क्या हत्या करना पाप है – एक आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य

इस लेख को समझने के लिए कृपया संदर्भ लेख पाप तथा पुण्य क्या है ? पढें ।

१. हत्या का आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य-प्रस्तावना

चीन के गुयेंक्सी स्थित यूलिन क्षेत्र में लोग ग्रीष्म संक्रांति कुत्ते खाने के पर्व के साथ मनाते हैं । उस समय १०,००० से १५,००० कुत्ते मारे जाते हैं तथा लीची और मद्य के साथ उन्हें खाया जाता है । यह प्राणी अधिकार समूह तथा सामाजिक मीडिया की तीव्र आलोचनाओं को आकर्षित करता है । इस क्रूर तथा अमानवीय कृत्य की निंदा व्यापक रूप से की गई है । कुत्ते का मांस विश्व के अन्य भागों में भी खाया जाता है । खाने के लिए कुत्ते को मारने की निंदा करनेवाले लोगों की स्वयं की रुचि भैंस का मांस खाने में हो सकती है । केवल यूएस में एक वर्ष में प्रतिदिन १००,००० गायें तथा २ करोड से अधिक मुर्गियां मारी जाती हैं ।

कुत्ते खानेवाले लोग ये तर्क देते हैं कि ‘‘गाय तथा मुर्गियों के जीवन की तुलना में कुत्ते के प्राण अधिक मूल्यवान कैसे हो जाते हैं ?’’ ‘‘जबकि दोनों जानवर ही हैं ।’’ ऐसी उनकी व्याख्या होती है ।

आलोचकों से त्वरित संदेहास्पद प्रत्युत्तर आता है कि ‘‘कुत्ता मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र होता है !’’

कुत्ते तथा मनुष्यों के बीच एक स्वाभाविक भावनात्मक बंधन बन जाता है । दूसरी ओर, गायों, मुर्गियों तथा मछलियों के साथ हमारा कोई भावनात्मक बंधन नहीं होता । तो क्या इससे उन्हें मारने की छूट मिल जाती है ? प्रत्येक वर्ष मानवजातिद्वारा १५० बिलियन मछलियां, जानवर तथा मुर्गियों को मारा जाता है । मांसाहारी लोग अपने मांसाहार की आवश्यकता का बचाव इस तर्क से करते हैं कि पेड-पौधों में भी तो जीवन होता है और शाकाहारी पेड-पौधों को मारते हैं । कुछ मांसाहारियों का विचार है कि जानवर को नैतिकता से मारे जाने पर उनका मांस खाना उचित है, इसके विपरीत कुछ संस्कृतियों में जानवर के गले को थोडा काटकर जब उसके प्राण धीरे-धीरे निकलते हैं, तब वैसे जानवर का मांस खाना उचित माना जाता है ।

सभी के प्राण अमूल्य हैं । क्या जानवरों को मारने अथवा उनके मारे जाने के कारण में सहभागी होने से पापार्जन होता है ? एक ऐसे अशांत संसार में जहां बढते संघर्ष तथा युद्ध में हजारों लोग मारे जा रहे हैं । इस लेख में हम मनुष्य के द्वारा मनुष्यों, जानवरों, मछलियों तथा पौधों को मारने से अर्जित होनेवाले पाप की मात्रा के संदर्भ में उसके आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य पर चर्चा करेंगे ।

२. हत्या के कारण अर्जित होनेवाले पाप का आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य

२.१ अन्य सजीव प्राणियों की हत्या करने से अर्जित होनेवाले पाप को निश्चित करने में जटिलता

सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि इस विषय के संबंध में मात्र सामान्य दिशानिर्देश देना ही संभव है । इस जानकारी को सामान्य दिशानिर्देश के रूप में बताने का कारण यह है कि मनुष्य द्वारा किसी प्राणी की हत्या किए जाने के हजारों कारण होते हैं । किसी के कृत्य के कारण अथवा उद्देश्य के आधार पर अर्जित पाप की तीव्रता निम्नलिखित कारकों के कारण भिन्न-भिन्न हो सकती है :

१. क्या हत्यारे और मरनेवाले में लेन-देन था ? पिछले जन्म में, इस जन्म की भूमिका के विपरीत परिस्थितियां होंगी जिससे लेन-देन को समाप्त करने हेतु इस कृत्य को करने की प्रेरणा उत्पन्न हुई ।

२. क्या हत्यारा नशे में था ?

