अपने जीवनकाल में अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, राक्षस इत्यादि) निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहती हैं ।
१. अन्यों को कष्ट देकर सुख प्राप्त करना
कुछ अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, राक्षस इत्यादि) के अवचेतन मन में अन्यों को कष्ट देने के गहरे संस्कार होते हैं । जिसके परिणामस्वरूप वे निरंतर अन्यों को कष्ट देती रहती हैं ।
यहां तक कि जिन अनिष्ट शक्तियों का आरंभ में ये उद्देश्य नहीं होता है, वे भी अन्यों को कष्ट देना आरंभ कर सकती हैं । अन्यों को कष्ट देने में सुख अनुभव करनेवाली अनिष्ट शक्तियों की संगति में रहकर अथवा उच्च स्तरीय अनिष्ट शक्तियों द्वारा बाध्य किए जाने पर अन्यों को कष्ट देने की शक्ति से प्राप्त सुख को अनुभव करने के करने के कारण ऐसा होता है ।
२. अपनी इच्छा अथवा लालसा को संतुष्ट करने का प्रयास करना
व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसके अनिष्ट शक्ति बन जाने का एक अन्य कारण है उसकी अपूर्ण इच्छा/लालसा । चूंकि अनिष्ट शक्तियों की स्थूल देह नहीं होती, इसलिए वे स्वयं ही अपनी इच्छा/लालसा को संतुष्ट नहीं कर सकते । इसलिए वह अपने से मिलती-जुलती इच्छा/लालसा रखनेवाले जीवित व्यक्ति को आविष्ट कर उनके माध्यम से अपनी इच्छा को पूर्ण करती है । आविष्ट व्यक्ति मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से कितना दुर्बल अथवा दृढ है, इसके आधार पर अनिष्ट शक्ति को व्यक्ति की दृढता पर अपना वर्चस्व जताने के लिए वर्षों तक काम करना पडता है । तभी वे व्यक्ति को नियंत्रित कर पाते हैं, जिससे वे अपनी इच्छा/लालसा को पूर्ण कर सके ।
३. प्रतिशोध लेना
उदाहरण के लिए, ‘अ’ व्यक्ति ने ‘ब’ व्यक्ति को हानि पहुंचाई अथवा उसके साथ अत्यधिक अनुचित व्यवहार किया और बव्यक्ति की मृत्यु हो जाती है । उसके सूक्ष्म देह ने भले ही भौतिक देह को छोड दिया हो;किंतु उसमें प्रतिशोध लेने के गहरे संस्कार रहते ही हैं । ऐसे प्रकरण में, ‘ब’ व्यक्ति के सूक्ष्म देह के अनिष्ट शक्ति बन कर ‘अ’ से प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से उसे कष्ट देने की संभावना अत्यधिक होती है । यह कष्ट देने की घटना एक बार की हो सकती है अथवा यह लंबी प्रक्रिया भी हो सकती है ।
कष्ट देने की एक बार की घटना का उदाहरण यह हो सकता है कि वह अनिष्ट शक्ति पृथ्वी पर उसकी मृत्यु के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को मारकर अपना प्रतिशोध लेती है । यह एक लंबी प्रक्रिया भी हो सकती है, इसमें अनिष्ट शक्ति व्यक्ति/व्यक्तियों से प्रतिशोध लेने के लिए उसे अनेक वर्षों तक अलग-अलग प्रकार से कष्ट देती रहती है । यह अनेक दशकों तक जारी रह सकता है । कभी-कभी तो यह उस व्यक्ति के वंशजों के साथ भी होता रहता है ।
जब ‘ब’ जीवित था तब उसकी आध्यात्मिक शक्ति सीमित थी । क्योंकि वह शक्ति अनेक भागों में जैसे जीविकोपार्जन करने, उसकी रुचियों, मित्रों इत्यादि में विभक्त थी । किंतु उसकी मृत्यु के उपरांत अपने भौतिक अस्तित्व के बिना उसकी सारी शक्ति प्रतिशोध लेने के एकमात्र विचार पर केंद्रित हो गई । इस प्रकार जिसका प्रभाव जीवित रहते समय अधिक नहीं था, अपनी मृत्यु के उपरांत भी वह अन्यों को प्रभावित कर सकता है ।
४. साधकों को कष्ट देना
साधक साधना कर सत्त्व गुण में वृद्धि करते हैं । इस वृद्धि की मात्रा में तब और अधिक गति आ जाती है जब वे अन्यों को साधना करने तथा उन्हें साधना हेतु प्रोत्साहित करने हेतु प्रयासरत हो जाते हैं । अन्यों से साधना करवाने के कारण वातावरण में सत्त्वगुण कई गुना बढ जाता है । अनिष्ट शक्तियां तमोगुणी होती हैं, इसलिए उच्च स्तरीय सत्त्वगुण के वातावरण में उन्हें कष्ट होता है । इसलिए अनिष्ट शक्तियां साधकों को कष्ट देने के लिए बाधाएं निर्मित करती हैं जिससे वे ये सब पूर्ण रूप से बंद कर दें ।
जब किसी की साधना में बढोत्तरी होती है, तब उस पर अनिष्ट शक्तियों द्वारा आक्रमण करने की संभावना भी बढ जाती है । विशेषकर जब साधक अन्यों को साधना आरंभ करने में सहायता करने लगते हैं । यद्यपि अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, राक्षस इत्यादि)के आक्रमण से सुरक्षा हेतु साधकों की क्षमता में भी वृद्धि होती है । क्योंकि साधक की बढती साधना से उसका आध्यात्मिक स्तर भी बढता है और इसके फलस्वरूप वह ईश्वर से सुरक्षा प्राप्त करने हेतु भी सक्षम होता जाता है । अनिष्ट शक्ति (भूत, प्रेत, राक्षस इत्यादि)की शक्ति से, व्यक्तिगत साधना से व्यक्ति को प्राप्त ईश्वरीय सुरक्षा १० प्रतिशत तथा स्वयं साधना करते हुए समाज को भी साधना करने हेतु प्रेरित एवं मार्गदर्शन करने से प्राप्त ईश्वरीय सुरक्षा २० प्रतिशत अधिक होती है । ईश्वर की सुरक्षा सभी के लिए एकसमान है;किंतु जिनका आध्यात्मिक स्तर उच्च है तथा जो साधना हेतु समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं, अपने अल्प अहं के कारण वे ईश्वरीय सुरक्षा को अधिक प्राप्त करने में सक्षम हैं ।