्येक व्यक्ति के स्वभावदोष अत्यधिक वैयक्तिक होते हैं तथा वे अनगिनत प्रकार की पद्धतियों तथा परिस्थितियों में उभर सकते हैं I स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया प्रत्येक व्यक्ति को उस स्थिति में ढलने की दिशा प्रदान करती है I स्वभावदोष निर्मूलन पद्धति के द्वारा, हम साधक के निश्चित नकारात्मक शीलगुण (ट्रेट) को दूर करने का प्रयास करते हैं । यह व्यक्ति की विशिष्ट परिस्थितियों तथा उससे संबंधित चूकों पर ध्यान देती है I इससे उसके अंतर्मन में अनेक जन्मों से विकसित नकारात्मक संस्कार को मिटाने में सहायता मिलती है तथा साधक की आध्यात्मिक उन्नति होने में सहायक होती है I तदनुसार जब हम स्वयं सूचना बनाते हैं तो वह परिस्थिति के अनुसार योग्य होती है I हम ऐसी स्व सूचना का प्रयोग नहीं करते है जो सभी के लिए सामान्य रूप से बनी हो I
२. अहं का प्रकटीकरण: प्रत्येक व्यक्ति में अहं के प्रकटीकरण की तीव्रता तथा स्वरूप भिन्न ही होंगे I एक पद्धति के रूप में (स्वभावदोष निर्मूलन के समान) अहं निर्मूलन प्रक्रिया, अहं के प्रकटीकरण के अनुसार व्यक्ति को ढलने की दिशा प्रदान करती है I उदाहरण, कुछ लोगों में अपनी नाैकरी तथा धन संपत्ति के कारण अधिक अभिमान हो सकता है तथा कुछ में अपने कौशल अथवा अपने परिवार का घमंड हो सकता है I
३. नामजप : हमने उस धर्म में जन्म लिया है जो हमारी साधना आरंभ करने हेतु सबसे उपयुक्त है I इसी कारण SSRF अपने धर्म के अनुसार ईश्वर के नामजप करने का सुझाव देता है I पश्चात साधक की आवश्यकता के अनुसार तथा वर्तमान काल जिसमें हम जी रहे है उसके अनुसार नामजप में परिवर्तन किया जा सकता है I कुछ नामजप/मंत्र विशिष्ट रूप से साधकों को आध्यात्मिक कष्ट के कारण होने वाले लक्षणों पर विजय प्राप्त करने के लिए दिए जाते हैं I
४. सत्सेवा : जब हम साधक को सत्सेवा प्रदान करते हैं तो उस साधक के कौशल अथवा स्वभाव को ध्यान में रखते हुए करते हैं I ईश्वर ने हम सभी को गुण दिए हैं I सत्सेवा के माध्यम से हम इन्हीं गुणों को पुनः ईश्वर को समर्पित करने का अवसर प्राप्त करते हैं I ऐसा करने पर साधक की आध्यात्मिक उन्नति होती है I कुछ साधक फोटोशॉप सॉफ्टवेयर का प्रयोग कर कला के क्षेत्र में सत्सेवा करते हैं तो कुछ व्याख्यान देते हैं, कुछ साधक दूसरे साधकों का मार्गदर्शन करते हैं तथा कुछ जालस्थल (वेबसाइट) के लिए लेख लिखते हैं, कुछ पुजारी हैं तथा वे अनुष्ठान तथा मन्त्रों के उच्चारण करते हैं I इसी प्रकार संभवत सत्सेवा की सूची बहुत विशाल है I अतः यहां सभी को किसी न किसी रूप में ईश्वर के निकट जाने का अवसर प्राप्त होता है जहां वे सर्वाधिक योग्य प्रकार से ईश्वर की सेवा कर सकते हैं I
५. सत्संग : हमारे सभी सत्संगों तथा कार्यशालाओं में, जहां साधक अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रतिबद्धता दर्शाते हैं, हम उन्हें उनकी स्थिति के अनुसार विशिष्ट मार्गदर्शन प्रदान करते हैं । मार्गदर्शन इस विषय से भी संबंधित हो सकता है कि साधक के जीवन में आ रही बाधाओं पर विजय प्राप्त कैसे करें I प्रत्येक साधक की साधना की समीक्षा करने पर, उसके लिए वह समीक्षा/मार्गदर्शन सदैव सबसे योग्य होती है I