३. क्या हत्यारा अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव में कार्यरत था ?

४. हत्या किस विधि से की गई ?

५. क्या हत्या कर्त्तव्य के रूप में की गई, जैसे किसी सैनिक के प्रसंग में ?

६. हत्या का उद्देश्य क्या था ? क्या वह पूर्व नियोजित थी, केवल मजाक-मस्ती के लिए की गई अथवा स्व-रक्षा के लिए ?

७. क्या हत्या भोजन के लिए की गई ?

जैसा कि आप देख सकते हैं कि ईश्वर की सभा में हत्या के कृत्य के लिए पापार्जन की मात्रा तय करते समय अनेकों घटकों का विचार किया जाता है । सामान्य न्यायालय के पास न ही ऐसे साधन होते हैं और ना ही सूक्ष्म दृष्टि, जो हत्या के अपराध को निश्चित करते समय इन विविध सूक्ष्मताओं (बारीकियों) को देख पाने में सक्षम हो । यदि कोई हत्यारा चालाकी से न्याय व्यवस्था से बच भी जाए; परंतु ईश्वर के न्यायालय से, लेन-देन के कर्म से वैश्विक नियम से नहीं बच सकता । सभी प्रारब्ध के साथ जन्म लेते हैं और अपने पिछले जन्मों में किए गए कृत्यों के आधार पर हमें भोग भोगना ही पडता है ।

एक अन्य घटक और भी है, जिस पर विचार करना आवश्यक है और वह है काल, जिसमें हम रह रहे हैं । यह ब्रह्मांड के काल अथवा चक्र की महत्ता है । वर्तमान में हम, मानवजाति के इतिहास के सर्वाधिक प्रतिकूल काल में हैं । वर्ष २०१२ से २०२३ तक, प्रत्येक मनुष्य पर अपने व्यष्टि प्रारब्ध के अतिरिक्त मानवजाति के समष्टि प्रारब्ध का विशेष प्रभाव होगा । मानवजाति द्वारा अपनाई गई रज-तम प्रधान जीवनशैली के कारण अर्जित पाप ही विनाश के इस काल का कारण है । जिसका लाभ बलशाली अनिष्ट शक्तियों ने धर्मयुद्ध करने हेतु उठाया । समस्त संसार में हो रहे युद्ध तथा प्राकृतिक आपदाएं इस काल का प्रतिबिंब ही हैं । अंतिमतः यह तृतीय विश्व युद्ध का कारण बनेगा, जिसमें विश्व के विशाल जनसमूह की मृत्यु हो जाएगी ।

२.२ हत्या से संबंधित कुछ अन्य सिद्धांत

एक व्यक्ति द्वारा किसी प्राणी की हत्या करने से संबंधित कुछ अन्य पहलू भी हैं, जिनका उल्लेख अनिवार्य है । वे हैं :

