यह अनुभूति श्रीमती क्षमा राणे तथा तीन अन्य साधिकाओं की है, जो परम पूज्य डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में साधना कर रही हैं । इन चारों साधिकाओं को आध्यात्मिक उपचार के लिए एप्रन बनाने की सत्सेवा मिली थी । इस एप्रन को पहनते समय इसमें बने छोटे पॉकेट में साधक अपने शरीर के प्रत्येक चक्रों के अनुसार देवताओं के चित्र अथवा उनके नामजप की पट्टी व्यवस्थित रूप से रख सकते हैं । इसे बनाने की सेवा करनेवाले साधक शरीर के ८ वें तथा ९ वें द्वार (उत्सर्जन अंग तथा जननांग)के लिए वस्त्र के बाह्य भाग में जेब (स्थानधारक) भी बनाते हैं जिससे उत्सर्जन अंगों तथा जननांगों पर सात्विक कार्यप्रेरक (stimuli) वाली वस्तु जैसे देवता के चित्र अथवा संत की लिखावट को रखा जा सके । ऐसा इसलिए क्योंकि नीचे के तीन चक्रों पर अनिष्ट शक्तियां सरलता से आक्रमण कर सकती हैं तथा इस कारण हमारी क्षुद्र इच्छाएं प्रकट होती हैं और फलस्वरूप हमारी साधना में आने वाली बाधाओं में वृद्धि हो जाती है । जब स्वतः दहन पर यह लेख लिखा जा रहा था तब निम्नलिखित अनुभूति हुई जिसे श्रीमती क्षमा राणे द्वारा वर्णन किया गया है ।
२० फरवरी २०१० को हमारा सिलाई विभाग एक बडे कक्ष में स्थलांतरित हो गया जिससे और अधिक साधक एप्रन बनाने की सेवा एकसाथ कर सके । उस कक्ष का उपयोग अनेक दिनों से नहीं हुआ था इसलिए हमने कुछ समय पूरे कक्ष की स्वच्छता की । हमने उस कक्ष की आध्यात्मिक स्तर पर शुद्धि के लिए SSRF द्वारा निर्मित अगरबत्ती जलाई, सामूहिक प्रार्थना एवं भगवान के नाम का जप किया । उसके उपरांत ही हमने कपडों की गठरियां खोलकर भूमि पर रखीं । कपडों की बडी गठरियों को किनारे रखा गया तथा छोटे आकार के कपडे जो काटने के लिए तैयार थे, उन्हें अलग से अपने सामने रखा गया ।
कुछ समय के उपरांत हमें जलने की गंध आने लगी । पहले हमें लगा कि ये कहीं बाहर से आ रही है; किंतु लगभग १० मिनट के उपरांत हमने आश्चर्यजनक रूप से देखा कि हमारे ही बगल में रखे कपडे के एक टुकडे से धुंआ निकल रहा था । जैसे ही कपडे के टुकडे को पलटा हमने उसमें धुंआ निकलते हुए एक बडा छेद देखा ।
हमने कपडे को जलने से रोकने के लिए हाथ से थपथपाया किंतु उसका कोई लाभ नहीं हुआ । तब हमने हमारे सबसे निकट रखी पानी की बोतल से उस कपडे पर पानी डाला, तब जाकर आग बुझी । स्वतः दहन की इस घटना की साक्ष्य इस सेवा को कर रही चार साधिकाएं थी जो डॉ. (श्रीमती) भोंसले, सुश्री. अरूणा सिंह, श्रीमती सुनंदिता सुराल तथा मैं थी । आग लग सके, ऐसी कोई भी वस्तु आसपास नहीं थी ।
जबसे यह सेवा मिली है, मुझे विभिन्न प्रकार के कष्ट अनुभव हुए हैं, इससे मेरी सत्सेवा तथा साधना में बाधाएं निर्मित हुई हैं । जिसमें सिर में वेदना होना, उलटी जैसा प्रतीत होना, चिडचिडाहट, सत्सेवा को हाथ भी न लगाने का मन करना जैसे कष्ट सम्मिलित हैं । यह भी सत्य है कि मुझे यह अनुभव लेना ही चाहिए था क्योंकि पूर्व में जब भी मैं अनिष्ट शक्तियों के कारण स्वतः दहन अथवा देवताओं, संतों के चित्रों को जलने के संदर्भ में सुनती, तब मुझे सदैव लगता था कि क्या इसकी कोई वैज्ञानिक व्याख्या है । यह अनुभूति लेने के उपरांत अब (मुझे विश्वास हो गया है) कि अनिष्ट शक्तियों के कारण होनेवाले स्वतः दहन बिना किसी वैज्ञानिक व्याख्या के भी हो सकते हैं । इससे हमें पूर्ण करने हेतु दी गई सत्सेवा का महत्त्व भी समझ में आया क्योंकि वह साधकों के आध्यात्मिक उपचार के लिए थी । जब हमने SSRF के सूक्ष्मज्ञान विभाग को यह पूरी घटना बताई तब उन्होंने सत्यापित किया कि स्वतः दहन की ये घटना अनिष्ट शक्तियों के कारण हुर्इ ।
आध्यात्मिक शोध दल की टिप्पणी :
- अनेक बार साधक स्वतः दहन होने की घटना से पूर्व ही कष्ट (शारीरिक तथा मानसिक स्तर पर) अनुभव करते हैं, क्योंकि उनकी छठवीं इंद्रिय होनेवाले आक्रमण के प्रति संवेदनशील होती हैं ।
- कपडे से निकलनेवाली गंध अत्यधिक बदबूदार एवं तीक्ष्ण थी तथा सामान्य जलने की गंध से अलग थी;इसलिए उस जले हुए कपडे को एक सेकेंड के लिए भी नाक के पास रखना कठिन था ।
- कपडे से निकलनेवाली नकारात्मक सूक्ष्म तरंगें उच्च स्तरीय अनिष्ट शक्तियों द्वारा किए गए सूक्ष्म आक्रमण का स्पष्ट संकेत थी ।