६. त्याग : प्रत्येक व्यक्ति की रुचि तथा अरुचि भिन्न होती है I जब साधक साधना करना आरंभ करता है तो उसे साधना के लिए अपने दिन में से समय निकालने के लिए अपने सांसारिक जीवन के कुछ पहलुओं का त्याग करना होगा I उदाहरण, यदि कोई व्यक्ति कार्य के उपरांत ३ घंटे टीवी देखता है तो उसे साधना के लिए समय निकालने हेतु इसे कम करना होगा I यह साधना हेतु मन का त्याग करने का एक उदाहरण हुआ I प्रत्येक व्यक्ति के प्रकरण में यह त्याग उनकी परिस्थिति के आधार पर भिन्न हो सकता है I
७. ईश्वर के प्रति भाव : भाव के संबंध में, प्रत्येक व्यक्ति का भाव व्यक्त करने का तरीका भिन्न हो सकता है I कोई कविता के माध्यम से इसे व्यक्त करता है तो कोई चित्र तथा रेखचित्र, भजन, लेख, संगीत, नृत्य इत्यादि के माध्यम से इसे व्यक्त करते हैं I
८. प्रीति : दूसरों के प्रति प्रीति विकसित करना अर्थात अपेक्षाओं से रहित प्रेम करना आध्यात्मिक उन्नति हेतु साधना में एक महत्वपूर्ण चरण है I (आध्यात्मिक दृष्टिकोण से) दूसरों के प्रति सच्चा प्रेम होना वास्तव में उन लोगों को आध्यात्मिक रूप से उन्नति करने में सहायता करना है I यहां तक कि ईश्वर का प्रेम भी उन पर बरसता है जो आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए प्रयास करते हैं तथा दूसरों को भी ऐसा ही करने में उनकी सहायता करते हैं I
ऐसे विभिन्न उपाय हैं जिसमें व्यक्ति दूसरों को उनकी आध्यात्मिक उन्नति होने हेतु उनकी सहायता कर उनके प्रति प्रीति को दर्शा सकता है I व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार दूसरों के प्रति अपनी प्रीति दर्शाने का तरीका भिन्न हो सकता है I उदाहरण, कुछ लोग कम बाेलते हैं, वे दूसरों के लिए कार्य करके उनके प्रति अपनी प्रीति को दर्शा सकते हैं I तो कुछ लोग जो अभिव्यक्त करनेवाले होते हैं, वे अन्य साधकों के साथ ध्यात्म विषयक चर्चा करके तथा उन्हें उचित दृष्टिकोण प्रदान कर उनकी आध्यात्मिक यात्रा में सहायता तथा समर्थन करते हुए अपनी प्रीति दर्शा सकते हैं I जैसे-जैसे व्यक्ति अपनी साधना में उन्नति करता जाता है वह अधिक ईश्वरीय तथा व्यापक प्रेम जो कि प्रीति है उसे ग्रहण करना आरंभ करने लगता है I इस प्रकार का प्रेम संतों की वाणी तथा व्यवहार में दिखाई देता हैं I उदाहरण, परम पूज्य डॉ. आठवलेजी साधकों के तथा सम्पूर्ण मानवता के आध्यात्मिक उद्धार हेतु अथक रूप से अपेक्षा रहित होकर कार्य कर रहे हैं I
अपने अपने जीवन में प्रत्येक को अपना प्रारब्ध भोगना ही पडता है तथा प्रत्येक को भिन्न परिस्थितयों का सामना करना पडता है I प्रत्येक व्यक्ति के प्रकरण में, किसी भी समान परिस्थिति की तीव्रता, उनके आध्यात्मिक स्तर तथा कष्ट के प्रति उनकी सहनशीलता के आधार पर भिन्न होगी I यदि किसी साधक को अनिष्ट शक्तियों के कारण कष्ट है तो उसे विभिन्न स्तर की देखभाल की आवश्यकता होगी क्योंकि अनिष्ट शक्ति सदैव साधक को अलग अलग प्रकार से कष्ट देने का प्रयास करेगी I इसमें भी यहां, इस विषय पर मार्दर्शन किया जाता है कि साधक को किस प्रकार परिस्थिति का सामना करना है; क्योंकि साधक को अपनी वैयक्तिक क्षमता के आधार पर पूर्ण रूप से उस परिस्थिति में ढलने की आवश्यकता होगी I जैसा की आप देख सकते हैं कि साधना के ये पहलू साधक व्यक्तित्व के अनुरूप असीमित मार्गों से, उसमें प्रवेश कर सकते हैं I इसी कारणवश SSRF साधना के इन चरणों का सुझाव देता है तथा साथ ही साधकों की आध्यात्मिक यात्रा में उन्नति होने में सहायता हेतु तथा साधना में आनेवाली बाधाओं पर विजय प्राप्त करने हेतु नि:शुल्क ऑनलाइन सत्संगों का भी आयोजन करता है I