  • सभी सजीव प्राणियों को सजीव जीवों अथवा जैविक पदार्थों को खाने की आवश्यकता होती ही है । यह जीवन का नियम है । उदाहरण के लिए, मनुष्य पत्थर नहीं खा सकता और ना ही उससे उसका पोषण हो सकता है ।
  • ईश्वर ही एकमात्र निर्माता हैं और वे भी इस सृष्टि का एक भाग हैं । दूसरे शब्दों में, ईश्वरीय तत्व अलग-अलग मात्रा में सजीव तथा निर्जीव दोनों में विद्यमान हैं ।
  • ईश्वरीय तत्व की मात्रा के आधार पर, प्रत्येक व्यक्ति, जानवर तथा पेड-पौधों में सत्व, रज तथा तम की अलग-अलग मात्रा हो सकती है । सत्वप्रधान जीव की हत्या किए जाने पर व्यक्ति को अधिक पाप लगता है, क्योंकि इससे समाज की समग्र सात्विकता अथवा आध्यात्मिक शुद्धता में कमी आती है । दूसरी ओर, तमप्रधान जीव की हत्या किए जाने पर व्यक्ति को अल्प पाप लगता है विशेष रूप से तब जब वह समाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा हो । जब मानवीय सोच तथा कृत्यों के कारण समाज की समग्र सात्विकता में कमी आती है, तब इससे व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्तर पर विविध प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती हैं । वर्र्त्तमान में हमें अनुभव होनेवाले मौसम में हो रहे विचित्र परिवर्तन, पूरे वातावरणकी आध्यात्मिक शुद्धता घट जाने तथा उसमें हो रहे रज-तम की वृद्धि के प्रतिफल का एक उदाहरण है ।
  • मानवता के लिए सहायक सजीव प्राणी की हत्या करने से होनेवाले पापार्जन की मात्रा, मानवता के लिए सहायक न होनेवाले जीव की हत्या करने की तुलना में कहीं अधिक होती है । सामान्यतः वैसे जानवर जो मानवजाति के लिए सहायक होते हैं तथा उनके प्रति लगाव रखते हैं, वे सत्व-रजप्रधान होते हैं और इसलिए अन्यों की तुलना में उनमें उच्च स्तर की सात्विकता होती है ।
  • ईश्वर से एकरूप होने हेतु आध्यात्मिक रूप से प्रगति करना ही मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य होता है । प्रारब्ध भुगतने के अतिरिक्त यही लक्ष्य सूक्ष्म-देह को मनुष्य जन्म देने का एक बडा कारण है । मनुष्य ही केवल वह प्रजाति है, जो विचार करने की क्षमता तथा बुद्धि द्वारा आध्यात्मिक प्रगति कर सकती है । इसलिए अपने जीवनकाल में आध्यात्मिक प्रगति कर पाने की उसकी क्षमता के कारण, अन्य जीवों की तुलना में मनुष्य के जीवन को अधिक मूल्यवान माना जाता है ।
  • धार्मिक विधि अथवा संस्कृति के निरपेक्ष, जब कोई किसी मनुष्य अथवा जानवर की हत्या करते समय उसे यातना देता है, तब उसे और अधिक पाप लगता है ।

३. हत्या किसकी हुई है इस आधार पर अर्जित पाप की मात्रा

जब व्यक्ति किसी सजीव की हत्या करता है तब उसे होनेवाले संबंधित पापार्जन को इस सारणी में दर्शाया गया है । पापार्जन के तुलनात्मक अनुमान दर्शाने हेतु, इस लेख में हत्या के उद्देश्य तथा हत्या करने की विधि को ही ध्यान में रखा गया है । अन्य जीव की हत्या करने पर अर्जित पाप की मात्रा को जब हम देखते हैं, उसमें कृत्य के उद्देश्य का महत्व ७० प्रतिशत होता है तथा कृत्य का महत्व केवल ३० प्रतिशत होता है । पापार्जन की संबंधित मात्रा (तीसरे स्तंभ में)को प्रतिशत में दिखाया गया है, जिसमें हत्या का उद्देश्य तथा हत्या का कृत्य दोनों सम्मिलित हैं ।

कृपया ध्यान दें, सारणी में दर्शाए गए सभी आंकडे पापार्जन के औसत सूचक हैं तथा मारे जानेवाले व्यक्ति, जानवर तथा पेड-पौधों के प्रकार के आधार पर उनमें +/-५ प्रतिशत से १० प्रतिशत तक परिवर्तन हो सकता है ।

मृत्यु अथवा विनाश किसका हुआ है ? र्इश्वरीय तत्व की सामान्य मात्रा (प्रतिशत में) संबंधित पापार्जन की  मात्रा (प्रतिशत में) अर्जित पाप पर टिप्पणी
निर्जीव वस्तुएं
सभी निर्जीव वस्तुएं जैसे पत्थर,  लकडी तथा स्टील । (इसमें सात्त्विक वस्तुएं सम्मिलित नहीं हैं,  जैसे देवता की प्रतिमा,  पूजास्थल) १/१० – १/दस लाख
पूजास्थल जहां देवता तत्व सक्रिय होता है । ५-३५ २५-३५ पूजास्थल जहां देवता तत्व सक्रिय होता है,  वैसे स्थान को हानि पहुंचाने से गंभीर पाप अर्जित होते हैं । जिन पूजास्थलों में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है,  वहां देवता तत्व सक्रिय होताहैं ।
जीवाणु तथा कीडेमकोडे
सूक्ष्म-जीव जो रोगवाहक होते हैं (रोगाणु) १/१० १/१०
विविध सूक्ष्म-जीव जो मनुष्यों के लिए लाभदायक होते हैं २/१० २/१०
विभिन्न कीडे जिसमें कीट जैसे मच्छर तथा तिलचट्टे आते हैं । १-३ १-३
पेडपौधे
साधारण पेड-पौधे १-४ ४-६ वैसे पौधे जो खानेयोग्य हैं, वे र्इश्वर द्वारा मानवों के उपभोग के लिए निर्मित किए गए है । इसमें पालक,  गाजर इत्यादि प्रकार के पौधे आते हैं । इनमें कष्ट अनुभव करने की अल्पविकसित क्षमता होती है । भोजन करने से पूर्व जब हम प्रार्थना करते हैं,  तब हम अपने इस पाप से दोषमुक्त हो जाते हैं । अखंड नामजप से भी इस पाप से मु्क्ति मिलने में सहायता होती है । यदि हम फल तथा सब्जियां पौधों को बिना हानि पहुंचाए तोडते हैं तब कोर्इ पाप अर्जित नहीं होता ।
विस्तृत पैमाने पर जंगल काटना १-४ ४-१० अधिक पाप; क्योंकि इससे समाज तथा जलवायु परिवर्तन में व्यापक स्तर पर प्रभाव पडता है ।
वैसे पौधे जो ब्रह्मांड में देवता तत्व से संबंधित हैं तथा धार्मिक विधियों में प्रयुक्त होते हैं । जैसे तुलसी,  उडहुल इत्यादि ५-१२ ८-१२  इससे और अधिक मात्रा में पाप अर्जित होता है क्योंकि वैसे पौधों तथा वृक्षों को काटने से समाज की समग्र सात्विकता में कमी आती है ।
मछली
सामान्य मछलियां तथा सीपदार मछलियां जैसे सारडाइन (एक प्रकार की छोटी मछली) तथा झींगा ४-६ ५-७ मनुष्यों द्वारा प्रतिवर्ष व्यापक स्तर पर मछलियों को मारे जाने को ध्यान में रखते हुए, इस पहलू में मानवजाति द्वारा अर्जित समष्टि पाप के बडे कारणों में से एक होने की क्षमता है ।
पानी के भीतर रहनेवाले अधिक विकसित सजीव प्राणी जैसे डॉलफीन तथा व्हेल मछली जो स्तनपायी प्राणी हैं तथा मनुष्यों से जिनके मैत्रीपूर्ण संबंध हैं । ६-८ ८-१०
पक्षी
साधारण (जैसे पेरू पक्षी,  मुर्गियां,  बतख इत्यादि) ६-८ ८-१२ मनुष्यों द्वारा प्रतिवर्ष व्यापक पैमाने पर किए जानेवाले पक्षियों/मुर्गियों की हत्या को ध्यान में रखते हुए, इस पहलू में मानवजाति द्वारा अर्जित समष्टि पाप के बडे कारणों में से एक होने की क्षमता है ।
पालतू,  उदाहरण के लिए – तोता ८-११ १३-१७ जो पक्षी मनुष्यों के प्रति लगाव रखते हैं, सामान्यतः उनहें सात्त्विक माना जाता है ।
विशेष पक्षी जो देवता तत्व से संबंधित होते हैं,  जैसे – हंस,  गरुड पक्षी तथा मोर १२-१५ १८-२२
जानवर
जंगली जानवर,  जैसेबाघ,  शेर,  सांप ५-८ परिवर्तनशील पूर्णतः उद्देश्य पर आधारित होता है,  उदाहरण के लिए – स्व-रक्षा,  आखेट अथवा खाने हेतु
साधारण जानवर जिसमें पशुधन जैसे जर्सी गाय,  बकरियां तथा सूअर इत्यादि सम्मिलित हैं ।) ९-१३ ८-१२ एक जीवित प्राणी को उसके जीने के अधिकार से वंचित करना । मनुष्यों द्वारा प्रतिवर्ष व्यापक पैमाने पर किए जानेवाले इन पशुओं की हत्या को ध्यान में रखते हुए,  इस पहलू में मानवजाति द्वारा अर्जित समष्टि पाप के बडे कारणों में से एक होने की क्षमता है ।
पालतू जानवर,  जैसे – कुत्ते,  बिल्लियां तथा घोडे १५-१७ १८-२२ मानवजाति के लिए जो लाभदायक पशु नहीं हैं उनकी हत्या की तुलना में लाभदायक पशु की हत्या करने से अधिक पाप अर्जित होता है । प्रायः वे सभी जानवर जो मानवजाति के लिए लाभदायक हैं तथा उनसे प्रेम रखते हैं,  सत्व-रज प्रधान होते हैं और इसलिए उनमें अन्यों की तुलना में अधिक सात्विकता होती है ।
मंदिरों से संबंधित,  जैसे – हाथी,  बैल (नंदी) १३-१४ ३८-४२
भारतीय गाय३, ७ ३१-३३ ४५-५५ भारतीय गाय सर्वाधिक सात्त्विक प्राणी है और इसमें विद्यमान सात्विकता ३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरवाले मनुष्य जितनी है । इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि भारतीय गाय में (स्वयं में विद्यमान) देवतातत्व वातावरण में प्रक्षेपित करने की दैवी क्षमता है । इसलिए जब कोर्इ वातावरण को सात्त्विक बनानेवाले तथा दूध जैसे सर्वाधिक सात्त्विक पेय  देनेवाली गाय को मारता है, तब उसे गंभीर पाप लगते हैं ।
मनु्ष्य
एक बुरा अथवा दुष्ट व्यक्ति जिसकी प्रवृत्ति अन्यों को हानि पहुंचाने की होती है (स्वभाव से तम प्रधान ) १५-२० २८-३२ कोर्इ कितना भी बुरा क्यों न हो,  उसकी हत्या कर देने से हत्या करनेवाला मनुष्य उसके साधना करने तथा उसकी जीवनकाल को आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने के अवसर से वंचित कर देता है । इसके लिए हत्या करनेवाले व्यक्ति को पाप लगता है । दूसरी ओर, जब कोर्इ व्यक्ति समाज को हानि पहुंचानेवाले व्यक्ति की हत्या करता है,  तब उसे ३१-४१ प्रतिशत पुण्य भी प्राप्त होता है । क्योंकि उस बुरे व्यक्ति के कारण होनेवाले कष्ट से वह समाज की रक्षा करता है ।
एक साधारण व्यक्ति (रज प्रधान व्यक्ति,  जो समाज के प्रति कुछ गलत नहीं कर रहा ) २१-२५ ३८-४२  जब एक साधारण मनुष्य की हत्या की जाती है,  तब वह साधना करने तथा अपने जीवनकाल में आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने के अवसर से वंचित हो जाता है,  जो उसके जीवन का आध्यात्मिक उद्देश्य होता है । इसलिए व्यक्ति की हत्या से पापार्जन होता है ।
एक साधक ७ ३०-६९ ४५-५५ साधक साधना के महत्व को समझता है और इसलिए वह आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने के लिए निष्ठापूर्वक प्रयास करता है । इस प्रकार साधक वह व्यक्ति होता है, जो जीवन के वास्तविक उद्देश्य के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा है । साधक समाज की सात्विकता को भी बढाता है,  इसलिए साधक की हत्या करने पर वह अत्यधिक मात्रा में पापार्जित करता है ।
जो आत्महत्या करता है १५-२५ परिवर्तनशील संदर्भ हेतु देखें लेख ‘हम मृत्यु के उपरांत कहां जाते हैं’ – खंड ७ – आत्महत्या तथा मृत्योपरांत जीवन
संत ७० – ९९ १०० किसी संत की हत्या करने पर मनुष्य को सर्वाधिक पाप लगते हैं । संत वातावरण को सात्त्विक (आध्यात्मिक रूप से शुद्ध) बनाते हैं । वे समाज को र्इश्वर से एकरूप होने के लिए मार्गदर्शन करते हैं,  जो मानव जीवन का उद्देश्य है ।

टिप्पणियां

१.जब पौधे अथवा जानवर मरते हैं, उन्हें उच्च जाति (योनि)में जाने का अवसर मिलता है । यह विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ।

२.यह पूरी सारणी मनुष्य द्वारा अन्य सजीवों की हत्या किए जाने पर अर्जित पाप के संदर्भ में है, एक जंगली जानवर जैसे बाघ अथवा सांप यदि किसी मनुष्य को मार दे, तब उसे पाप नहीं लगेगा । क्योंकि उसमें यह अंतर करने की क्षमता नहीं है कि वह किसको मार रहा है । वह सामान्यतः भूख अथवा स्व-रक्षा हेतु ही किसी को मारता है ।

३.भारतीय गायों अथवा अन्य जानवरों के हत्या करने के प्रकरण में, जो व्यक्ति जानवरों की हत्या करते हैं, उन्हें ५० प्रतिशत पाप लगता है और जो उसे खाते हैं उन्हें भी ५० प्रतिशत पाप लगता है । ऐसा नहीं है कि उस जानवर का मांस खानेवाले लोगों को लगनेवाले ५० प्रतिशत पाप में जो भी उसे खाएगें, उनमें वह ५० प्रतिशत विभाजित हो जाएगा;अपितु उस जानवर का मांस खानेवाला प्रत्येक व्यक्ति जानवर को मारने के पूर्ण पाप का ५० प्रतिशत भागीदार होगा ।

४.यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि इन प्रकरणों में हमारे पुण्य पाप को निष्क्रिय नहीं कर देते और इसलिए प्रारब्ध के परिणामस्वरूप हत्या करनेवाले मनुष्य को पाप तथा पुण्य दोनों भोगने ही होते हैं । यदि हत्या का वह कृत्य स्व-रक्षा अथवा अन्यों की रक्षा के लिए किया गया हो, तो उससे अर्जित होनेवाले पाप की मात्रा अल्प हो सकती है ।

५.साधारण व्यक्ति का तात्पर्य है, २० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर का मनुष्य ।

६.जो व्यक्ति आत्महत्या करता है, उसमें ईश्वरीय तत्व की मात्रा अल्प होती है । ऐसा इसलिए क्योंकि गंभीर निराशा के चक्र लंबे समय तक रहने के कारण उस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर घट जाता है । उच्च आध्यात्मिक स्तरवाले व्यक्ति आत्महत्या का विचार भी नहीं करते । आत्महत्या करने के उद्देश्य के आधार पर पाप की मात्रा घट-बढ सकती है । कृपया संदर्भ हेतु पढें लेख मृत्योपरांत जीवन। औसत आध्यात्मिक स्तरवाले मनुष्य की हत्या करने से जैसे ३० प्रतिशत पाप लगता है, वैसे ही आत्महत्या करने से ३० प्रतिशत पाप लगता है ।

७.यदि जीवित प्राणी में ३० प्रतिशत से अधिक ईश्वरीय तत्व है, तब उस व्यक्ति अथवा जानवर के संपर्क में आनेवाले उससे प्रक्षेपित ईश्वरीय तत्व से लाभान्वित होते हैं । ३० प्रतिशत से अधिक ईश्वरीय तत्व केवल गायों, साधकों तथा संतों में होता हैं । इसलिए उनके संपर्क में आनेवाले उनसे प्रक्षेपित चैतन्य से लाभान्वित होते हैं । इसलिए उनकी हत्या करनेवालों को अधिकतम पाप लगते हैं ।

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३.१ हत्या का उद्देश्य किस प्रकार अर्जित होनेवाले पाप की मात्रा को प्रभावित कर सकता है, उसके संदर्भ में कुछ मार्गदर्शक सूत्र

जैसा कि पहले बताया गया है, हत्या के कारण अर्जित पाप की तीव्रता को निश्चित करने में हत्या के उद्देश्य का महत्व ७० प्रतिशत होता है । हमने इससे संबंधित कुछ उदाहरण आगे दी गई सारणी में दिखाए हैं ।

मनुष्य को मारने का उद्देश्य अर्जित पाप की मात्रा (उद्देश्य के ७० प्रतिशत में से) टिप्पणी
दुर्घटनात्मक हत्या  

उदाहरण के लिए सडक दुर्घटना । केवल हत्या करने के कृत्य के लिए ३० प्रतिशत पापार्जन होगा ।
किसी को यातना भोगने से बचाने अथवा किसी के द्वारा हत्या किए जाने से बचाने के लिए ३० ऐसे प्रकरण में,  पापार्जन तब अल्प होता है,  यदि हत्यारे को मारने के स्थान पर अन्य पर्याय जैसे उस स्थिति से हट जाना,  व्यक्ति को थोडी चोंट पहुंचाना इत्यादि अपनाया गया हो । दूसरी ओर,  एक दुष्ट व्यक्ति से समाज की रक्षा करने पर पुण्य भी अर्जित होता है ।

ऊपर दी गर्इ सारणी का संदर्भ लें । पाप की मात्रा कौन किसकी हत्या कर रहा है,  इस पर भी निर्भर करता है ।

आकस्मिक ५० इसमें आकस्मिक हत्या आती है,  जैसे बचकर भाग जाने के क्रम में चोर की हत्या । इससे अधिकतम पाप नहीं लगता क्योंकि इससे मन में दृढ संस्कार निर्मित नहीं होते ।
राक्षसी सुख के  लिए हत्या ७० उदाहरण युवती का बलात्कार कर उसकी हत्या करना । हत्या के समय व्यक्ति को यातना देना
अनावश्यक रूप से ही अन्य व्यक्ति को शत्रु मान लेना ७० मन में गहरे; बैठे घृणा तथा प्रतिशोध के विचार के कारण किसी की हत्या करने से अधिक पाप लगते हैं । क्योंकि इससे अवचेतन मन में अधिक बडे संस्कार अनेक जन्मों के लिए रह सकते हैं ।

३.२ हत्या करने की विधि अर्जित पाप को प्रभावित कर सकती है

जैसा कि ऊपर बताया गया है, हत्या करने में उद्देश्य का महत्व ७० प्रतिशत तथा हत्या करने की विधि का महत्व ३० प्रतिशत होता है ।

हत्या की विधि अर्जित पाप की मात्रा (३० प्रतिशत में से)
एक ही वार में मार देना,  उदाहरण के लिए – बंदूक से मार देना १०
यातना देकर मारना ३०

यदि व्यक्ति अथवा जानवर की हत्या करते समय उसे यातनाएं दी गईं तो हत्या करनेवाले व्यक्ति को पाप की पूर्ण मात्रा अर्जित होती है

४. हत्या तथा पाप के संदर्भ में सारस्वरूप कुछ मुख्य बिंदु

धर्म वह है जिससे ३ उद्देश्य साध्य होते हैं :
१. समाज व्यवस्था को उत्तम बनाए रखना
२. प्रत्येक प्राणिमात्र की व्यावहारिक उन्नति साध्य करना
३. आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रगति साध्य करना ।
- श्री आदि शंकराचार्य
  • मनुष्य होने के कारण हम पृथ्वी पर सर्वाधिक विकसित तथा बलशाली जीव हो सकते हैं; किंतु इसके साथ अन्य सजीवों के प्रति हमारा उत्तरदायित्व भी संलग्न है ।
  • अनावश्यक रूप से अन्य सजीवों की हत्या करने से पाप का भारी दंड मिलता है, जिसका वहन हमें कर्म के स्तर पर इस जन्म में अथवा अगले जन्म में करना ही पडता है ।
  • यदि किसी को ज्ञात नहीं कि मांस खाना पाप है, तब उसे ५० प्रतिशत कम पाप लगते हैं ।
  • मांस खाने की तीव्र इच्छा किसी गाय अथवा अन्य पशु की हत्या करनेके समर्थन में करनेयोग्य तर्क नहीं है । विशेषकर तब जब इसका पर्याय उपलब्ध है, जैसे शाकाहारी भोजन ।
  • पशुओं का दयामय अथवा नैतिक वध, तर्क जो भी हो, इससे इस तथ्य पर कोई प्रभाव नहीं पडता, अपितु महत्वपूर्ण यह है कि जानवरों की हत्याएं की जा रही हैं । उन्हें एक सामान्य जीवन जीने का एक अवसर देना चाहिए ।
  • जब मानवजाति धर्म के अनुसार व्यवहार करती है, तब शांति तथा समृद्धि सुनिश्चित होती है ।
  • नियमित साधना करने से हमारा मन तथा बुद्धि आध्यात्मिक रूप से शुद्ध बनती है, जिससे हम अपने लिए तथा समाज की भलाई के लिए अच्छे निर्णय ले सकें । अपने दैनिक जीवन में हमसे हाेनेवाले पौधों तथा सूक्ष्म-जीवों की हत्या से अर्जित पापक्षालन के लिए भगवान के नाम का जप करना सबसे सरल मार्ग है । ६० प्रतिशत तथा उससे अधिक आध्यात्मिक स्तर पर, व्यक्ति का ईश्वर से अधिक अच्छा आंतरिक सान्निध्य हो जाता है । इस आध्यात्मिक स्तर के उपरांत नामजप (अमौखिक रूप से)दिनभर अवचेतन मन में होता रहता है । इस प्रगत स्तर पर हो रहा नामजप हमारे द्वारा दिनभर में हुए विविध सजीवों जैसे पौधों तथा कीडे-मकोडों को मारने के कारण अर्जित लघु पापों का क्षालन करता है ।